Saturday, January 31, 2009

ओबामा और मुस्लिम जगत


ओबामा और मुस्लिम जगत यद्यपि जार्ज बुश 11 सितंबर, 2001 से पद छोड़ने की तिथि 20 जनवरी, 2009 तक आतंक के खिलाफ युद्धरत रहे, फिर भी वह यह परिभाषित करने में हिचकते रहे कि युद्ध में उनका शत्रु कौन है? आतंकवाद ऐसी रणनीति है जिस पर वे लोग चल रहे हैं जिन्होंने अन्य सभी सभ्यताओं के खिलाफ युद्ध की उद्घोषणा कर रखी है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने शपथ ग्रहण संबोधन में ही शत्रुओं की पहचान करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। ये तत्व इस्लाम के कट्टर स्वरूप मेंहैं। उन्होंने इन तत्वों को यह बता दिया कि वे इतिहास के गलत पाले में खड़े हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अमेरिका उन्हें नहीं छोड़ेगा और परास्त करके ही दम लेगा। उन्होंने मुस्लिम समुदाय को आश्वस्त भी किया कि उनके साथ अमेरिका के संबंध परस्पर मान और पारस्परिक हितों के आधार पर कायम होंगे। इस बेबाक घोषणा के पश्चात ओबामा ने 26 जनवरी को दुबई के अल-अरबिया टीवी को इंटरव्यू में कहा, मेरे खुद के परिवार में मुस्लिम सदस्य हैं। मैं मुस्लिम देशों में रहा हूं..मेरा काम मुस्लिम विश्व को यह बताना है कि अमेरिका उनका शत्रु नहीं है। उन्होंने कहा कि वह अपने कार्यकाल के शुरुआती सौ दिनों के भीतर ही किसी मुस्लिम देश की राजधानी से मुस्लिम समुदाय को संबोधित करेंगे। उन्होंने अल कायदा के नेताओं-ओसामा बिन लादेन और अल जवाहिरी की विचारधारा को दीवालिया बताया। ओबामा यह वायदा भी करते हैं कि समाधान निकालने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने की अपनी वचनबद्धताओं को पूरा करेंगे। मुस्लिम समुदाय की बात सुनेंगे और अपनी बात उनके सामने रखेंगे। अपने कुछ पूर्ववर्तियों के विपरीत वह अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही फलस्तीन समस्या का हल निकालने का इरादा रखते हैं। इसलिए उन्होंने अपने विशेष दूत जार्ज मिशेल को इस अभियान पर लगा दिया है। उन्होंने ईरान के साथ वार्ता की पेशकश भी की, बशर्ते पहले वह जड़ता छोड़े। ओबामा ने कहा है, दुनियाभर में ऐसे नेताओं जो झगड़े का बीज बोना चाहते हैं या फिर अपनी तमाम परेशानियों का ठीकरा पश्चिम के सिर फोड़ना चाहते हैं, को यह जानना चाहिए कि जनता आपका आकलन आपके द्वारा किए जाने वाले निर्माण से करेगी, न कि विनाश से। ओबामा यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उग्रवादी संगठनों के हिंसा फैलाने के कारण वह पूरे पंथ को ही हिंसा का आरोपी नहीं ठहरा सकते। इसके कुछ नेता और संगठन ही जिम्मेदार हैं। उन्होंने यह उल्लेख करना भी जरूरी समझा कि अमेरिका कभी साम्राज्यवादी नहीं रहा, किंतु इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले साठ वर्षो में शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने इस्लामिक विश्व और खासतौर से मुस्लिम देशों के शासकों को नास्तिक साम्यवाद के खिलाफ इस्तेमाल किया। अपनी आबादी के बीच लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों का उभार रोकने के लिए मुस्लिम शासक तेजी से अमेरिका की तरफ झुक गए। सस्ते तेल के रूप में अमेरिका ने भी इस स्थिति का फायदा उठाया। इस्लामिक राष्ट्रों के शासकों के लिए यह सुविधाजनक था कि तमाम तरह के परिवर्तन के विरोध के लिए पंथ का इस्तेमाल करें। अन्य किसी भी पंथ की तुलना में इस्लामिक धर्मगुरुओं का वर्ग अतीत से विरासत में मिली परंपराओं पर अधिक भरोसा करता है। इस रूप में अमेरिकी और मुस्लिम जनता के बजाय शासकों के बीच संबंध पारस्परिक हितों पर ही टिके थे। ये पारस्परिक मूल्यों पर आधारित नहीं थे। दोनों पक्ष बड़ी धूर्तता से एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे। ओबामा इसे बदलने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें सत्ता भी परिवर्तन की जरूरत पर बल देने पर ही मिली है। ऊर्जा के नए स्त्रोतों के विकास के संदर्भ में संकेत मिलता है कि ओबामा तेल उत्पादक इस्लामिक देशों पर निर्भरता कम करने का प्रयास करेंगे। ओबामा इस्लामिक विश्व को संबोधित करते हुए कहते हैं कि उनके मुस्लिम रिश्तेदार हैं, वह ऐसे देश के राष्ट्रपति हैं जिसमें मुस्लिम आबादी है। वह बदलाव के ऐसे योद्धा हैं जो अमेरिका और विश्व के अन्य भागों में आम आदमी की दशा को सुधारना चाहता है, जो जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है और तेल पर निर्भरता कम करना चाहता है। इस प्रकार वह शीत युद्ध काल सरीखे रूढ़ीवादी अमेरिकी नजर नहीं आते। बुश की तरह उनका जोर लोकतंत्र पर नहीं है। वह पूछ रहे हैं कि इस्लामिक देशों की नीतियां उनकी आने वाली पीढि़यों को एक बेहतर भविष्य देंगी या नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह इजरायल को अमेरिका के सहयोगी के रूप में मानने को वचनबद्ध हैं। उनके विचार में इजरायल को अपना अस्तित्व बचाने और राकेट के हमलों से खुद की रक्षा करने का अधिकार है। दूसरे शब्दों में उनके प्रति ओबामा के मन में कोई सहानुभूति नहीं है जो आतंकवादी तरीकों से अरब-इजरायल समस्या का समाधान निकालना और इजरायल को बर्बाद करना चाहते हैं। वह मुस्लिम समुदाय से परस्पर मान और हितों के आधार पर संबंध विकसित करने की बात करते हुए भी अमेरिकी कार्यप्रणाली और नीतियों पर खेद नहीं जताते। अल कायदा ने खुद को अमेरिका का शत्रु घोषित कर रखा है और ओबामा ने अल कायदा के खात्मे का संकल्प लिया है। इसीलिए अमेरिका और नाटो अफगानिस्तान में टिकेंगे और अल कायदा का शिकार करेंगे। बहुत से लोगों की दलील है कि तालिबान अमेरिका का शत्रु नहीं है, इसलिए उसे तालिबान और अल कायदा के बीच भेद रखते हुए तालिबान से संधि कर लेनी चाहिए। जब तालिबान लड़कियों के स्कूल आग के हवाले कर देता है और अपनी खुद की गढ़ी हुई शरीयत जबरन थोपना चाहता है तो वह आस्था के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा होता है। उग्रवादी पंथ के इस खतरे का सबसे अधिक सामना विश्व के दूसरे सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान को करना पड़ रहा है। अब यह पाकिस्तान पर निर्भर है कि उसे तालिबानी इस्लामिक उग्रवाद से खुद को बचाने के लिए अमेरिकी मदद चाहिए या नहीं? ओबामा के इसी सवाल में पाकिस्तान फंस गया है।

