Friday, January 30, 2009

तैयार हो रही है राहुल की राह....................


एक बार फिर राहुल गांधी को पीएम बनाए जाने का मुद्दा गरमाया हुआ है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्
जी ने कहा है कि अब वह दिन दूर नहीं, जब राहुल देश का नेतृत्व संभालेंगे। दिग्विजय सिंह भी ऐसी राय व्यक्त कर चुके हैं। पिछले साल अर्जुन सिंह ने जब यह मुद्दा उठाया था, तो इसका जोरदार तरीके से खंडन कर दिया गया था। खंडन तो इस बार भी किया जा रहा है, मगर उसमें वैसी तत्परता और स्पष्टता है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद समेत दूसरे नेता बात को गोलमोल कर दे रहे हैं। वे इस बात को अब इस तरह कह रहे हैं कि राहुल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, उनमें इसकी पूरी क्षमता है, लेकिन कब बनेंगे यह नहीं कहा जा सकता या इसके बारे में वह खुद निर्णय करेंगे। इसी क्रम में शकील अहमद ने सोनिया गांधी के उस वक्तव्य की याद दिलाई है कि 2009 में भी मनमोहन सिंह ही लालकिले पर झंडा फहराएंगे। दरअसल, कांग्रेस में यह मामला पिछले कुछ समय से बड़े सुनियोजित तरीके से उठाया जा रहा है। कुछ नेता इस पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं फिर उसे समेट लेते हैं, ताकि जनता के मिजाज को भांपा जा सके। कांग्रेस राहुल की स्वीकार्यता का परीक्षण कर रही है और उनके प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में एक माहौल कायम करना चाहती है। अपने इस अजेंडे के तहत वह राहुल को सीधे प्रॉजेक्ट करने से बचना चाहती है। कांग्रेस ही नहीं, उसके सहयोगी दलों में भी इस बात पर सहमति बन गई है कि अगर चुनाव के बाद का समीकरण यूपीए के पक्ष में होता है, तो राहुल का नाम प्रस्तावित कर दिया जाए।दरअसल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि को लेकर कांग्रेस बहुत आश्वस्त नहीं है। उसे लगता है कि मनमोहन सिंह की इमेज एक कमजोर नेता की रही है। पिछले पांच वर्षों के शासनकाल में कुल मिलाकर यही संदेश गया कि उनकी भूमिका महज प्रतीकात्मक है। न्यूक्लिअर डील को छोड़ दें, तो शायद ही कभी ऐसा लगा कि वह किसी मसले पर दृढ़ता के साथ सामने आए हों। पिछले कुछ समय से राजनीतिक गलियारे से छन-छनकर यह खबर आई (या आने दी गई) कि सरकार के कुछ हालिया फैसले राहुल गांधी के प्रभाव में लिए गए। मसलन मुंबई हादसे को लेकर पाकिस्तान के प्रति कड़े रुख का इजहार और जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की ताजपोशी। लेकिन कांग्रेस सीधे-सीधे यह नहीं कह सकती कि वह मनमोहन सिंह के नेतृत्व को खारिज कर रही है। ऐसा करना यूपीए सरकार की उपलब्धियों पर खुद ही पानी फेर देना होगा, फिर वह कौन सा मुंह लेकर जनता के बीच वोट मांगने जाएगी?इसीलिए जो नेता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की बात कर रहे हैं, वे मनमोहन सिंह के कामकाज की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते, लेकिन वे साफ तौर पर यह भी नहीं कहते कि कांग्रेस मनमोहन सिंह को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके चुनाव मैदान में उतरेगी कि नहीं। चुनाव के पहले कांग्रेस नेतृत्व के सवाल को अनसुलझा रखना चाहती है लेकिन राहुल की इमेज चमकाने का अभियान भी चलता रहेगा।राहुल गांधी के मामले में सोनिया गांधी ने बहुत ही फूंक-फूंक कर कदम उठाए हैं। कुछ उसी तरह, जैसे राजीव गांधी के मामले में इंदिरा गांधी ने उठाए थे। पहले कहा गया कि राहुल राजनीति में नहीं आएंगे। फिर धीरे-धीरे वे सियासत में आए और उसके बाद सांसद बने। उसके बाद उन्हें पार्टी संगठन में अहम जिम्मेदारी दी गई। अपने चुनाव क्षेत्र और देश के दूसरे हिस्सों में राहुल लगातार दौरे कर रहे हैं। पार्टी चाहती है कि राहुल समाज से परिचित हों और जनता भी उन्हें जान जाए। शुरू-शुरू में राहुल ने कुछ अपरिपक्वता दिखाई थी। बांग्लादेश और बाबरी मस्जिद के संबंध में उनके दिए बयान से विवाद हुआ, पर अब वह बहुत संभलकर बोल रहे हैं। संसद में भी उनके भाषणों में परिपक्वता दिखने लगी है। सवाल है कि क्या देश की जनता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार है? राहुल के व्यक्तित्व में कोई करिश्मा नहीं है, लेकिन युवा होना उनकी सबसे बड़ी ताकत है। यह ठीक है कि उन्हें अपने पिता की तरह किसी तरह की सहानुभूति लहर का लाभ नहीं मिल रहा है, लेकिन उनके लिए सकारात्मक बात यह है कि विपक्षी दलों के पास कोई युवा नेता नहीं है। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज देश की 70 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है। यह वर्ग अब राजनीति पर निर्णायक असर डालने की स्थिति में आ गया है। आज की यह युवा पीढ़ी स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई है। यह कई पुराने आग्रहों और रूढि़यों से मुक्त है। यह सूचना क्रांति और ग्लोबलाइजेशन के दौर में जवान हुई है, इसलिए उसके सोचने का ढंग अलग है। यह पॉलिटिक्स और लीडरशिप के बारे में पुरानी पीढ़ी से भिन्न राय रखती है। इसे ऐसा नेता चाहिए जो ठोस काम करे, जो डिवेलपमंट सुनिश्चित कर सके ताकि इस पीढ़ी के सपने साकार हों। हाल के विधानसभा चुनावों के परिणाम में इस नजरिए की झलक मिली है। यह पीढ़ी अस्सी पार कर चुके लालकृष्ण आडवाणी की बजाय युवा राहुल गांधी को ज्यादा उम्मीद से देख रही है। राहुल के विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि वह अनुभवहीन हैं। लेकिन आज के दौर में विजन ज्यादा महत्वपूर्ण है, अनुभव नहीं। नई पीढ़ी नया नजरिया चाहती है। रही वंशवाद की बात, तो यह मामला कमजोर पड़ता जा रहा है क्योंकि आज हर पार्टी इसका शिकार हो चुकी है। ऐसे में राहुल गांधी के लिए स्थितियां निश्चय ही अनुकूल होती जा रही हैं, लेकिन यह सवाल तो फिर भी बचता ही है कि क्या कांग्रेस राहुल गांधी को महज एक युवा प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगी या नई आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सत्ता में रहकर या उसके बाहर गंभीरता से प्रयास भी करेगी?