Friday, February 20, 2009

भ्रष्टाचार के विरुद्ध

पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम को आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी करार दिए जाने का फैसला तेरह साल बाद आया ह
ै। अगर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राजनेताओं पर कानूनी शिकंजा कसने की यही गति रही तो करप्शन पर पूरी तरह रोक लगाने का सपना शायद ही कभी पूरा हो। सचाई तो यह है कि सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा दोहराते रहते हैं, पर आज तक उन्होंने गंभीरता से इस बात के लिए प्रयास नहीं किया कि करप्शन के मामले में त्वरित कार्रवाई हो और भ्रष्ट लीडर को सजा दिलाई जा सके। उलटे कई सरकारों पर ऐसे मामलों को लटकाने और इसके लिए सरकारी एजंसियों का इस्तेमाल करने के आरोप लगते रहे हैं।

करप्शन का मामला राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का भी हथियार बन गया है। भ्रष्ट नेताओं से किनारा करने की बात तो दूर, ज्यादातर पार्टियां ऐसे लोगों को ससम्मान चुनाव में टिकट और पार्टी संगठन में अहम पद दे रही हैं। सुखराम के मामले को ही देखें तो राजनीतिक दलों के दोमुंहेपन का पता चलता है। वर्ष 1996 में दूरसंचार घोटाले के सामने आने के बाद सुखराम को कांग्रेस से निकाल दिया गया। तब उन्होंने 'हिमाचल विकास कांग्रेस' नामक अलग पार्टी बना ली। सुखराम के मामले पर शोर मचाने वाली और इस पर संसद की कार्यवाही तक ठप कर देने वाली बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में सुखराम की पार्टी से समझौता करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। यह जानते हुए भी कि सुखराम पर कितना गंभीर मामला चल रहा है, कांग्रेस ने 2004 में उन्हें फिर से गले लगा लिया और उनकी पार्टी का विधिवत कांग्रेस में विलय हो गया। कांग्रेस के लिए सुखराम कितने अहम हैं, इसका अंदाजा तब लगा जब राहुल गांधी पिछले विधानसभा चुनाव में उनके बेटे के पक्ष में प्रचार करने हिमाचल प्रदेश पहुंच गए। इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सुखराम को मंडी से टिकट देने पर विचार कर रही थी। कांग्रेस और बीजेपी ने साफ भुला दिया कि सुखराम के घरों पर मारे गए छापे में घर के कोने-कोने से नोटों के बंडल निकले थे और अदालत ने न सही, पर जनता ने उन्हें उसी वक्त दोषी मान लिया था। करप्शन के खिलाफ लड़ाई सिर्फ नारों से नहीं लड़ी जा सकती, इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है जिसका दुर्भाग्य से अधिकतर दलों में अभाव दिखता है। शायद यही वजह है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध बने तमाम नियम-कानून धरे के धरे रह जाते हैं। यह एक गंभीर मसला है जिस पर समाज के सभी वर्गों को विचार करना होगा।

Thursday, February 12, 2009

जूतों और चप्पलों कि राजनीति.................

उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश विधानसभा में जो कुछ हुआ वह नहीं होना चाहिए था। उन्होंने राज्पाल के साथ दुर्व्यवहार किया और उन्हें अभिभाषण पढ़ने से रोककर संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार किया। विपक्षी दलों को राज्य में बिगड़ रही कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार या किसानों की समस्या को उठाने का पूरा हक है, पर उसके लिए यह अवसर नहीं था। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो वे पार्टियां राज्य में कानून और व्यवस्था कायम करना चाहती हैं, लेकिन दूसरी तरफ सदन में खुद संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रही हैं। शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुई और ऐसा लगता है जैसे संक्रमण उड़ीसा और आंध्र प्रदेश तक फैल गया। तीनों के कारण अलग-अलग थे लेकिन हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण एक जैसा था।
आपको जो कुछ कहना है सदन के नियमों के अंतर्गत कह सकते हैं। किंतु धीरे-धीरे नियमों एवं प्रक्रियाओं के पालन की परंपरा खत्म होती जा रही है। यह स्थिति विधानसभाओं से शुरू होकर संसद तक पहुंच गई है। संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों की टिप्पणियां इस बात के प्रमाण हैं कि सदन के भीतर सदस्यों के हंगामों से वे कितनी बार विचलित हुए हैं। हालांकि यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि बातचीत में सभी राजनीतिक दल इस रवैये को अनुचित ठहराते हैं पर सदनों के भीतर उनका यह विचार आचरण में नहीं बदल पाता। क्या पक्ष, क्या विपक्ष- सबकी दशा एक जैसी है। जब ये सरकार में होते हैं तो विपक्ष के ऐसे रवैये की आलोचना करते हैं पर जब ये विपक्ष में आते हैं तो स्वयं उसी आचरण पर उतर जाते हैं।
राजनीतिक विरोध प्रदर्शन तो लोकतंत्र की शोभा है किंतु इसकी जगह विधानसभा नहीं हो सकती। इसके लिए आप सड़कों पर उतरिए और अहिंसक तरीके से अपना धरना-प्रदर्शन करिए। राज्य विधायिकाएं या केन्द्रीय संसद में आप गंभीर विषय बहस के लिए लाइए, अपने प्रश्नों से सरकार को कठघरे में खड़ा करिए, जन समस्याओं से जुड़े मुद्दों पर सदन का ध्यान खींचिए, सरकार को काम करने के लिए मजबूर करिए। उ। प्र. में तो आज से विधानसभा एवं विधान परिषद का सत्र आरंभ होना था। राज्यपाल परंपरानुसार दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करनेवाले थे। यह एक ऐसी परंपरा है जिसका हर हाल में पालन होना चाहिए था। किंतु उप्र में विपक्षी सदस्यों ने राज्यपाल तक को अपना अभिभाषण नहीं देने दिया और उन्हें कुछ मिनटों में ही इसकी औपचारिकता पूरी कर लौटना पड़ा।
जब हमारे माननीय राज्यपाल तक का अभिभाषण नहीं सुन सकते तो फिर वे अपने प्रतिस्पर्धी नेताओं की बात कैसे सुन सकते हैं। उसमें सत्तारूढ़ बसपा तथा भाजपा को छोड़कर सभी दल के विधायक शामिल थे। भाजपा ने हंगामे की जगह बहिष्कार का रास्ता चुना। वास्तव में असहिष्णुता अब राजनीतिक व्यवहार का अंग बन चुकी है। कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि उनके हाथों ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य है। कोई माइक तोड़ने की कोशिश करे, कोई सदन में काले झंडे दिखाए या फिर राज्यपाल की ओर कागज का गोला फेंके तो इन सबसे कैसा परिदृश्य बनता है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है लेकिन वह उस सीमा तक न चली जाए जहां जन प्रतिनिधि होने का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाए। हम तो यही निवेदन करेंगे कि भारी बलिदानों के बाद हमने आजादी हासिल की और हमारे आरंभिक नेताओं ने अपने आचरण से जो परंपरा कायम की, कम से कम उसे ध्वस्त न करें।

Monday, February 9, 2009

यह कौन सी संस्कृति है?