कांग्रेस का चुनावी दाव

कांग्रेस का चुनावी दांव केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने अगले आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठजोड़ करने के स्थान पर अकेले मैदान में उतरने का जो निर्णय लिया वह उसका एक राजनीतिक दांव हो सकता है, लेकिन यदि वह यह सोच रही है कि उसे अपने दम पर सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा तो उसे निराश होना पड़ सकता है। कांग्रेस का यह निर्णय यह भी बताता है कि अधिकांश क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस भी गठबंधन की राजनीति को अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहती है। 2004 के पिछले आम चुनाव में भी कांग्रेस छिटपुट राज्यों में गठजोड़ को छोड़कर अपने बलबूते मैदान में उतरी थी, पर तब भी उसने यह उम्मीद शायद ही की हो कि उसे सत्ता में दावेदारी करने लायक सीटें मिल सकेंगी। चुनाव परिणाम सामने आने के बाद कांग्रेस ने भाजपा से अधिक सीटें जरूर हासिल कीं, लेकिन बहुमत से वह दूर ही रही। तब उसने कथित पंथनिरपेक्ष दलों को अपने साथ लाकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का निर्माण किया और पांच साल तक सत्ता में रहे इस समूह का नेतृत्व किया। ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं को देखते हुए अपनी चुनावी रणनीति को नए सिरे से निर्धारित कर रही है। वास्तव में कांग्रेस को आम चुनाव के संदर्भ में दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। एक तो संप्रग के कुछ घटक दल आम चुनाव के बाद सरकार गठन के लिए अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं-विशेषकर प्रधानमंत्री चयन के मामले में और दूसरे, स्वयं कांग्रेस नेतृत्व के संदर्भ में यह तय करने में कठिनाई का अनुभव कर रही है कि किसे आगे कर आम चुनाव में उतरा जाए? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अस्वस्थता के कारण कांग्रेस की यह परेशानी बढ़ी ही है। यह संभव है कि स्वास्थ्य कारणों से मनमोहन सिंह अगली सरकार में अपनी दावेदारी न पेश कर सकें। संप्रग के घटक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को भले ही उनकी महत्वाकांक्षा माना जाए, लेकिन गठबंधन की राजनीति में जिस तरह सिद्धांतों और आदर्शों को कोई भी राजनीतिक दल महत्व देने के लिए तैयार नहीं उससे कांग्रेस का शरद पवार की ऐसी किसी मुहिम से असहज होना स्वाभाविक है। वैसे तो कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि वह कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी तालमेल कर सकती है, लेकिन उसने जिस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठबंधन न करने का फैसला किया उससे उन क्षेत्रीय दलों के मंसूबे अधूरे रह सकते हैं जो अपनी उपस्थिति दूसरे राज्यों में दर्ज कराना चाहते हैं। अनेक ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो किसी राज्य विशेष में तो अपना व्यापक जनाधार रखते हैं, लेकिन उससे बाहर उनकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं। संप्रग में शामिल या उसके साथ नजदीकी रखने वाले ऐसे क्षेत्रीय दलों को निश्चित ही कांग्रेस की यह घोषणा रास नहीं आने वाली कि वह चुनाव के पूर्व कोई राष्ट्रीय गठजोड़ बनाने के लिए तैयार नहीं। इस संदर्भ में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का जिक्र किया जा सकता है, जो अपने जनाधार वाले राज्यों-उत्तर प्रदेश और बिहार के बाहर कोई विशेष सफलता नहीं हासिल कर पा रहे हैं। सिर्फ यही दोनों दल ही नहीं, बल्कि लगभग सभी क्षेत्रीय दल अपने को राष्ट्रीय दल के रूप में पेश करने के लिए कई राज्यों में प्रत्याशी उतारते हैं, लेकिन उन्हें मनमाफिक सफलता नहीं मिलती। अभी यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं कि क्या कांग्रेस उसी दौर में फिर से लौट रही है जब वह किसी के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार नहींथी? आखिर यह एक सच्चाई है कि कांग्रेस एक लंबे अर्से तक गठबंधन की राजनीति के यथार्थ को स्वीकार नहीं कर सकी। यह राष्ट्रीय स्तर पर उसकी शक्ति सिमटते जाने का ही परिणाम है कि उसने गठबंधन की राजनीति को न केवल गले लगाया, बल्कि अनेक क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार भी गठित की। कांग्रेस भले ही यह महसूस करे कि चुनाव में अकेले उतरने का उसका निर्णय क्षेत्रीय दलों को यह नसीहत है कि वे देश पर राज करने का सपना न देखें, लेकिन उसे इस फैसले की कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस ने यदि यह निर्णय अपनी मजबूती वाले राज्यों में सीटों के बंटवारे से बचने के लिए किया है तो उसे यह भी देखना होगा कि उन राज्यों में उसे अपेक्षित कामयाबी कैसे मिलेगी जहां उसकी स्थिति कमजोर है? चुनाव पूर्व गठबंधन से दूर रहने के कांग्रेस के दृष्टिकोण से संप्रग के घटक दलों का इसलिए भी बेचैन होना स्वाभाविक है, क्योंकि गठबंधन का कोई साझा घोषणा पत्र न होने के कारण कांग्रेस मौजूदा सरकार के सभी बेहतर कार्यों का श्रेय स्वयं लेने की कोशिश कर सकती है। आम जनता के लिए यह निर्णय करना कठिन होगा कि जो अच्छे कार्य हुए हैं उनके पीछे कांग्रेस का योगदान है या संप्रग का? वैसे तो राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के अपने भविष्य के लिए यह उचित हो सकता है कि वह अकेले चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन इससे गठबंधन राजनीति के मौजूदा दौर में उन दलों को बढ़ावा ही मिलेगा जो चुनाव बाद सत्ता पाने के लिए गठजोड़ करने की फिराक में रहते हैं। यदि कांग्रेस इस बार भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो वह उन्हीं दलों के साथ गठबंधन की अपेक्षा करेगी जिनके साथ वह चुनाव पूर्व गठबंधन करना उचित नहीं समझ रही है। चुनाव बाद गठबंधन की आड़ में जनादेश का जिस प्रकार निरादर किया जाता है उसमें यह संभव है कि वे क्षेत्रीय दल भी साझा सरकार गठित करने के लिए कांग्रेस को समर्थन दें जो चुनावों में उसके खिलाफ जीत हासिल कर आए हों। यह कुछ और नहीं, मतदाताओं के साथ खिलवाड़ ही है कि राजनीतिक दल उनसे जिस दल की नीतियों और कार्यों के खिलाफ समर्थन मांगते हैं, परिणाम आने के बाद उसी के साथ सरकार बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। विडंबना यह है कि गठबंधन की राजनीति में इस प्रकार की धोखाधड़ी से कोई भी राजनीतिक दल दूर नहीं। अकेले चुनाव में उतरने की कांग्रेस की घोषणा के प्रति संप्रग के घटक दलों की प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो, लेकिन इसमें अधिक संदेह नहीं कि चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इस संदर्भ में वामपंथी दलों के रुख पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा, जिन्होंने लगभग साढ़े चार साल तक संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दिया। इसके अतिरिक्त अन्नाद्रमुक और तेलगुदेशम पार्टी जैसी कुछ अन्य क्षेत्रीय शक्तियां भी हैं, जिन्होंने संप्रग अथवा राजग में किसी के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित नहीं किया है। जैसी कि वर्तमान राजनीतिक स्थितियां हैं, कांग्रेस और भाजपा की बात तो दूर, उनके नेतृत्व वाले संप्रग और राजग के लिए भी यह दावा करना कठिन है कि उन्हें सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा। संभवत: यही कारण है कि राजग अपना आकार बढ़ाने की कोशिश में है। गठबंधन की राजनीति में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन यह जरूरी है कि राजनीतिक दलों के बीच तालमेल किन्हीं सिद्धांतों के आधार पर हो। यदि राजनीतिक दल गठबंधन के नाम पर सिद्धांतहीन तालमेल अर्थात अवसरवादिता को बढ़ावा देंगे तो इससे न केवल राजनीति के प्रति आम जनता की अरुचि बढ़ेगी, बल्कि वे आधार भी कमजोर होंगे जिन पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है।

Friday, January 30, 2009

तैयार हो रही है राहुल की राह....................


