Sunday, February 8, 2009

भाजपा का राग


नागपुर में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी एवं राष्ट्रीय परिषद से जो स्वर उभरे हैं, उन्हें चुनावी सुर के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। आसन्न लोकसभा चुनाव के पूर्व पार्टी के इस जमावड़े से अन्य किसी संदेश की उम्मीद की भी नहीं जा सकती। ऐसे समय में किसी भी पार्टी का आयोजन चुनाव पर ही केंद्रित होगा। इसलिए भाजपा ने चाहे गांधी को आर्थिक संकट से मुक्ति का उपाय माना हो या फिर राम मंदिर निर्माण को अपने एजेंडे में होने का एलान, इसे पूरा देश चुनावी नजरिए से ही देखेगा। भाजपा चुनाव में इनका उपयोग किस तरह करती है, इसके बारे में नागपुर प्रस्ताव शांत है, इसलिए हमें चुनाव अभियान आरंभ करने का इंतजार करना होगा। वैसे गांधी का नाम पार्टी ने पहली बार नहीं लिया है। 1980 में पार्टी ने स्थापना के समय गांधीवादी समाजवाद को सिद्धांत के तौर पर अपनाया था, जिसे बाद में हटा दिया गया। पार्टी अध्यक्ष ने रामसेतु मामले पर संप्रग सरकार की खिंचाई करके राम नाम के उपयोग का एक रास्ता दिखाया है और यह चुनाव मैदान में गूंजेगा अवश्य। गांधी और राम-- भाजपा के लिए चुनावी दृष्टि से कितने लाभकारी होेंगे, इस बारे में भी अंतिम मत व्यक्त करना कठिन है। हां, आर्थिक मंदी के लिए सरकार की नीतियों को विफल करार देने, आतंकवाद के मोर्चे पर लचर रवैया अपनाने, घुसपैठ आदि को नजरअंदाज करने आदि आरोपों से इसने सरकार के खिलाफ चुनावी मुद्दों की एक फेहरिस्त हमारे सामने रख दी है। चुनाव के पूर्व हर पार्टी अपने समर्थक वर्ग को खींचने के लिए अपने नजरिए से मुद्दे सामने लाती है और भाजपा को भी अपने मुद्दे सामने रखने का अधिकार है। किंतु, वह समर्थक दलों के साथ शासन हाथ में लेने के लक्ष्य से चुनाव मैदान में उतर रही है, इसलिए उसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के स्वर के साथ स्वर देना है। यह उसके कुछ मुद्दों पर मुखर होने के रास्ते की बाधा है, इसलिए कई मामलों में उसके स्वर मद्धिम सुनाई पड़े हैं। गठबंधन में भाजपा के लिए हमेशा से अपने साथी दलों के साथ संतुलन बनाने की चुनौती है, जिसका असर उसके प्रस्तावों एवं नेताओं के भाषणों में साफ दिखाई देता रहा है। नागपुर भी इससे अछूता नहीं है। इसे गठबंधन की मजबूरी कह सकते हैं या फिर सत्ता पाने के लिए समझौता। सब देखने वाले के नजरिए पर है। इस मायने में भाजपा अकेली नहीं है। ये बातें इस समय ज्यादातर दलों पर लागू हो रही हैं। भाजपा ने शायद इसे संतुलित करने के लिए गांधी का नाम सामने लाया है। गांधी एक ऐसा नाम है, जिस पर अंबेडकरवादियों सहित दलित-राजनीति करने वाले नेताओं को छोड़कर किसी का विरोध नहीं है। यानी यह सर्वाधिक स्वीकृत है और गांधी का वारिस कहने वाली कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने का एक बड़ा अस्त्र भी।