अब मेंगलोर कांड को मीडिया ने उछाला और मीडिया के इस उछाले को पूरे देश ने तमाशबीन की तरह देखा। एक हिंदूवादी सेना के कथित जांबाज बहादुर धर्मरक्षक, सुसंस्कृत सैनिकों ने कुछ निहत्थी- निरीह ‘पापिन, हीन चरित्र’ ‘पब-गमना’ कन्याओं पर आक्रमण करके भारत नहीं तो कम-अज-कम हिंदू और भारतीय संस्कृति को नष्ट होने से बचा लिया। या बचाने का एक ‘साहसिक’ प्रयास तो अवश्य ही किया। क्योंकि यह प्रयास उन अति विशष्टि प्रयासों में से एक था, जिन पर मीडिया अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रहता है, अपना पेट भरने के लिए, इसलिए यह अपनी पूरी विशष्टिता के साथ मीडिया में कूदा और अपने बिगड़ैल भतीजे राज ठाकरे की तर्ज पर एक-दो ऐसे नाम जिनके पास वास्तविक काम के नाम पर सिवाय राम नाम के और कुछ नहीं है उछल कर राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन गये। मेरे उनको यहां स्मरण करने से उनकी नवर्जित राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को क्षति पहुंच सकती है इसलिए मैं उनको स्मरण-श्रद्धांजलि नहीं दे रहा हूं।वैसे भी मीडिया का टीआरपी मंडित चरित्र घटना पर टूटता है, परिघटना पर नहीं। हां, जब घटना पर टूटता है तो उसे परिघटना जैसा लबादा जरूर आ॓ढ़ा देता है। कुछ सिरफिरे या उन्हें जो कुछ कहिए अति हिंदू संस्कृतिवादी एक पब पर हमला कर देते हैं तो एक बड़ी बात हो जाती है, मगर करोड़ों हिंदू किसी पब पर कोई हमला नहीं करते और पबों की बात छोड़ दें, चकलों तक को सहजता से चलने देते हैं, तो यह होना कोई बात नहीं माना जाता। कहीं-कभी दो संप्रदाय आपस में भिड़ बैठते हैं या एक संप्रदाय के कुछ सिरफिरे लोग दूसरे संप्रदाय के लोगों के साथ कोई अतिवादी, आतंकवादी व्यवहार कर बैठते हैं तो बड़ी बात हो जाती है, मगर इन्हीं दो संप्रदायों के करोड़ों लोग सहजता से साथ-साथ रह रहे हैं तो यह कोई बात नहीं है। इतनी सी भी बात नहीं है कि इस सहज पारस्परिक व्यवहार की खूबियां बताकर सिरफिरों के दिमाग में कुछ अच्छी बातें बिधने की बात भी की जा सके। मीडिया एकदम उलट-गुलाटी मारता है। वह सिरफिरों की सिरफिरी हरकतों को करोड़ों शांत दिमागों में मार-मार कर घुसा डालता है और उन्हें भी सिरफिरी अशांति से भर देता है।बहरहाल, मीडिया की महत्ता-महानता एक दीगर विषय है, यहां बात पब, पब में जाने वाली लड़कियों और उनके भारतीय या हिंदू संस्कृति के लिए पैदा हुए खतरे की है। पब केवल हिंदू संस्कृति को ही खतरा नहीं लगते, उससे भी बड़ा खतरा तो इस्लामी संस्कृति को लगते हैं। स्वयं इस्लामी संस्कृति की बात इसलिए उठाना जरूरी लगा कि सिरफिरों की पब आक्रमकता को मीडिया ने ‘तालिबानीकरण’ से जोड़ा, यानी जिस तरह से तालिबान इस्लाम के नाम पर जो ‘शुद्धतावादी’ कार्यक्रम चलाते हैं, वैसा ही शुद्धतावादी कार्यक्रम ये हिंदू तालिबान चलाना चाहते हैं।इसके अलावा बहुत सी राजनीतिक बातें थीं कि सेना नायक अपनी राजनीति चमकाना चाहता था इसलिए उसने अन्य किसी हथकंडे के बजाय बकरेकंडे का प्रयोग किया, कि यह सरकार को बदनाम करने का सुनियोजित षड्यंत्र था, कि यह इस्लामी कट्टरंथी संगठनों की कार्यनीति की अनुक्रिया थी आदि-आदि। अब ये सारी बातें अलग, आधारभूत सवाल तो पब, कथित ‘नग्न-अर्धनग्न’ लड़कियों का पब-गमन और इनसे आहत होती हिंदू संस्कृति का है। पब क्यों खुल रहे हैं’ इन पबों को कौन और किसलिए खोल रहा है। जिस आर्थिक नीति को हमने प्रगति का मूल मंत्र बनाया हुआ है, उसके चलते क्या पबों की जगह चैत्यालय खुलेंगे, ये सारे सवाल विचारणीय हैं, और इन पबों का सामाजिक प्रभाव भी विचारणीय है, तथापि यहां विचारणीय सवाल यह है कि क्या चंद निहत्थी लड़कियों पर हमला करके, या पार्कों में बैठे जोड़ों को सरेआम अपमानित करके, ऐसे मिलन स्थलों में तोड़-फोड़ करके क्या सचमुच हिंदू संस्कृति की रक्षा की जा सकती है? और क्या इस तरह के हमले सचमुच हिंदू संस्कृति के हिस्से हैं? या किसी भी सभ्य, जीवंत, सजग व्यवहार संस्कृति के हिस्से हो सकते हैं?पहली बात तो यह कि कोई भी ऐसा अनुदार, अभद्र, पश्चगामी कृत्य किसी दूसरे के ऐसे ही अभद्र, अनुदार, कट्टर और क्रूर हत्या का प्रत्युत्तर नहीं हो सकता। किसी दूसरे की खाज का जवाब अपने शरीर पूर कोढ़ पैदा कर के नहीं दिया जा सकता। हिंदू उग्रवादी संगठन प्राय: ऐसा ही करते प्रतीत होते हैं! दूसरे, कोई भी सांस्कृतिक परिवर्तन या नियंत्रण अभद्र और क्रूर व्यवहार द्वारा नहीं हो सकता। पब में जाने वाली लड़कियां अगर अभद्र-अश्लील सांस्कृतिक व्यवहार कर रही थीं तो उन पर हमला करने वाले उनसे हजार गुना अधिक अभद्र, अश्लील और अपसांस्कृतिक व्यवहार कर रहे थे। तीसरी बात यह कि यह वैसा ही व्यवहार था जैसे दांत खोले भेड़िये पर आपका कोई वश न चले और अपना डंडा मेमने पर फटकारने लगे। इस देश में पब संस्कृति फैलाने वालों का आप कुछ नहीं उखाड़ सकते, इसलिए पब जानेवाली कमजोर लड़कियों पर ही टूट पड़ो। यह सिर्फ दिमागी विकृति है।ये स्वयंभू हिंदू संगठन अगर सचमुच हिंदुओं का भला चाहते हैं तो न तो इन्हें इस तरह के कायरतापूर्ण कार्य करने चाहिए और न औरों को करने देने चाहिए। जरूरत हिंदुओं को आंतरिक तौर पर मजबूत होने और बनाने की है। और वे ऐसा तब कर सकते हैं जब वे अपनी सामाजिक आंतरिक कमजोरियों से लड़ें और अपनी अंतर्निहित कायरता से लड़ें। कायरता से लड़ने की लड़ाई वैचारिक ज्यादा होती है, जिससे इस तरह के संगठन लगातार बचते हैं। कुछ बम फोड़कर, निर्दोषों पर गोलियां चलाकर यह काम कर करना चाहते हैं, तो कुछ निर्दोषों की पिटाई करके। ये सिर्फ कायरतापूर्ण कार्य हैं। जो समाज इस तरह के कायरतापूर्ण कार्यों को पैदा करता है, समर्थन देता है या क्रियान्वित करता है, उसके पतन को ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता।