एक बार फिर राहुल गांधी को पीएम बनाए जाने का मुद्दा गरमाया हुआ है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्
जी ने कहा है कि अब वह दिन दूर नहीं, जब राहुल देश का नेतृत्व संभालेंगे। दिग्विजय सिंह भी ऐसी राय व्यक्त कर चुके हैं। पिछले साल अर्जुन सिंह ने जब यह मुद्दा उठाया था, तो इसका जोरदार तरीके से खंडन कर दिया गया था। खंडन तो इस बार भी किया जा रहा है, मगर उसमें वैसी तत्परता और स्पष्टता है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद समेत दूसरे नेता बात को गोलमोल कर दे रहे हैं। वे इस बात को अब इस तरह कह रहे हैं कि राहुल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, उनमें इसकी पूरी क्षमता है, लेकिन कब बनेंगे यह नहीं कहा जा सकता या इसके बारे में वह खुद निर्णय करेंगे। इसी क्रम में शकील अहमद ने सोनिया गांधी के उस वक्तव्य की याद दिलाई है कि 2009 में भी मनमोहन सिंह ही लालकिले पर झंडा फहराएंगे। दरअसल, कांग्रेस में यह मामला पिछले कुछ समय से बड़े सुनियोजित तरीके से उठाया जा रहा है। कुछ नेता इस पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं फिर उसे समेट लेते हैं, ताकि जनता के मिजाज को भांपा जा सके। कांग्रेस राहुल की स्वीकार्यता का परीक्षण कर रही है और उनके प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में एक माहौल कायम करना चाहती है। अपने इस अजेंडे के तहत वह राहुल को सीधे प्रॉजेक्ट करने से बचना चाहती है। कांग्रेस ही नहीं, उसके सहयोगी दलों में भी इस बात पर सहमति बन गई है कि अगर चुनाव के बाद का समीकरण यूपीए के पक्ष में होता है, तो राहुल का नाम प्रस्तावित कर दिया जाए।दरअसल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि को लेकर कांग्रेस बहुत आश्वस्त नहीं है। उसे लगता है कि मनमोहन सिंह की इमेज एक कमजोर नेता की रही है। पिछले पांच वर्षों के शासनकाल में कुल मिलाकर यही संदेश गया कि उनकी भूमिका महज प्रतीकात्मक है। न्यूक्लिअर डील को छोड़ दें, तो शायद ही कभी ऐसा लगा कि वह किसी मसले पर दृढ़ता के साथ सामने आए हों। पिछले कुछ समय से राजनीतिक गलियारे से छन-छनकर यह खबर आई (या आने दी गई) कि सरकार के कुछ हालिया फैसले राहुल गांधी के प्रभाव में लिए गए। मसलन मुंबई हादसे को लेकर पाकिस्तान के प्रति कड़े रुख का इजहार और जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की ताजपोशी। लेकिन कांग्रेस सीधे-सीधे यह नहीं कह सकती कि वह मनमोहन सिंह के नेतृत्व को खारिज कर रही है। ऐसा करना यूपीए सरकार की उपलब्धियों पर खुद ही पानी फेर देना होगा, फिर वह कौन सा मुंह लेकर जनता के बीच वोट मांगने जाएगी?इसीलिए जो नेता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की बात कर रहे हैं, वे मनमोहन सिंह के कामकाज की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते, लेकिन वे साफ तौर पर यह भी नहीं कहते कि कांग्रेस मनमोहन सिंह को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके चुनाव मैदान में उतरेगी कि नहीं। चुनाव के पहले कांग्रेस नेतृत्व के सवाल को अनसुलझा रखना चाहती है लेकिन राहुल की इमेज चमकाने का अभियान भी चलता रहेगा।राहुल गांधी के मामले में सोनिया गांधी ने बहुत ही फूंक-फूंक कर कदम उठाए हैं। कुछ उसी तरह, जैसे राजीव गांधी के मामले में इंदिरा गांधी ने उठाए थे। पहले कहा गया कि राहुल राजनीति में नहीं आएंगे। फिर धीरे-धीरे वे सियासत में आए और उसके बाद सांसद बने। उसके बाद उन्हें पार्टी संगठन में अहम जिम्मेदारी दी गई। अपने चुनाव क्षेत्र और देश के दूसरे हिस्सों में राहुल लगातार दौरे कर रहे हैं। पार्टी चाहती है कि राहुल समाज से परिचित हों और जनता भी उन्हें जान जाए। शुरू-शुरू में राहुल ने कुछ अपरिपक्वता दिखाई थी। बांग्लादेश और बाबरी मस्जिद के संबंध में उनके दिए बयान से विवाद हुआ, पर अब वह बहुत संभलकर बोल रहे हैं। संसद में भी उनके भाषणों में परिपक्वता दिखने लगी है। सवाल है कि क्या देश की जनता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार है? राहुल के व्यक्तित्व में कोई करिश्मा नहीं है, लेकिन युवा होना उनकी सबसे बड़ी ताकत है। यह ठीक है कि उन्हें अपने पिता की तरह किसी तरह की सहानुभूति लहर का लाभ नहीं मिल रहा है, लेकिन उनके लिए सकारात्मक बात यह है कि विपक्षी दलों के पास कोई युवा नेता नहीं है। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज देश की 70 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है। यह वर्ग अब राजनीति पर निर्णायक असर डालने की स्थिति में आ गया है। आज की यह युवा पीढ़ी स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई है। यह कई पुराने आग्रहों और रूढि़यों से मुक्त है। यह सूचना क्रांति और ग्लोबलाइजेशन के दौर में जवान हुई है, इसलिए उसके सोचने का ढंग अलग है। यह पॉलिटिक्स और लीडरशिप के बारे में पुरानी पीढ़ी से भिन्न राय रखती है। इसे ऐसा नेता चाहिए जो ठोस काम करे, जो डिवेलपमंट सुनिश्चित कर सके ताकि इस पीढ़ी के सपने साकार हों। हाल के विधानसभा चुनावों के परिणाम में इस नजरिए की झलक मिली है। यह पीढ़ी अस्सी पार कर चुके लालकृष्ण आडवाणी की बजाय युवा राहुल गांधी को ज्यादा उम्मीद से देख रही है। राहुल के विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि वह अनुभवहीन हैं। लेकिन आज के दौर में विजन ज्यादा महत्वपूर्ण है, अनुभव नहीं। नई पीढ़ी नया नजरिया चाहती है। रही वंशवाद की बात, तो यह मामला कमजोर पड़ता जा रहा है क्योंकि आज हर पार्टी इसका शिकार हो चुकी है। ऐसे में राहुल गांधी के लिए स्थितियां निश्चय ही अनुकूल होती जा रही हैं, लेकिन यह सवाल तो फिर भी बचता ही है कि क्या कांग्रेस राहुल गांधी को महज एक युवा प्रतीक की तरह इस्तेमाल करेगी या नई आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सत्ता में रहकर या उसके बाहर गंभीरता से प्रयास भी करेगी?

Thursday, January 29, 2009

'38 के उमर CM, तो राहुल PM क्यों नहीं'




कांग्रेस का डर सच साबित हो रहा है। लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने वाले बयानों की तादाद बढ़ने लगी है। इन्हीं आशंकाओं का पूर्वानुमान करके कांग्रेस ने 'सोनिया-राहुल को चापलूसी पसंद नहीं' का कड़ा बयान दिया था। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के हालिया बयान के बाद मीडिया कांग्रेस के नेताओं से सबसे पहला सवाल राहुल को प्रधानमंत्री बनाने के बार में ही पूछ रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने लुधियाना में इस बारे में पत्रकारों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में कहा कि अगर जम्मू-कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण राज्य में 38 साल के उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हो सकते हैं, 40 साल की उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो 38 की आयु में राहुल पीएम क्यों नहीं बन सकते? मनीष ने लोकसभा चुनाव के बाद राहुल के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को बल देते हुए कहा कि अगर कांग्रेस पर्याप्त सीटें जीतकर आती है और यूपीए को बहुमत मिलता है तो राहुल के नाम पर विचार हो सकता है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अगला चुनाव कांग्रेस सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी। कांग्रेस ने शुक्रवार को मनमोहन सिंह की प्रशंसा करते हुए कहा था कि उन्होंने अच्छा काम किया है। दरअसल प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के सवाल पर कांग्रेस का संकट यह है कि वह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते किसी दूसरे नाम को सामने लाकर बेवजह का विवाद पैदा करना नहीं चाहती। बीजेपी प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी के सवाल को लेकर इसी तरह की समस्या से जूझ रही है। कांग्रेस को भी ऐसे ही अखाड़े में घसीटने के लिए बीजेपी बार-बार पूछती है कि वह बताए कि उनका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है? कांग्रेस राहुल को भविष्य का नेता बताते हुए कहती है कि यह राहुल को ही तय करना है कि वह कब नेतृत्व संभालना चाहते हैं। पिछले साल 15 अगस्त को मनमोहन सिंह को भी मीडिया के ऐसे ही मुश्किल सवाल से रूबरू होना पड़ा था। लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर कांग्रेस मुख्यालय आए मनमोहन से पूछा गया कि क्या अगले साल भी वह लाल किले पर झंडा फहराएंगे? मतलब अप्रैल-मई 2009 में लोकसभा चुनाव होने के बाद क्या कांग्रेस उन्हें एक मौका और देगी? सोनिया की मौजूदगी में मनमोहन से पूछे गए इस सवाल का जवाब सोनिया ने दिया था। सोनिया का जवाब था कि 'क्यों नहीं! अवश्य ।' इस संक्षिप्त जवाब को लेकर कई तरह की बातें होती रही हैं। मनमोहन के समर्थक और राहुल के नजदीक नहीं पहुंच पाए नेता इसके जरिए यह बताने की कोशिश करते हैं कि सोनिया ने मनमोहन के पक्ष में स्थिति स्पष्ट कर दी है। मगर दूसरी तरफ राहुल को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनते देखना चाहने वाले कहते हैं कि सोनिया ने समयानुकूल जवाब देकर मनमोहन का मनोबल बढ़ाया था। प्रधानमंत्री का फैसला तो चुनाव के बाद ही होगा।

कैसा होगा अगला पीएम


यह शायद पहली बार है जब भारत में चुनाव से पहले यह सवाल उठा है कि कौन बनेगा प्रधानमंत्री ।


सबसे पहले इस सवाल का जवाब बीजेपी ने दिया था- लाल कृष्ण आडवाणी। बीजेपी ने बाकायदा प्रस्ताव पारित कर यह घोषणा की कि इस बार चुनाव के बाद प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी होंगे। इस घोषणा में दो बातें निहित हैं। एक तो यह कि चुनाव बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए जीतेगा और दूसरी यह कि एनडीए के घटक दल भी यह मानकर चल रहे हैं कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने लायक हैं। जहां तक पहली बात का सवाल है, प्रमुख राजनीतिक दल अपनी जीत का भरोसा दिलाते ही रहते हैं। इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करना जरूरी नहीं समझा गया। लेकिन प्रधानमंत्री के नाम को लेकर देश में अच्छी-खासी बहस चल रही है। सबसे पहले तो बीजेपी के भीतर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। एक सवाल बुजुर्ग नेता भैरोंसिंह शेखावत ने उठाया है। उपराष्ट्रपति रह चुके शेखावत ने न केवल संसद का चुनाव लड़ने की घोषणा की है, बल्कि आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने पर भी एक तरह से ऐतराज जताया।

