Tuesday, February 3, 2009

भटकी रणनीति

भटकी रणनीति अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान के लिए विशेष दूत नियुक्त कर शानदार काम किया है। ओबामा ने कहा है कि आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई में अफगानिस्तान और पाकिस्तान केंद्रीय मोर्चा है। मध्य-पूर्व के साथ-साथ यह इलाका अमेरिकी हितों के लिए महत्वपूर्ण है। ओबामा जब कहते हैं कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हालात बिगड़ते जा रहे हैं और एक दूसरे से संबद्ध दोनों देशों के लिए एक अनुकूल अमेरिकी कूटनीति की जरूरत है तो वह बिल्कुल सही होते हैं। वैसे अफगानिस्तान में सैन्य शक्ति बढ़ाने का उनका विचार गलत है। अफगानिस्तान में गर्मियों तक सैनिकों की संख्या करीब दोगुनी करके यह आंकड़ा 63 हजार पर लाने की योजना की मंशा तालिबान को सैन्य बल की ताकत से उखाड़ना नहीं है, बल्कि शक्ति प्रदर्शन के बल पर राजनीतिक समझौता करने की है। जो बुश प्रशासन ने इराक में किया वही ओबामा अफगानिस्तान में करना चाहते हैं। इराक में अमेरिका ने सुन्नी कबीलाई नेताओं और अन्य स्थानीय सरदारों को सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास किया था। अफगानिस्तान में और अधिक सैनिक भेजने की रणनीति अमेरिका को हार की ओर ले जाएगी। एक लाख से अधिक सोवियत सैनिक भी अफगानिस्तान को काबू नहीं कर पाए थे। असल मुद्दा सैनिकों की संख्या बढ़ाना नहीं, बल्कि सही रणनीति अपनाना है। रक्षा मंत्री राबर्ट गेट्स के वरदहस्त से अमेरिकी केंद्रीय कमान के कमांडर जनरल डेविड पेट्रायस तालिबान की प्रमुख शक्ति अफगान कमांडरों और कबीलाई नेताओं को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना चाहते हैं। जनरल पेट्रायस स्थानीय कबीलाई सरदारों और अन्य गुरिल्ला नेताओं के साथ संधि और मैत्री करना चाहते हैं। उन्होंने इराक में भी सैन्य शक्ति के बल पर ऐसा ही किया था। वार्ता को सफलता के अंजाम तक पहुंचाने के लिए अमेरिका को पहले तालिबान की शक्ति क्षीण करनी होगी। अफगानिस्तान के प्रत्येक प्रांत में स्थानीय सरदारों को तैनात करते समय उसे इराक में अपने अनुभव की किताब के पन्ने पलटने होंगे। यह कदम इस खतरे से आंखें फेरने वाला है कि ऐसे सरदार स्थानीय जनता को आतंकित कर सकते हैं। 2008 का वर्ष अमेरिकी सेनाओं के लिए सबसे घातक सिद्ध हुआ है। अगर तालिबान फिर से आक्रामक हो रहे हैं तो इसके दो प्राथमिक कारण हैं- तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली सहायता और विदेशी दखल के खिलाफ पश्तूनियों का बढ़ता पलटवार अर्थात उनमें राष्ट्रवाद का जोर मारना। अमेरिकी शक्ति प्रदर्शन स्थानीय तालिबान कमांडरों और कबीलाई सरदारों में इतना खौफ पैदा नहीं कर पाएगा कि वे शांति संधि करने को मजबूर हो जाएं-खासतौर से तब जब अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों का साथ दे रहे कुछ देश युद्ध से आजिज आ चुके हैं। ऐसे समय जब अफगानिस्तान में युद्ध के लिए समर्थन घटता जा रहा है, ओबामा प्रशासन पर दबाव है कि वह जल्द कुछ परिणाम निकाले। वास्तव में इराक के समान अफगानिस्तान में सैनिकों में वृद्धि और घूसखोरी के अनुभव के आधार पर काबुल में सफलता की कामना करना भोलापन ही है। अफगानिस्तान का पर्वतीय इलाका, असंख्य कबीले, कबीलाई पंथिक आग्रह, अफीम का वैश्विक गढ़ और लंबे गृहयुद्ध का इतिहास इसे अन्य मुस्लिम देशों से अलग करता है। एक ऐसी जगह जहां विदेशी सेनाओं को नीचा दिखाने की लंबी परंपरा रही है, घूसखोरी से शांति नहीं खरीदी जा सकती। तब भी पेट्रायस बांटो और जीतो की साम्राज्यवादी कूटनीति का 21वीं सदी का संस्करण इस्तेमाल करना चाहते हैं। यह तय