Sunday, February 8, 2009

भाजपा का राग


नागपुर में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी एवं राष्ट्रीय परिषद से जो स्वर उभरे हैं, उन्हें चुनावी सुर के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। आसन्न लोकसभा चुनाव के पूर्व पार्टी के इस जमावड़े से अन्य किसी संदेश की उम्मीद की भी नहीं जा सकती। ऐसे समय में किसी भी पार्टी का आयोजन चुनाव पर ही केंद्रित होगा। इसलिए भाजपा ने चाहे गांधी को आर्थिक संकट से मुक्ति का उपाय माना हो या फिर राम मंदिर निर्माण को अपने एजेंडे में होने का एलान, इसे पूरा देश चुनावी नजरिए से ही देखेगा। भाजपा चुनाव में इनका उपयोग किस तरह करती है, इसके बारे में नागपुर प्रस्ताव शांत है, इसलिए हमें चुनाव अभियान आरंभ करने का इंतजार करना होगा। वैसे गांधी का नाम पार्टी ने पहली बार नहीं लिया है। 1980 में पार्टी ने स्थापना के समय गांधीवादी समाजवाद को सिद्धांत के तौर पर अपनाया था, जिसे बाद में हटा दिया गया। पार्टी अध्यक्ष ने रामसेतु मामले पर संप्रग सरकार की खिंचाई करके राम नाम के उपयोग का एक रास्ता दिखाया है और यह चुनाव मैदान में गूंजेगा अवश्य। गांधी और राम-- भाजपा के लिए चुनावी दृष्टि से कितने लाभकारी होेंगे, इस बारे में भी अंतिम मत व्यक्त करना कठिन है। हां, आर्थिक मंदी के लिए सरकार की नीतियों को विफल करार देने, आतंकवाद के मोर्चे पर लचर रवैया अपनाने, घुसपैठ आदि को नजरअंदाज करने आदि आरोपों से इसने सरकार के खिलाफ चुनावी मुद्दों की एक फेहरिस्त हमारे सामने रख दी है। चुनाव के पूर्व हर पार्टी अपने समर्थक वर्ग को खींचने के लिए अपने नजरिए से मुद्दे सामने लाती है और भाजपा को भी अपने मुद्दे सामने रखने का अधिकार है। किंतु, वह समर्थक दलों के साथ शासन हाथ में लेने के लक्ष्य से चुनाव मैदान में उतर रही है, इसलिए उसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के स्वर के साथ स्वर देना है। यह उसके कुछ मुद्दों पर मुखर होने के रास्ते की बाधा है, इसलिए कई मामलों में उसके स्वर मद्धिम सुनाई पड़े हैं। गठबंधन में भाजपा के लिए हमेशा से अपने साथी दलों के साथ संतुलन बनाने की चुनौती है, जिसका असर उसके प्रस्तावों एवं नेताओं के भाषणों में साफ दिखाई देता रहा है। नागपुर भी इससे अछूता नहीं है। इसे गठबंधन की मजबूरी कह सकते हैं या फिर सत्ता पाने के लिए समझौता। सब देखने वाले के नजरिए पर है। इस मायने में भाजपा अकेली नहीं है। ये बातें इस समय ज्यादातर दलों पर लागू हो रही हैं। भाजपा ने शायद इसे संतुलित करने के लिए गांधी का नाम सामने लाया है। गांधी एक ऐसा नाम है, जिस पर अंबेडकरवादियों सहित दलित-राजनीति करने वाले नेताओं को छोड़कर किसी का विरोध नहीं है। यानी यह सर्वाधिक स्वीकृत है और गांधी का वारिस कहने वाली कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने का एक बड़ा अस्त्र भी।

Friday, February 6, 2009

पटेल दूर, नेहरू निकट क्यों थे बापू के.....