भाजपा के भीतर यह बहस अभी चल ही रही थी कि देश के दो बडे़ उद्योगपतियों ने 'वाइब्रंट गुजरात' आयोजन में राज्य के विवादग्रस्त मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का योग्यतम उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस घोषणा का आधार गुजरात के विकास को बताया गया। कोई शक नहीं कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात में काफी विकास हुआ है। लेकिन यह इतना भी नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता और मानव अधिकारों के संदर्भ में मोदी की दागदार भूमिका को नजरअंदाज कर दिया जाए। फिर भी देश के कुछ उद्योगपतियों को मोदी भा रहे हैं, तो इसे उनकी व्यक्तिगत पसंद कहा जा सकता है। लेकिन खुद बीजेपी को यह बात पसंद नहीं आई। बीजेपी नेतृत्व ने यह स्पष्ट करना जरूरी समझा कि यदि बीजेपी चुनाव जीतती है तो मोदी नहीं, आडवाणी ही प्रधानमंत्री होंगे। मोदी चाहते तो अनिल अंबानी या मित्तल के बयान के फौरन बाद आडवाणी के पक्ष में बोलकर स्थिति स्पष्ट कर सकते थे, लेकिन वे स्थिति का पूरा लाभ उठाना चाहते थे। देश और दुनिया में यह बात पहुंचाना चाहते थे कि उन्हें भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है। वे परस्पर विरोधी बयानबाजी का जायजा और मजा लेते रहे। तीन दिन की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि आडवाणी ही बीजेपी के अधिकृत भावी प्रधानमंत्री हैं। बीजेपी समेत पूरे संघ परिवार में मोदी की इस तीन दिनी चुप्पी को समझने की कवायद चलती रही। इस बीच एक और शिगूफा सामने आया। एक सर्वेक्षण में 226 वरिष्ठ कॉर्पोरट अधिकारियों से जब देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में राय ली गई, तो उद्योग जगत से जुड़ी इन हस्तियों में से 25 प्रतिशत ने कांग्रेस के मनमोहन सिंह को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने की इच्छा जताई। जबकि 23 प्रतिशत आडवाणी के पक्ष में दिखे। मोदी को उद्योग जगत के 12 प्रतिशत शीर्ष अधिकारी ही प्रधानमंत्री पद के लायक समझ रहे हैं। राहुल गांधी को इस सर्वेक्षण में 14 प्रतिशत वोट मिले, और अनिल अंबानी व मित्तल की पहली पसंद नरेंद्र मोदी चौथे नंबर पर पाए गए। तो सवाल यह है कि आखिर कौन बनेगा प्रधानमंत्री? जिस लोकतांत्रिक प्रणाली में हम विश्वास करते हैं, उसके अनुसार इसका उत्तर आज नहीं दिया जाना चाहिए। हमारी संसदीय प्रणाली में व्यवस्था यह है कि चुने हुए सांसद प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं। हमारी दलीय व्यवस्था में बहुमत वाला दल या दलों का कोई समूह अपने भीतर किसी नेता को चुनता है, तो प्रधानमंत्री बनता है। चूंकि हमारे देश में एक लंबे तक कांग्रेस का शासन रहा है और कांग्रेस पार्टी में पहले जवाहरलाल नेहरू का और फिर नेहरू परिवार का वर्चस्व रहा, इसलिए यह तय माना जाता रहा कि यदि कांगेस जीती, तो नेहरू या इंदिरा ही प्रधानमंत्री बनेंगे। तब विरोधी दल इस प्रथा को अ-जनतांत्रिक बताया करते थे। वैसे यह कोई नियम नहीं है कि प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा पहले नहीं हो सकती। यह मात्र एक परंपरा है कि मतदाता के अधिकार को सम्मान दिया जाए। वह तय करे कि प्रधानमंत्री कौन होगा। परोक्ष ही सही, होता भी ऐसा ही है। पर अब प्रधानमंत्री पद के दावेदार का नाम सामने रखकर मतदाता से साफ-साफ पूछा जा रहा है। राहुल गांधी का नाम पहले भी आया था। तब खुद सोनिया गांधी ने कहा था कि राहुल को और अनुभवी होने की जरूरत है। बावजूद इसके, अर्जुन सिंह जैसे अनुभवी नेता ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल का नाम उछाला। तब इसे चापलूसी कहा गया था। अब प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी ने इस आशय की बात कही है। इस बार इसे किसी ने चापलूसी नहीं कहा। तो क्या कांग्रेस जीती तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे? इस प्रश्न के उत्तर में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का उदाहरण सामने रखकर युवा व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही जा रही है। उधर, तीसरे विकल्प के दावेदार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को अपेक्षाकृत युवा होने के साथ-साथ दलित बताकर प्रधानमंत्री पद का दावेदार सिद्ध करने में लगे हैं। इस सबके बावजूद 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' सवाल का जवाब, तो चुनावों के बाद ही सामने आएगा। आज तो हम सिर्फ इस सवाल का जवाब खोज सकते हैं कि प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए? संक्षेप में इसका उत्तर यह है कि जो कोई भी हमारा प्रधानमंत्री बने, हम उससे अपेक्षा करते हैं कि वह हमारे संविधान में वर्णित मूल्यों, आदर्शों एवं प्रावधानों के अनुरूप कार्य करेगा। वही व्यक्ति हमारा प्रधानमंत्री बनना चाहिए, जो बहुलतावादी भारत को समझता हो, जो धर्म, जाति, वर्ग या क्षेत्रीयता की भावनाओं से ऊपर उठकर भारत राष्ट्र राज्य की आवश्यकताओं को पूरा कर सके और जिसका आचरण भारतीय अस्मिता और भारतीय गौरव के अनुरूप हो। हमारी त्रासदी यह है कि हमारे लिए यह नायक विहीन समय है। खुद को नायक बताकर पेश करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन नायकत्व की मर्यादाओं को समझने स्वीकारने वाले ढूंढे से भी नहीं मिल रहे। लेकिन ऐसे नायक किसी भी प्रगतिशील और जीवंत समाज की आवश्यकता होते हैं। हमें ऐसा नायक खोजना होगा।

Wednesday, January 28, 2009

हमारी आवाज

कुछ महीने पहले कोसी नदी का कहर झेल रही बिहार के लोग अभी भी इस सदमे से उबर नहीं पाए है। आज भी वहाँ ऐसे लोग है, जिनका रहने का कोई ठिकाना नहीं है, आज भी वे लोग किसी स्टेशन के प्लेटफार्म पर अपना गुजारा कर रहे हैं। इस तबाही का एक हिस्सेदार है, रामबदन यादव जो कुछ समय पहले अपने परिवार के साथ अच्छी जिंदगी गुजार रहा था, लेकिन कोसी के कहर ने उसके परिवार को अलग कर दिया। उसकी बीवी और बच्चे उससे अलग हो गए। आज वह दाने-दाने के लिए तरस रहा है, उसके खेतों पर जमींनदारो का कब्जा है। ना उसकी बात कानून सुनता है ना सरकार। कितने ऐसे बच्चे हैं जो कहीं काम कर अपना गुजारा कर रहे है, महिलाओं के साथ लोग उनका यौन उत्पीड़न कर रहें हैं। मदद के नाम पर कभी सरकारी आँफिसर तो कभी जमींदार। भारत सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार करोड़ की मदद के बावजूद आज भी रामबदन जैसे लोग विकास के लिए जूझ रहें है। बात सीधी है... इसके जिम्मेदार कहीं न कहीं बिहार सरकार है... क्या हम लोगों को ऐसे नेताओं और आँफिसरों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए

भारत अब बदले अपना इतिहास

केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल के इस्तीफे लगभग निरर्थक हैं। इन इस्तीफों से सरकार या सत्तारूढ़ दलों के प्रति जनता में जरा भी सहानुभूति पैदा नहीं हुई। मुंबई में हुई आतंकवादी घटना ने सरकारों और नेताओं पर भरोसे का ग्राफ इतना नीचे गिरा दिया है कि केंद्र और महाराष्ट्र की सरकार भी इस्तीफा दे देतीं, तो लोगों का गुस्सा कम नहीं होता। यह भी सच है कि पिछले आठ-दस साल में केंद्र में जितनी भी सरकारें आईं, उन सबका रवैया आतंकवाद के प्रति एक-जैसा ही रहा है। ढुलमुल, घिसापिटा और केवल तात्कालिक! उन्होंने आतंकवाद को अलग-अलग घटनाओं की तरह देखा है। एक सिलसिले की तरह नहीं। प्राय: जैसे आकस्मिक दुर्घटनाओं का मुकाबला किया जाता है, वैसा ही हमारी सरकारें करती रही हैं। उन्होंने आज तक यह समझा ही नहीं कि आतंकवाद भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध है। युद्ध के दौरान जैसी मुस्तैदी और बहादुरी की जरूरत होती है, क्या वह हम में है? हमारी सरकार में है? हमारी फौज और पुलिस में है? गुप्तचर सेवा में है? नहीं है। इसीलिए हर आतंकवादी हादसे के दो-चार दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। लोग यह भी भूल जाते हैं कि कौन-सी घटना कहां घटी थी। आतंकवाद केवल उन्हीं के लिए भयंकर स्मृतियां छोड़ जाता है, जिनके आत्मीय लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। ऐसे समय में हम राष्ट्र की तरह नहीं, व्यक्ति और परिवार की तरह सोचते हैं। हम भारत की तरह नहीं सोचते। इसीलिए हम युद्ध को दुर्घटना की तरह देखते हैं। यह भारत-भाव का भंग होना है। मुंबई ने इस बार इस भारत-भाव को जगाया है। तीन-चार दिन और रात पूरा भारत यूं महसूस कर रहा था, जैसे उसके सीने को छलनी किया जा रहा है। ऐसा तीव्र भावावेग पिछले पांच युद्धों के दौरान भी नहीं देखा गया और संसद, अक्षरधाम और कंधार-कांड के समय भी नहीं देखा गया। भावावेग की इस तीव्र वेला में क्या भारत अपनी कमर कस सकता है और क्या वह आतंकवाद को जड़ से उखाड़ सकता है? यह कहना गलत है कि भारत वह नहीं कर सकता, जो अमेरिका और ब्रिटेन ने कर दिखाया है। बेशक, इन देशों में आतंकवाद ने दोबारा सिर नहीं उठाया, लेकिन हम यह न भूलें कि ये दोनों देश बड़े खुशकिस्मत हैं कि पाकिस्तान इनका पड़ोसी नहीं है। यदि पाकिस्तान जैसा कोई अराजक देश इनका पड़ोसी होता तो इनकी हालत शायद भारत से कहीं बदतर होती। जाहिर है, भारत अपना भूगोल नहीं बदल सकता, लेकिन अब मौका है कि वह अपना इतिहास बदले। पर क्या भारत की जनता अपना इतिहास बदलने की कीमत चुकाने को तैयार है? यदि है तो वह मांग करे कि भारत के प्रत्येक नौजवान के लिए कम से कम एक साल का विधिवत सैन्य-प्रशिक्षण अनिवार्य हो। देश के प्रत्येक नागरिक को भी अल्पकालिक प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए। यदि ताज और ओबेरॉय होटलों में घिरे लोगों में फौजी दक्षता होती तो क्या वे थोक में मारे जाते? उनमें से एक आदमी भी झपटकर आतंकवादी की बंदूक छीन लेता, तो उन सब आतंकवादियों के हौसले पस्त हो जाते। वहां मौजूद 500 लोगों में से एक भी जवान क्यों नहीं कूदा? इसलिए नहीं कि वे बहादुर नहीं थे। इसलिए कि उन्हें कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं मिला था। वे बरसती गोलियों के आगे हक्के-बक्के रह गए थे। देश की रक्षा का भार फौजियों पर छोड़कर हम निश्चिंत हो जाते हैं। राष्ट्रीय लापरवाही का यह सिलसिला भारत में लंबे समय से चला आ रहा है। अब उसे तोड़ने का वक्त आ गया है। अपने भुजदंडों को अब हमें मुक्त करना ही होगा, क्योंकि हम लोग अब एक अनवरत युद्ध के भाग बन गए हैं। लगातार चलने वाले इस युद्ध में लगातार सतर्कता परम आवश्यक है। ईरान, इस्राइल, वियतनाम, क्यूबा और अफगानिस्तान जैसे देशों में सैन्य-प्रशिक्षण इसलिए अनिवार्य रहा है कि वे किसी भी भावी आक्रमण के प्रति सदा सतर्क रहना चाहते हैं। उधर, आतंकवादी पूरी तरह एकजुट होते हैं। आतंकवादियों को विदेशी फौज, पुलिस, गुप्तचर सेवा, दलालों और विदेशी नेताओं का समर्थन एक साथ मिलता है। जबकि आतंकवादियों का मुकाबला करने वाले हमारे लोग केंद्र और राज्य, फौज और पुलिस, रॉ, आईबी और पता नहीं किन-किन खांचों में बंटे होते हैं। इन सब तत्वों को एक सूत्र में पिरोकर अब संघीय ढांचा खड़ा करने का संकल्प साफ दिखाई दे रहा है, लेकिन वह काफी नहीं है। जब तक हमलों का सुराग पहले से न मिले, ऐसा संघीय कमान क्या कर पाएगा? क्या यह संभव है कि सवा अरब लोगों पर गुप्तचर सेवा के 20-25 हजार लोग पूरी तरह नज़र रख पाएं? यह तभी संभव है कि जब प्रत्येक भारतीय को सतर्क किया जाए। प्रत्येक भारतीय पूर्व-सूचना का स्रोत बनने की कोशिश करे। यह कैसे होगा? इसके लिए जरूरी यह है कि सूचना नहीं देने वालों पर सख्ती बरती जाए।

दिल्ली मेरे लिए घर की तरह है। यहीं मेरा बचपन बीता और मैंने शिक्षा पाई। जब देश आज
ाद हुआ, तब मैं ग्यारह साल की थी। मुझे याद है, उसी समय से पूरे देश से लोग राजधानी आने लगे थे। यह वाकई एक अहम बदलाव था। पहले तो बाटा और डीसीएम जैसी कंपनियां ही यहां हुआ करतीं थीं, लेकिन देखते-देखते माहौल एकदम बदल गया। दिल्ली में पंजाबी, मलयाली, बंगाली और देश के दूसरे हिस्सों से आए लोगों का एक मिला-जुला समाज विकसित हुआ। दिल्ली में आ रही तब्दीलियों पर मैंने नज़र रखी। मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि जब तक लोगों की अपेक्षाओं को, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक वैविध्य को नहीं समझा जाएगा, तब तक दिल्ली रूपी इस 'मिनी इंडिया' से जुड़ा नहीं जा सकता। आज दिल्ली की 75 फीसदी आबादी युवाओं की है। वे जाति और समुदाय को महत्व नहीं देते, उनका सरोकार बस डिवेलपमेंट से है। पहले मुझे दिल्ली की सियासत उतनी नहीं समझ में आती थी, हालांकि यूपी की राजनीति की जानकारी थी, क्योंकि मेरी ससुराल वहीं है और मेरे पति का परिवार वहां की राजनीति में सक्रिय रहा है। वहां रहते हुए मैंने महसूस किया कि उस राज्य की राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण तत्व है। लेकिन दिल्ली आने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यहां के लोग जाति, समुदाय या धर्म की बजाय सरकार के कामकाज को ज्यादा महत्व देते हैं। आखिर कोई बच्चा सरकार से क्या उम्मीद करता है? यही न कि उसे अच्छा स्कूल मिले, बेहतर सड़क मिले, उज्वल भविष्य मिले? या वह यह आशा करता है कि उसे जाति या धर्म का पाठ पढ़ाया जाए? हमारी सरकार ने इस तथ्य को बखूबी समझा है, इसीलिए हम दूसरी बार एंटी इन्कम्बैंसी को मात दे सके। हम उनके साथ मिलकर चलना चाहते हैं। हमारे 'भागीदारी' अभियान का यही मकसद है। इसके जरिए हमने जनता को अपने कामकाज के बारे में बताया। हमने दिल्लीवासियों से साफ तौर पर कहा कि हमारे पास जादू की कोई छड़ी नहीं है, फिर भी हम प्रयास कर रहे हैं। इस क्रम में हमें कई तरह की मुश्किलें भी आईं, लेकिन हम लोगों से कहते रहे कि वे अपनी बातें खुलकर सामने रखें। इसके लिए हमने एक फोरम तैयार किया। सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) को संस्थागत रूप देने वाले अग्रणी राज्यों में दिल्ली एक है। 'भागीदारी' की कार्यशालाओं में हमने लोगों को पुस्तिकाएं बांटीं जिससे वे सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी पा सकें। मुझे अपने काम और इमिज के कारण तीसरी बार जीत मिली है, जाति के कारण नहीं। क्या दूसरे राज्य हमारे अनुभव से कोई सबक लेंगे? अगर राजनीति में जाति का वर्चस्व समाप्त करना है तो राजनीतिक दलों और सरकार को जनता से संवाद करने की योग्यता विकसित करनी होगी। मैंने जनता से संवाद करते हुए अलग-अलग तबके की भाषा, उनके मिजाज, तौर-तरीके और समस्याओं का ध्यान जरूर रखा। एक बूढ़ी विधवा या बेरोजगार युवक से बातचीत उसी तरह नहीं की, जिस तरह एक लेखक या बुद्धिजीवी से की। इसी तरह जोरबाग के एक व्यक्ति या एक अनधिकृत कॉलोनी के निवासी से संवाद का तरीका अलग रहा। मैंने चीफ मिनिस्टर रिलीफ फंड का सार्थक इस्तेमाल करने की कोशिश की। मैं रोज लोगों के साथ बैठक करती हूं जिनमें मुझे कभी फूलों का गुच्छा मिलता है तो कभी जनता की फटकार भी। मैंने दिल्ली में हरियाली के प्रसार के लिए प्रयास किया और उसमें सफलता मिली। इसी तरह पावर सेक्टर की समस्याएं हमने दूर कीं। बिजली चोरी रोकने में हमें सफलता मिली। लोगों को इलेक्ट्रॉनिक मीटर से शिकायतें थीं। मैंने इस मामले में भी लोगों से संवाद करके रास्ता निकाला। मैंने चुनाव सभाओं में मुंबई की घटना का कभी जिक्र नहीं किया। किसी ने मुझसे इसके बारे में कुछ पूछा भी नहीं। मैं समझ गई कि यह मुद्दा उनकी ज़िंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं कर रहा है। उनके लिए उनके बच्चों का अच्छे स्कूलों में दाखिला ज्यादा मायने रखता है, उन्हें अच्छी सड़कें और फ्लाईओवर चाहिए, उन्हें नियमित पानी और बिजली चाहिए। विपक्ष ने आतंकवाद के अलावा महंगाई का मामला उठाया, लेकिन यह चल नहीं पाया। मैंने कहा कि यह दरअसल एक ग्लोबल मसला है, जिससे दिल्ली का बच पाना कठिन है। मतदाताओं ने मेरी यह बात समझी और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मुझे वोट दिया।

लोकतंत्र की दहलीज पर खङा एक देश.............