है कि पाकिस्तान पर अपनी निर्भरता बढ़ाने की पेट्रायस की योजना तालिबान को अपने दांत और पैने करने में सहायक सिद्ध होगी। रूस और मध्य एशियाई देशों के साथ रसद आपूर्ति करने के लिए रास्ता उपलब्ध कराने की नई संधियों से भी अमेरिका की पाकिस्तान पर निर्भरता अधिक नहीं घटेगी। ऐसे आसार हैं कि नई रणनीति को तर्कसंगत ठहराने के लिए अलकायदा और तालिबान में दिखावटी अंतर स्थापित किया जाएगा। इसके तहत अलकायदा को एक बुराई मानते हुए तालिबान के साथ समझौते की कोशिश की जाएगी। कटु सत्य यह है कि जिहाद के लिए बेचैन आत्माएं-अलकायदा, तालिबान और लश्करे-तैयबा एक-दूसरे के साथ इस तरह घुलमिल गए हैं कि इनको अलग-अलग करना संभव नहीं है। पाकिस्तान में इन्हें सुरक्षित पनाहगाह मिल रही है। एकमात्र अंतर यह है कि अलकायदा पर्वतीय गुफाओं के मुहाने से अभियान चलाता है, जबकि तालिबान और लश्करे-तैयबा पाकिस्तान में कुछ खुलकर कार्य करते हैं। इस प्रकार के किसी भी समूह के साथ संधि वैश्विक जिहाद संघ को मजबूती ही प्रदान करेगी। पहले इस नीति का समर्थन करने वाले उपराष्ट्रपति जो बिडेन की दलील है कि अमेरिका के लिए अफगानिस्तान को सुरक्षित रखना जरूरी है, क्योंकि अगर यह असफल हो गया तो पाकिस्तान में भी ऐसा ही होगा। वह दोहरी गलती कर रहे हैं। अफगानिस्तान में युद्ध को सात साल बीत चुके हैं। वह समय निकल चुका है जब सैन्य शक्ति में वृद्धि असरदार साबित होती। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अमेरिका तब तक अफगानिस्तान में जीत हासिल नहीं कर पाएगा जब तक वह पाकिस्तान की सैन्य पनाहगाहों को ध्वस्त न कर दे और जब तक तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली बुनियादी सहायता पर रोक न लगे। ओबामा के शपथ ग्रहण करने से तुरंत पहले ऐसा ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्टीफन हेडली ने कहा था-आप पाकिस्तान को साधने से पहले अफगानिस्तान को कभी नहीं साध पाएंगे। फिर भी, वाशिंगटन पाकिस्तान को असैन्य सहायता जारी रखने और जवाबदेही के साथ सैन्य सहायता देने की बात कर रहा है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका इस स्थिति में है कि वह दीवालिया होने के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान को 24 घंटे के भीतर घुटने टेकने को मजबूर कर दे। उसे पाकिस्तान को मिलने वाली तमाम सहायता रोकने और आतंक फैलाने वाले राष्ट्रों की सूची में डालने की धमकी देने भर की जरूरत है, जबकि अमेरिका इसका उलटा कर रहा है। वह पाकिस्तान के साथ सैन्य सहयोग बढ़ा रहा है। अमेरिकी अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि अमेरिका अशासित सीमा क्षेत्र के ऊपर मानवरहित विमान ड्रोन की कार्रवाई पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों की देखरेख में करने पर राजी हो गया है। साथ ही वह पाकिस्तान में फोन से होने वाली आतंकियों की बातचीत का रिकार्ड भी पाकिस्तान से साझा कर रहा है। अगर ओबामा प्रशासन इस संधि के माध्यम से अफगानिस्तान में हिंसा में कमी लाने में कामयाब हो भी जाता है तो भी पाकिस्तानी सेना की सहायता से तालिबान की संहारक शक्ति बरकरार रहेगी। इस प्रकार का सामरिक लाभ इस क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करेगा। अल्पकालीन सफलता की कामना से ओबामा प्रशासन दीर्घकालीन अमेरिकी नीतियों की कमजोरी का शिकार बन रहा है। वह छोटे लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मित्रों की सुरक्षा की अनदेखी कर रहा है। जैसा कि मुंबई हमलों से जाहिर होता है, अफगानिस्तान-पाकिस्तान पट्टी में अमेरिका की विफल नीतियों का सबसे अधिक खामियाजा भारत को ही भुगतना पड़ा है।