बात गत सदी की है। छह दशक पुरानी। आखिर महात्मा गांधी ने वल्लभभाई पटेल को क्यों गौण किए रखा और जवाहरलाल नेहरू के प्रति क्यों पक्षपाती रहे? भारत के सोशलिस्ट, खासकर जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जो नेहरू का जयघोष करते थे, का जब मोहभंग हुआ तो इन्होंने अपनी ‘ऐतिहासिक भूल’ को माना। कालचक्र तब तक घूम चुका था। आज भी यह यक्ष प्रश्न है कि रघुकुल में जन्मे राम के अनन्य भक्त, सत्य वचन पर सदैव अडिग, अति मानवीय गुणवाले गांधीजी ने भेदभाव क्यों किया? कहीं उनकी अवचेतना में यह तो नहीं था कि वे और पटेल एक ही भाषा (गुजराती) बोलते हैं। आजादी के आंदोलन में हिन्दीवालों की बहुलता थी, अत: नेतृत्व उन्हीं का होना चाहिए। वह दौर भी द्विज वर्ण के वर्चस्व का था। रंग-रूप से ठेठ गंवई भारत में शिक्षित पटेल कुर्मी थे। नेहरू पाश्चात्य शैली में रंगे, विदेश में पढ़े, लोहित वर्ण के विप्र थे। उनके जीवन के चौथे चरण (आयु 76 वर्ष) में गांधीजी के मुतल्लिक ये बातें क्षुद्र लगेंगी। आध्यात्मिक उत्कर्ष के शीर्ष सोपान पर पहुंचे बापू जरूर राग-द्वेष से परे तो रहे होंगे, मगर सारथी भी तो ईश्वर था जो कुरूक्षेत्र में पार्थ के प्रति अनुरागी था।एक दस्तावेजी घटना (1946 की) है, जिससे लगता है कि गांधीजी ने नेहरू को अन्य के मुकाबले बचाया, बढ़ाया और प्रायोजित किया। भारत सरकार के फिल्म प्रभाग की (इंदिरा गांधी युग में निर्मित) डाक्युमेंटरी ‘सरदार पटेल’ शीर्षक से है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में मौलाना आजाद की जगह नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था। गांधीजी ने सदस्यों को सूचित किया कि लगभग सारी प्रदेश समितियों ने सरदार पटेल का नामांकन भेजा। नेहरू के लिए प्रस्ताव नगण्य थे! फिर बापू ने पटेल की आ॓र मुखातिब होकर कहा, ‘सरदार, मैं चाहता हूं कि तुम जवाहर के पक्ष में अपना नामांकन वापस ले लो।’ सिर्फ दो शब्द में पटेल ने उत्तर दिया : ‘जी बापू।’ नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बन गये और कुछ महीनों में अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री भी।यूं इतिहास में ढेर सारे उदाहरण हैं, जिसमें राष्ट्र-नायकों और उनके उत्तराधिकारियों में विचार- वैषम्य उभरा है। व्लादिमिर लेनिन के निधन के बाद जोसेफ स्टालिन ने उनकी विचारधारा ही उलटा दी। माआ॓ जेडोंग के पूंजीशाही जानशीनों ने कम्युनिज्म को माआ॓ के शव के साथ संलेपित कर उनके ताबूत में सील बंद कर दिया। नेहरू ने तो बापू के जीते जी उन्हें नकार दिया था। अपनी डायरी में 1936 में नेहरू ने लिखा कि वे निश्चित राय के हैं कि बापू के साथ सहयोग मुमकिन नहीं है। ‘हम दोनों को अब अलग राहें लेनी पड़ेंगी।’ उन्हीं दिनों गांधीजी ने अपने अंग्रेज मित्र अगाथा हैरिसन को लिखा था : ‘जवाहर अब मेरा नहीं रहा। मुझे उसके तौर-तरीके पसंद नहीं हैं।’ गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन पर नेहरू ने जो कहा, उसे पत्रकार लुई फिशर ने अपनी पुस्तक ‘गांधी, उनका जीवन और विश्व को संदेश’ में दर्ज किया है। नेहरू ने बापू को 13 अगस्त, 1943 को लिखा- ‘इस बार जेल आना मेरी धमनियों के लिए कठिन परीक्षा जैसा है।’ गांधीजी के संघर्ष–दर्शन पर अपनी शंका नेहरू ने 1942 में व्यक्त की। तब वे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से सहमत थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में ‘भारत छोड़ो’ जैसा आन्दोलन ब्रिटेन को जर्मनी के खिलाफ लड़ने में कमजोर कर देगा। राजगोपालाचारी ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव का विरोध और पाकिस्तान की मांग का खुलकर समर्थन किया था, मगर बाद में समय की नजाकत को भांपकर नेहरू मुंबई अधिवेशन में शरीक हुए और गांधीजी का समर्थन किया। वे तब तीन वर्ष (9 अगस्त, 1942 से 14 जुलाई, 1945) तक अहमदनगर किले की जेल में कैद रहे।संघर्ष से थकान ही थी कि नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेता हर कीमत पर ब्रिटेन से समझौता चाहते थे, भले ही भारत का विभाजन हो जाय। गांधीजी ने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। यह नाथूराम गोड्से ने सचकर दिखाया, जब पाकिस्तान बनने के साढ़े पांच महीनों में ही गांधीजी की हत्या कर दी गई। गांधीजी और नेहरू की दूरी सदैव के लिए हो गई, जब संगम तट पर बापू का नेहरू ने अस्थि विसर्जन किया। वही तब श्रद्धाजंलि जनसभा में नेहरू के भाषण के बाद सम्पादक दुर्गादास के कान में रफी अहमद किदवई ने कहा, ‘जवाहरलाल ने आज गांधीजी ही नहीं, बल्कि गांधीवाद का भी अंतिम संस्कार कर दिया।’ (फ्रॉम कर्जन टु नेहरू : दुर्गादास)। गांधीजी ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को भारतीय धरती पर रोपित करने के विरूद्ध थे, क्योंकि इसके तहत दो वर्ग- शासक और शासित ही पैदा होते हैं। राजकाज में जन सहभागीदारी नहीं हो सकती। गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था : ‘ब्रिटिश संसद बांझ है, वारांगना है।’ बांझ इसलिए कि इसने एक भी जन कल्याणकारी कार्य नहीं किया। वेश्या इसलिए कि सांसद भिन्न किस्म के प्रभावों तथा दबावों के तहत काम करने के लिए लाचार होते हैं, मगर नेहरू ने पूरी ताकत जुटा कर यह किया। इसी परिवेश में गांधीजी और नेहरू के परिवारों की राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना भी हो जाए। जवाहरलाल नेहरू लाहौर में दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष उनके निवर्तमान अध्यक्ष पिता मोतीलाल नेहरू के स्थान पर बने थे। महात्मा गांधी ने पद को अस्वीकार कर दिया था। तब पिता द्वारा पुत्र हेतु आग्रह को गांधीजी ने स्वीकार किया था। महात्मा गांधी के परिवार के आज 54 लोग हैं। जो दिवंगत हो गये, वे तो सत्ता से दूर-दूर ही रहे, क्योंकि गांधीजी ने किसी को आने नहीं दिया। अलबत्ता, सत्याग्रही बनाकर उन्हें जेल भेजते रहे। केवल दो का नाम आता है, जो राजनीति की परिधि के इर्द-गिर्द रहे। जैसे उनके पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी जो विदेश सेवा की नौकरी में थे, आज पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। उन्हीं के भाई राजमोहन गांधी लेखक हैं और बस एक बार उन्होंने अमेठी से राजीव गांधी के विरूद्ध लोकसभा का चुनाव 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर वाले जनता दल के टिकट पर लड़ा था, मगर उनके अग्रज रामचंद्र गांधी नई दिल्ली के बंगाली मार्केट के सेंट्रल लेन स्थित एक गैरेज के ऊपर निर्मित कमरे में रहे। उनके निधन के दिन वहां के चौकीदार को पता चला कि महात्मा गांधी के सत्तर वर्षीय लेखक पौत्र रामचन्द्र का जून, 2007 में निधन हो गया। तो क्या इन सब तथ्यों पर गौर करने के बाद भी कुछ सोचने हेतु शेष रह जाता है कि गांधीजी क्या थे, कैसे थे और आज उनकी याद कितनी बची है?