बांग्लादेश की राजधानी ढाका से एक बांग्ला अखबार निकलता है -डेली इंकलाब। उसने अपने संपादकीय म
ें लिखा है-कुहासे में लिपटे हुए रेलवे स्टेशन पर आठ करोड़ यात्री पिछले सात सालों से एक ट्रेन के इंतजार में खड़े हैं। उनके हाथों में निर्वाचन 2008 का टिकट है और वे इंतजार कर रहे हैं गणतंत्र एक्सप्रेस का। न जाने यह ट्रेन कब आएगी...। यह कोई कल्पना नहीं है। यह इजहार है एक देश के मन को व्यथित कर रहे एक सपने का, जो पिछले दो साल से इमर्जंसी के साये में जी रहा था और मन में हजारों सपने और उम्मीदें संजोए हुए है। जी हां, उस देश का नाम है बांग्लादेश, आमार सोनार बांग्ला। सेना के प्रभुत्व वाली अंतरिम सरकार की अगुआई में बांग्लादेश में कई बार की हां-ना के बाद आखिरकार 29 दिसंबर को आम चुनाव होने जा रहे हैं। इस दिन देश के तकरीबन आठ करोड़ वोटर जातीय संसद यानी नैशनल असेंबली के 300 सदस्यों को चुनने के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। बांग्लादेश की संसद में कुल 330 सीटें हैं, जिनमें से 300 सीटों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव होते हैं जबकि 30 सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं। इनका चुनाव सत्तारूढ़ दल या गठबंधन करता है। वर्ष 2001 के बाद बांग्लादेश में चुनाव नहीं हो पाए क्योंकि पिछले दो सालों से देश का शासन सेना के साये में चल रहा था और इमर्जंसी लगी हुई थी। बांग्लादेश की दोनों बड़ी पार्टियों की नेता पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया और शेख हसीना वाजेद भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सलाखों के पीछे थीं। चुनाव कराने के लिए हुई सहमति के बाद ही दोनों को रिहा किया जा सका। चुनाव कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई एक अंतरिम सरकार को और मुख्य सलाहकार की जिम्मेदारी सौंपी गई डॉ. फखरुद्दीन अहमद को। मगर इमरजेंसी हटाने को लेकर खींचतान बनी रही और बांग्लादेश नैशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी नेता बेगम खालिदा जिया के चुनाव बहिष्कार की धमकी के बाद ही 16 दिसंबर को इमर्जंसी हटाई गई। बांग्लादेश के वजूद में आने के बाद के पिछले 37 सालों में आठ बार देश में संसद का गठन हो चुका है। आखिरी आम चुनाव 2001 में हुए थे, जब बीएनपी ने बाजी मारी थी। बीएनपी ने 193 सीटें जीती थीं और उसका साथ दिया था 41 फीसदी वोटरों ने। बंगबंधु शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना वाजेद की पार्टी अवामी लीग को बीएनपी से महज एक फीसदी कम वोट मिले थे मगर सीटों की बाजीगरी में वह पीछे छूट गई और उसे केवल 62 सीटों से संतोष करना पड़ा। एरशाद की 'जातीय पार्टी' को 14, जमात-ए-इस्लामी, बांग्लादेश को 17 और छोटे दलों को 15 सीटें मिली थीं। चुनाव के दौरान भी धांधलियों के आरोप लगे थे मगर बाद में हुए खुलासों ने सभी को चौंका कर रख दिया। आंकड़ों से पता चला कि 52 सीटों के 111 मतदान केंद्रों पर कुल वोटरों से दोगुना मतदान हुआ। इसी तरह 138 सीटों पर नब्बे से सौ फीसदी तक मतदान दिखाया गया। आरोप ये भी लगे कि कुछ बैलट बॉक्स मतदान केंद्रों तक पहुंचे ही नहीं और मतदान कर्मचारियों की मिलीभगत से उन्हें मतगणना केंद्र पर ही रखकर मनमाने तरीके से वोटिंग की गई। अब इस बार चुनाव आयोग पर ये दारोमदार है कि वह इन तोहमतों से अपना दामन बचाते हुए इस तरह से लोकतंत्र के इस उत्सव को अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचाए कि लोगों और दुनिया का भरोसा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की उसकी काबिलियत पर कायम हो सके। वैसे तो चुनाव मैदान में हमेशा की ही तरह छोटे बड़े कई दलों की भरमार है मगर मुख्य मुकाबला बीएनपी और अवामी लीग के ही बीच है। खालिदा जिया और शेख हसीना वाजेद के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी लगी हुई है। दोनों ही पार्टियों ने वोटरों में से 90 फीसदी के मुस्लिम होने के कारण इस्लाम और इस्लामी कानूनों के तहत देश का शासन चलाने का वादा किया है। अगर बांग्लादेश के अखबारों और चुनावी विश्लेषकों की मानें तो अवामी लीग का पलड़ा भारी माना जा रहा है। अवामी लीग के चुनाव घोषणापत्र की एक खास बात यह है कि इसमें थोथे वादों की जगह देश को संकट से उबारने और बांग्लादेश की स्वर्ण जयंती 2021 को ध्यान में रखते हुए विजन 2021 के नाम से ठोस आर्थिक कदमों का वादा किया गया है। आम जनता के लिए यह बात बहुत ही उत्साह बढ़ाने वाली है। मगर दोनों ही पार्टियों के घोषणापत्र की एक बड़ी कमी यह है कि मुल्क में आए दिन होने वाली हड़तालों पर रोक लगाने के मसले पर दोनों ने ही चुप्पी साध रखी है। राजनीतिक जीवन पर कुंडली मार कर बैठा भ्रष्टाचार भी बांग्लादेश के लिए एक बहुत बड़ा सिरदर्द है और ये मसला दोनों ही पार्टियों को वोटरों के सामने बगलें झांकने को मजबूर कर सकता है। मगर मतदान के ठीक पहले बीएनपी नेता खालिदा जिया के छोटे बेटे अब्दुर रहमान कोको का बैंक खाता सिंगापुर में सील किए जाने और विजिलेंस जांच के आदेश से उनकी मुश्किलें बढ़ेंगी। कोको के खाते में 12 करोड़ रुपये जमा थे। गौरतलब है कि बांग्लादेश के आर्थिक विकास दर का 3 फीसदी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, इसलिए वोटरों के लिए यह भी एक बड़ा मुद्दा है। देश की धीमी विकास दर और घटता विदेशी व्यापार भी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय होगा। जूट, चाय, कोयला, चमड़ा जैसी पारंपरिक वस्तुओं का व्यापार करने वाले बांग्लादेश की विश्व बाजार में हिस्सेदारी कुशल राजनीतिक और आर्थिक प्रबंधन के अभाव के चलते घट रही है और इस कारण तेजी से बेरोजगारी फैली है। इसलिए नई सरकार को जहां सेना का प्रभुत्व कम कर संसद की गरिमा और संप्रभुता बहाल करने की जिम्मेदारी लेनी होगी, वहीं आर्थिक मोर्चे पर भी देश को मजबूत करना होगा।

भारत संयम बरते या पाक को सिखाए सबक?


लगातार हो रहे आतंकवादी हमलों से देश में आक्रोश बहुत ज्यादा है। चुनाव भी सामने है , जिसमें राजनेताओं को अपनी-अपनी बहादुरी दिखानी है। लिहाजा गंभीर समझे जाने वाले राजनेता और जिम्मेदार अधिकारी भी आपसी बातचीत में पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के हिस्सों और पाकिस्तानी पंजाब में ' सर्जिकल ऑपरेशन ' को जरूरी बताने लगे हैं। लेकिन इस दिशा में कुछ भी करने के पहले यह मान कर चलें कि छोटे से छोटे ऑपरेशन का भी जवाब पाकिस्तान की ओर से आएगा। और यह जवाब न्यूक्लिअर भी हो सकता है। भारत को पाकिस्तान के खिलाफ हथियार उठा कर कुछ भी करना है तो उसे अमेरिका , रूस और चीन की सहमति से ही किया जाना चाहिए। यह सोचना गलत है कि इससे हमें विदेश नीति के स्तर पर पिछलग्गू समझ लिया जाएगा। दरअसल , रणनीतिक बुद्धिमत्ता इसी में है। पाकिस्तान अभी आतंकवाद के मुद्दे पर भीतर , बाहर दोनों ओर से घिरा हुआ है। उसके पारंपरिक संरक्षक कहे जाने वाले दोनों देश अमेरिका और चीन आज पहले की तरह से उसके साथ नहीं हैं। अमेरिका के तेवर तो 9/11 के बाद से ही बदलने लगे थे और भारत के साथ परमाणु समझौते के बाद से पाकिस्तान के प्रति उसके नजरिए में बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। उधर , चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध के भारतीय प्रस्ताव के पक्ष में अपने पूरे इतिहास में पहली बार मतदान किया। इससे उसका पाकिस्तान के प्रति सशंकित होना साफ जाहिर होता है। भीतरी मोर्चे पर बलूचिस्तान , उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत और कबायली इलाके पाकिस्तान सरकार के खिलाफ गृहयुद्ध की स्थिति में हैं। पाकिस्तान के खिलाफ भारत की कोई भी कार्रवाई इस देश को दोबारा एकजुट करने में मददगार साबित हो सकती है। ऐसे में मेरी मान्यता यही है कि पाकिस्तान के खिलाफ संघर्ष को हथियारों की हद तक न पहुंचने दिया जाए , और यह नौबत आए भी तो यह काम अंतरराष्ट्रीय सहमति के दायरे में किया जाए। इस बहस में हिस्सा लेने के लिए यहां क्लिक करें खतरा बढ़ाएगा जंग का माहौल प्रो. आशीष नंदी (चेअरमन , सीएसडीएस) हमले की बात भी दिमाग में आने से पहले हमें सोचना चाहिए कि क्या हम पाकिस्तान में सेना को दोबारा सत्ता में वापस लाना चाहते हैं ? यह सोचना जरूरी इसलिए है क्योंकि भारत की तरफ से लड़ाई या सीमित स्तर की सैनिक कार्रवाई का पहला गोला दगने के साथ ही वहां ठीक यही होना है। भारत के नीति-निर्माता तय करें कि वे ऐसा चाहते हैं या नहीं। पाकिस्तान में इस बार सेना वापस आई तो यह सरकार में उसकी पहले जैसी आवाजाही नहीं होगी। इसके साथ पाकिस्तान में बहुत बड़ी अराजकता भी जुड़ी होगी , जिसमें कोई भी दावे के साथ यह कहने की हालत में नहीं होगा कि ऐटमी हथियार वहां किसके हाथ लगेंगे। अगर ये तालिबानी ताकतों या दूर-दूर से उन्हें समर्थन दे रहे फौजी गुटों के हाथ लग गए तो भारत के खिलाफ ऐटमी हथियारों का इस्तेमाल अवश्यंभावी हो जाएगा। क्या हम भारत की आने वाली पीढ़ियों को अनगिनत मौतों , विकलांगता और रेडियोधर्मिता का उपहार देकर जाना चाहेंगे ? भारत के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हमें पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों को ही अपना समर्थन देना होगा। भले ही ऊपर से फौजी हुकूमत और पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारों में भारत के प्रति रवैये के मामले में ज्यादा फर्क न नजर आए , लेकिन गहराई में जाने पर फर्क साफ दिखाई पड़ता है। हमें अपनी अपेक्षाओं के बारे में सतर्क रहना चाहिए। सरकार बदलने से रातों रात किसी देश की नीतियां नहीं बदल जातीं। नीतियां तभी बदलती हैं जब उस देश का जनमत बदलता है। इसके लिए पाकिस्तान को भी समय मिलना चाहिए। भारत के हमलावर तेवरों का एक असर यह देखने को मिल रहा है कि वे तालिबान भी पाकिस्तानी फौज के साथ एकजुट होकर भारत के खिलाफ जंग में उतरने के बयान देने लगे हैं , जिनकी अपनी राष्ट्रीय सेना के साथ एक लंबे अर्से से भयंकर लड़ाई चल रही है। भारत ने मुंबई हमले के बाद से पाकिस्तान के बरक्स जो भी किया है , उसका अपना एक अलग औचित्य है , लेकिन इस आक्रामक तेवर को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि चीजें पॉइंट ऑफ नो रिटर्न की तरफ बढ़ती चली जाएं। अभी तो भारत के रवैये से उसके इस बिंदु तक पहुंचने जैसी कोई बात नहीं नजर आती , लेकिन अब समय आ गया है कि चीजों को संयत बनाया जाए।

वर्तमान विश्व और गांधी मार्ग की संगति


देश के दो टूक टूटने और इस रूप में आजादी पाने के साथ क्या महात्मा गांधी राजनीतिक विचार धारा से बाहर नहीं हो गए?
हमारी स्वतंत्रता के अब तक के इतिहास से लगता यही है कि न केवल गांधी जी भारत के भाग्य के लिए असंगत पड़ गए हैं , बल्कि आगे मानवता के इतिहास में भी उनके मार्ग के अपनाए जाने की संभावना नहीं दीखती है। निश्चय ही उनका व्यक्तित्व अपूर्व था और उनका भाग इतिहास में विशेष उल्लेखनीय होगा , पर वह इतिहास विगत होगा। आगामी इतिहास उन्हें भुलाए ही रहेगा। किंतु शायद जीवन का तर्क सतह पर नहीं रहता है। राजनीति वर्तमान को लेती है और वर्तमान के साथ बीत भी जाती है। गांधी को महात्मा कहना पड़ा- इसी से सिद्ध है कि वह राजनीतिक से कुछ अतिरिक्त थे। राजनेता सत्ता के द्वारा काम करता है। गांधी सत्ता से बचते रहे। भारत राष्ट्र की चौथाई सदी तक उन्होंने अखंड नेतृत्व किया , पर नेतृत्व में उनका मन था नहीं। कांग्रेस संगठन की सामान्य सदस्यता से भी आग्रहपूर्वक उन्होंने उससे छुट्टी पा ली , जब वह उसके सर्वेसर्वा थे। स्पष्ट है कि जिस ध्येय के लिए गांधी काम कर रहे थे , वह राजनीतिक नहीं था , बल्कि उससे कहीं बुनियादी था। वह इतना गहरा रहा होगा कि सत्ता का पद उसके अनुकूल न ठहरे। वर्तमान का क्षेत्र राजनीति का है और राजनीतिक सत्ता कहीं चुक रहने को बाध्य है। गांधी का स्वप्न और उनका जीवनार्पण यदि उस सतह की परिभाषा में नहीं देखा जा सकता है , तो इतने से ही सिद्ध है कि वह सहज समाप्त नहीं है। वह तत्व ज्ञानी तो थे नहीं कि मरने के बाद जीएं , तो तत्वशास्त्र में जाएं। बस किताबों में उनका उल्लेख हो और मत प्रवर्तक के रूप में उनकी गणना रह जाए। अकूत साहित्य उनका है , पर लिखने के लिए उन्होंने वह नहीं लिखा था। वह अनवरत कर्म के पुरुष थे और जो उन्होंने लिखा और सोचा , वह उस कर्म के अंग के रूप में ही। सत्तापति देश में रहता और काल में खो जाता है। मनीषी ऋषि काल में जीता है और देश में शून्य बनकर रहता है। गांधी न सत्ताधीश थे , न उस अर्थ में मात्र ऋषि या संत ही थे। इसलिए कारण नहीं बचता कि देश या काल किसी आयाम में वह खो जाएं और निरर्थक बन जाएं। अहिंसक युद्ध के योद्धा होते भी वह इतने अधिक प्रेम और अध्यात्म के पुरुष थे कि बरबस उन्हें ' महात्मा ' कहना पड़ा। उनमें अंतिम विरोध मिल जाते हैं और छोर एक व अखंड बन जाते हैं। ऐसे संयुक्त पुरुष का प्रकाश कैसे मुक्त हो सकता है। पर हां समय वह जरूर ले सकता है। कारण वह प्रकाश स्थूल तो है नहीं। कर्म में से उसको नापा-परखा नहीं जा सकता। कर्मनिष्ठ गांधी अपने समय के साथ बीत गया। वही गांधी है जो असंगत बन गया है। उसकी याद के मिटने में जो देर लग रही है , सो इस कारण कि भारत ने कृतज्ञतावश उसे अपना राष्ट्रपिता माना है। इस राजनीतिक कृतज्ञता के पाश से उस नाम को छुट्टी मिलेगी , तब से मानो गांधी के आत्मबीज को सिंचन मिलना आरंभ होगा। प्रभु ईसा की स्वीकृति में से ईसाईयत के अंकुर फूटे , तो अनुमान है कि इसमें सौ बरस लगे। अब न केवल उनका धर्म व्याप्त है , वरन् अपने आरंभ काल में ही ईसाईयत ने रोम साम्राज्य को जड़ से उखाड़ डाला। यह राजनीतिक महाक्रांति उस ईसा में से फलित हुई , जिनको सूली लगते वक्त एक भी रोने वाला न मिल सका था। आज की घनघोर तनावों वाली स्थिति से कोई आश्वस्त नहीं है , किंतु प्रवाह का वेग ऐसा है कि सब उसी में बह कर अपने को शेष के खिलाफ जबर्दस्त बना ले जाना चाहते हैं। सभी राष्ट्रों की राजनीतियां और वित्त-व्यवसाय नीतियां उसी ढर्रे पर चल रही हैं। उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा है और परिणाम में हर राष्ट्रवाद उदीप्त और उत्तप्त बन रहता है। इस दुष्चक्र से निजात तो तभी है , जब हिंसा से डरने वाला और डराने वाला दोनों छूटें। अगर प्रगति और उन्नति की दिशा वही रहती है , जो अब तक चली आई है तो डर से छूटना संभव नहीं है। डर का उपयोग तब रहेगा और लगातार आतंक को गठित किया जाता रहेगा। आवश्यक है कि हमारी रहन-सहन की , उद्योग व्यवसाय की , शासन-प्रशासन की , उत्पादन विभाजन की रीति-नीतियों में परिवर्तन आए और आधार उनका प्रतिस्पर्धा की जगह पारस्परिकता का बने। वेलफेयर या सोशलिस्ट स्टेट के नाम पर नियंत्रित और संचालित राज्य का नमूना बदले और उत्तरोत्तर सामाजिक संस्थाओं को स्वायत्तता प्राप्त हो। व्यक्तियों का , समूहों का , राष्ट्रों का , परस्पर व्यवहार इस ढंग पर ढले कि उसमें से अहिंसा की सुगंधि मिले। परस्पर सहायता में संकीर्ण स्वार्थ न रह जाए , पारमाथिर्क स्वार्थ बन जाए। प्राथमिक आवश्यकताओं का उत्पादन और वितरण इतना सहज हो जाए कि बड़े संगठन को उसके बीच में न पड़ना पड़े। आर्थिक और आंकिक हिसाब मानव नीति से निरपेक्ष न हो। शासक सेवक बनने में अपनी सार्थकता देखें और प्रशासक से सेवक की अधिक प्रतिष्ठा हो। देखा जा सकता है कि इसमें पूरी वर्तमान सभ्यता का एक प्रकार अस्वीकार आ जाता है। निश्चय ही आज जिस राजनीतिक मानस के द्वारा जीवन का संचालन हो रहा है , वह एकांगी और अपर्याप्त सिद्ध हुआ है। पूंजीवाद के उत्तर में सृजित हुआ समाजवाद उतना ही अधूरा दिख रहा है। साम्यवाद का लक्ष्य साम्यवादियों की संघटना ने ही मानो असंभव बना दिया है। जिस साम्यवादी राजसत्ता को व्यापक लोक जीवन में समाए रहना था , वह दलों पर ऐसा निर्भर हो आई है कि लोक विश्वास को खो बैठी है। इन सब कारणों से परिस्थिति संकटमय अनुभव होती है। यदि संकट को कटना और अभीष्ट दिशा में उसे मोड़ लेना है , तो मार्गदर्शन के लिए गांधी के प्रकाश को पाना और जगाना होगा। राज्य की प्रस्तुत धारणाएं मानव को एक नहीं बना रही हैं न दुनिया को निकट लाने में मदद कर पा रही हैं। चुनाव में से ऊपर आया तत्व सर्वश्रेष्ठ सिद्ध नहीं होता। दलीय आधार दिक्कतें पैदा करता है। राज्य के तंत्र पर ध्यान इतना हो आता है कि लोक जीवन के प्रति उसका दायित्व दोयम पड़ जाता है। इन सभी दिशाओं में गांधी से उपयुक्त निर्देश प्राप्त हो सकते हैं।

भारत की गरीबी का जश्न मनाएं!..


पिछले कुछ बरसों से पश्चिमी मीडिया में (खासकर अमेरिका में) भारत की आर्थि
क प्रगति के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है कि यहां के जनमानस में इस मुल्क (भारत) की खास तस्वीर बन गई। जहां कभी शहरों में सड़कों पर गाएं, सपेरे और हाथी घूमा करते थे, ऐसे गरीब देश में हजारों-लाखों आईटी एक्सपर्ट्स का होना किसी चमत्कार से कम नहीं समझा गया। दो महीने पहले जब मुंबई की शानदार इमारतों पर आतंकी हमले की आंखोंदेखी छवियां अमेरिकी लोगों ने टीवी और इंटरनेट पर देखीं तो उनका दिल भारत के प्रति सहानुभूति से भर आया। यह वही देश था, जिसे थोडे़ दिनों पहले प्रेज़िडंट बुश और अमेरिकी कांग्रेस ने न्यूक्लिअर डील का तोहफा दिया था। मुंबई ने अमेरिकी दिलों में एक महत्वपूर्ण जगह बना ली। मुंबई हमले के कुछ ही दिनों बाद झोपड़पट्टी की जिंदगी में गरीबी और बदहाली की नई परिभाषाएं दर्शाती हुई चमक-दमक वाली फिल्म स्लमडॉग मिलिनेअर अमेरिका के कई शहरों में रिलीस हुई। जब इस फिल्म को हॉलिवुड में चार-चार गोल्डन ग्लोब पुरस्कारों से सम्मानित किया गया तो लगा जैसे अमेरिकी दिलों में इंडिया की हर चीज के लिए प्यार उमड़ आया है, उसकी गरीबी और बदहाली के लिए भी। हॉलिवुड स्थिति अंतरराष्ट्रीय फिल्म पत्रकारों का संगठन चुनी हुई फिल्मों और टीवी सीरियलों को 'गोल्डन ग्लोब' से पुरस्कृत करता है। स्लमडॉग मिलिनेअर को हॉलिवुड में मिली अभूतपूर्व सफलता के बाद इसे ऑस्कर में सम्मानित करने का रास्ता खुल गया है। सचमुच संगीतकार ए. आर. रहमान में कामयाबी के उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां कभी पंडित रविशंकर भी नहीं पहुंच सके। इस फिल्म के ब्रिटिश डाइरेक्टर डैनी बॉयल बवर्ले हिल्स और न्यू यॉर्क में अपनी प्रसिद्धि का जश्न मनाने के बाद अब इंडिया में स्लमडॉग... के रिलीस को लेकर उत्साहित नजर आ रहे हैं। आखिर इस फिल्म में ऐसी कौन-सी बात है, जिसने पश्चिमी दर्शकों और समीक्षकों का मन मोह लिया स्लमडॉग... कहानी है गरीबी और अमीरी के भेदभाव की। यह कहानी है गरीबी और आपराधिक दुनिया के बीच संबंधों की। यह कहानी है भाई-भाई के बीच धोखेबाजी की। लेकिन यह कहानी एक अनाथ बच्चे की मेहनत या प्रतिभा की उतनी नहीं है, जितनी कि एक संयोग। जिसके कारण वह कौन बनेगा करोड़पति प्रोग्रैम के सभी सवालों का उत्तर दे पाता है। यह उस जीवट या आत्मविश्वास की कहानी नहीं है, जैसा अमिताभ बच्चन जंजीर, कुली और दीवार जैसी फिल्मों में भारतीय दर्शकों को दिखाते रहे। जूते पॉलिश करनेवाले एक अनाथ के यह कहने पर कि 'मैं जमीन पर फेंके हुए पैसे नहीं उठाता' सिनेमा हॉल में तालियां गूंज उठती थीं। स्लमडॉग... एक निष्ठुर फिल्म है, जिसका निर्देशक गरीब के सपनों का मजाक उड़ाते हुए अनाथ बालक को पाखाने से भरे कुंड (वेल) में डुबकी मारते दिखाता है। फिल्म के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन के स्लम कॉलोनी में हेलिकॉप्टर से उतरने की खबर बस्ती में आंधी की तरह फैल जाती है। लोग पागलों की तरह हेलिकॉप्टर की तरफ दौड़ते हैं। उसी वक्त बालक जमाल को उसके दोस्त एक शौचालय में बंद कर देते हैं। जमाल करे तो क्या करे! वह नीचे पाखाने के गहरे कुंड की तरफ देखता है, नाक दबाकर डुबकी लगा देता है और दूसरी तरफ से बाहर निकलता है, सिर से पांव तक पाखाने (शिट) से लिपटा हुआ। उसी गंदगी में सना वह अमिताभ की तरफ जाता है ऑटोग्राफ मांगने। जरा सोचिए, यह कैसी कल्पना है! बॉलिवुड के पलायनवादी डाइरेक्टर मनमोहन देसाई ने भी ऐसे सीन की कभी कल्पना नहीं की होगी। अपनी चमक-दमक और तेज रफ्तार के कारण स्लमडॉग... दर्शक को कुछ सोचने का मौका नहीं देती और घटनाओं को संजोग की डोर में जल्दी-जल्दी पिरोते हुए आगे बढ़ जाती है, जैसे कि ट्रेन छूटने के पहले आप फास्ट फूड रेस्तरां में खाना झपट रहे हों। अपुर संसार में सत्यजित राय ने, मेघे ढाका तारा में ऋत्विक घटक ने और अंकुर में श्याम बेनेगल ने अपनी कलात्मक और तीखी शैली में गरीबी और सामाजिक अन्याय का गहरा रिश्ता दिखाया था, लेकिन सत्यजीत रॉय को उनकी मृत्यु शैया पर पहुंचने के बाद ही हॉलिवुड ने ऑस्कर के योग्य समझा जबकि घटक, विमल रॉय या बेनेगल को पहचानने से भी इनकार किया। ब्रिटिश राज के दौरान सामान्य भारतीयों का स्वाभिमान दिखानेवाली बॉलिवुड फिल्म लगान भी ऑस्कर के शामियाने में न पहुंच सकी। शीशे की तरह पारदर्शी और हृदयहीन फिल्म स्लमडॉग... हमें यह याद दिलाती है कि भारत में अनाथ बच्चों के लिए एक ही जगह है, जहां से उन्हें अंधा बनाकर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है। ताजमहल के गाइड चोर और फरेबी होते हैं। स्लमडॉग... से हमने यह भी जाना कि वहां पले-बढ़े बच्चे के लिए करोड़पति बनना एक संजोग ही हो सकता है। स्लमडॉग... में जमाल सभी सवालों का जवाब इसलिए जानता था कि उन सवालों का उसकी बीती जिंदगी से सीधा नाता था। लेकिन गरीबी में पलकर भी प्रतिभाशाली बनने के अनेक उदाहरण भारत में मिल जाएंगे, जोकि फिल्मों के विषय बन सकते हैं। भारतीय कलाकार और टेक्नीशियनों को लेकर पश्चिम तर्ज पर मुंबई की स्लम जिंदगी का चित्रण करने वाली फिल्म 'गोल्डन ग्लोब' या 'ऑस्कर' पुरस्कार जीत सकती है और हॉलिवुड भारत की उस पुरानी तस्वीर पर मुहर लगा सकता है कि आर्थिक रूप से प्रगतिशील यह देश असल में हाथी, सपेरे और स्लमडॉग का देश है। आइए, हॉलिवुड के साथ मिलकर हम सभी इस गरीबी के जश्न में शामिल हो जाएं।