खेती में पिछड़ता भारत


पिछले दो दशकों में भले ही अन्य क्षेत्रों में हम अव्वल साबित हुए हों लेकिन, खाघ उत्पादन में हम पड़ोसी मुल्कों से भी पिछड़ गए हैं। पिछड़ने का दर्द इसलिए भी ज्यादा है कि हमारी गिनती कभी कृषि प्रधान देशों में होती थी, हमारे यहां औसत कृषि जोत अब भी ज्यादा है और पड़ोसी देशों से एक समान सामाजिक पृष्ठभूमि साझा करते हैं। लेकिन आलम ये है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ की खाघ फसलों की उत्पादकता वृद्धि दर में हम गए गुजरे हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि भारत कृषि उत्पादन में पड़ोसी मुल्कों से पिछड़ गया है। दरअसल कृषि उत्पाद में हम आज भी दक्षिण एशियाई देशों में दिग्गज हैं लेकिन, खाघ फसल मसलन, गेहूं, चावल, दाल की पैदावार वृद्धि दर में हमारी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई है। यह चिंता की बात है, न केवल किसानों के लिए बल्कि आम नागरिकों के लिए भी क्योंकि पेट की भूख मिटाना सबकी प्राथमिकता में शामिल है। इसके अलावा ये इस मायने में खतरे की घंटी भी है कि कहीं खेती-किसानी प्रधान मुल्क भारत का अस्तित्व ही तो नहीं मिट रहा है। खाघ उत्पादन के मामले में हमारे दावे कितने सही हैं, इसका अंदाजा नवंबर 2008 में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के कृषि मंत्रियों की हुई बैठक में चला। नई दिल्ली में हुई इस बैठक में सभी आठ देशों ने खाघ फसलों के उत्पादन संबंधी दस्तावेज एक दूसरे से साझा किए। इसके अलावा बैठक में संयुक्त राष्ट्र खाघ एवं कृषि संगठन (एफएआ॓) की नीतियों पर भी चर्चा हुई। जो बात प्रमुखता से उभर कर सामने आई वो है, फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के मामले में भूटान पहले स्थान पर है। यहां तक कि नेपाल, अफगानिस्तान और बांग्लादेश भी पिछले दो दशकों में खाघ फसलों की उत्पादन दर में भारत से आगे हैं। अब चावल को ही लीजिए, सार्क देशों में चावल की खेती बड़े पैमाने पर होती है। भारत में तो इसकी खेती और भी बड़े पैमाने पर की जाती है। हालांकि अब भी विश्व के चुनिंदा चावल उत्पादक देशों में हमारी गिनती होती है। लेकिन इसकी औसत वृद्धि दर 1991-93 और 2005-07 के बीच भारत में महज 1.21 फीसद रही। जबकि भूटान में सबसे ज्यादा 3.37 फीसद दर्ज की गई। इसी दौरान बांग्लादेश में 2.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई। यही नहीं, पाकिस्तान और श्रीलंका में 1.80 और 1.40 फीसद क्रमश: दर्ज की गई। जहां तक गेहूं उत्पादन की बात है तो सार्क देशों की यह दूसरी प्रमुख खाघ फसल मानी जाती है। यहां भी अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान हमसे आगे हैं। अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 3.44 फीसद रही। दूसरे पायदान पर नेपाल 3.39 फीसद के साथ रहा। जबकि भारत 0.86 फीसद के साथ पांचवें पायदान पर खिसक गया। कहने के लिए कहा जा सकता है कि इन सालों के बीच उत्पादकता के लिहाज से मानसून अनुकूल नहीं रहा है, जो कि अफगानिस्तान और नेपाल पर लागू नहीं होता है। लेकिन इस तर्क को ज्यादा सटीक नहीं माना जा सकता, इसलिए कि यही मानसून श्रीलंका और बांग्लादेश पर भी लागू होती है। अगर हम कुल अनाज उत्पादन के लिहाज से भारत की तुलना दूसरे सार्क देशों से करें तो भारत श्रीलंका के साथ अंतिम पायदान पर नजर आता है। भूटान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 5.12 है और भारत का 1.46 फीसद है। ये हाल तब है जबकि हमारे यहां औसत कृषि जोत सबसे ज्यादा है, देश की कुल आबादी का तीन चौथाई हिस्सा खेती को अपना रोजगार मानता है। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि इन सालों में नकदी फसलों का उत्पादन बढ़ा है। अभिप्राय यह कि किसानों ने चावल, गेहूं के बजाय कपास और जूट जैसी फसलों के उत्पादन पर जोर दिया है। दूसरी आ॓र सब्जी की खेती भी अब पहले की तुलना में बड़े पैमाने पर की जाने लगी है। लेकिन यह भी सचाई है कि 1960 की हरित क्रांति का असर अब खत्म होने लगा है। लोगों को अब खेती में, खासकर अनाज उत्पादन में ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है। जहां तक सार्क देशों से पिछड़ने की बात है तो 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद स्थिति में बड़ी तेजी से बदलाव आया है। भारत में शहरीकरण, उच्च शिक्षा, बीपीआ॓, विज्ञान एवं तकनीक और प्रशासनिक सुधारों पर जोर दिया जाने लगा है। हम आर्थिक नजरिए से खुद को मजबूत बनाते गए। दूसरी आ॓र सालों तक अनाज के लिए हम पर निर्भर रहने वाले छोटे-छोटे सार्क देश खेती-किसानी पर ज्यादा जोर देने लगे। इस बीच हमारी कृषि नीतियां महज कागजी ही साबित हुई और हम पडा़ेसी मुल्कों से पिछड़ते गए। बहरहाल अब प्रश्न यह है कि भारत खाघान्न उत्पादन के मामले में क्या कारगर कदम उठाए? हमारी आबादी एक अरब से ज्यादा है और हम खाघ उत्पादन में पिछड़ते जाएंगे तो निस्संदेह एक दिन हमारी आबादी या तो भूखे सोएगी या दूसरे देश का अनाज खाएगी। इसलिए जरूरी इस बात की है कि हम पडा़ेसी मुल्क से कुछ सीखें और अपनी कृषि नीतियों पर फिर से विचार करें।

भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक मुख्यमंत्री की जंग


बिहार इतिहास के एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में गत तीन वर्षों में फर्क ला दिया है। एक मीडिया समूह ने नीतीश को पालिटिशियन ऑफ द इयर चुना है। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए स्वर्ण पदक दिया है। पूंजी निवेश के क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि को देखते हुए एसोचेम ने कहा है कि बिहार अब बीमारू राज्यों की जमात से बाहर निकल रहा है। ये तीनों खबरें पिछले हफ्ते आई हैं। पर इससे अनेक जद (यू) कार्यकर्ता, नेता व प्रशासन के भ्रष्ट लोग कतई प्रभावित नहीं हैं। इसकी बानगी दिखी हाल ही में राजगीर के जनता दल (यू) चिंतन शिविर में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने झल्ला कर कहा कि यदि आपको लूट की छूट चाहिए तो आप मेरी जगह दूसरा नेता चुन लीजिए। इससे पहले उन्होंने अपनी विकास यात्रा के दौरान प्राप्त कटु अनुभवों को देखते हुए यह ऐलान कर दिया कि वे अपनी ही सरकार के भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ चौतरफा जंग करेंगे। शायद एक दो हफ्तों में उस प्रस्तावित जंग का ठोस स्वरूप भी सामने आ जाएगा। यह अजीब बात है कि कोई मुख्यमंत्री अपने ही दल के अनेक कार्यकर्ताओं और अपनी ही सरकार के अधिकतर अफसरों व कर्मचारियों में मौजूद लोभ की प्रवृत्ति से इतना विचलित हो जाए। ऐसा लगता है कि यह एक आंतरिक जंग है। देखना है कि इसमें अंतत: कौन जीतता है।राजगीर के चिंतन श्वििर में कार्यकर्ताओं के सरकार विरोधी भाषणों ने नीतीश कुमार की चिंता बढ़ा दी। उन्हें अपने समापन भाषण में यह कहना पड़ा कि यदि कार्यकर्तागण इतने ही नाराज हैं तो वे अपना नया नेता चुन लें। पर यदि मुझे चुना है तो मैं अपने ही ढंग से काम करूंगा और किसी को लूट की छूट नहीं दूंगा। यानी जद(यू)कार्यकर्ताओं के एक बड़े हिस्से के दिलोदिमाग पर से अब भी पुरानी राजनीतिक कार्य संस्कृति का भूत नहीं उतर रहा है। कमोबेश यही स्थिति उस प्रशासनिक कार्यपालिका की है जिसका साथ लेकर नीतीश कुमार बिहार का कायापलट करना चाहते हैं। नीतीश कुमार ने हाल ही में चंपारण के गांवों में 5 रातें बिताने के बाद पटना में एक सार्वजनिक मंच से जनता से अपील कर दी कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल दें। सरजमीं की फर्स्ट हैंड जानकारी लेकर लौटे मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार में भ्रष्टाचार के खात्मे के बगैर विकास का लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच सकता। हम जहां-तहां से साधन जुटा कर उसे इस गरीब राज्य के विकास कार्यों में खर्च करना चाहते हैं, पर भ्रष्टाचार में वे पैसे बीच में ही लूट लिए जाएं, यह हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। उससे पहले वे खुद भी राज्य भर के सरकारी दफ्तरों में फैले भीषण भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कारगर प्रशासनिक व कानूनी कार्रवाइयां करने जा रहे हैं, उनकी ताजा टिप्पणियों से यह संकेत मिला है। यह जानकारी तो उन्हें पहले से ही थी कि राज्य सरकार के अफसरों और कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार के कारण सरकारी विकास व कल्याण योजनाओं का कम ही लाभ आम जनता तक पहुंच पा रहा है। इसीलिए उन्होंने कह रखा था कि वे अब भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार अफसरों और कर्मचारियों के मुकदमों की सुनवाई त्वरित अदालतों में कराने की व्यवस्था कराएंगे। साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा कर रखी है कि घूसखोरी के आरोप में सरकारीकर्मियों को पकड़वाने वालों को 50 हजार रूपए तक का इनाम दिया जाएगा। यदि किसी भ्रष्ट अफसर के पकड़े जाने पर बड़ी मात्रा में काले धन का पता चलता है तो उस राशि का दो प्रतिशत इनाम के रूप में अलग से मिलेगा। उन्होंने अपने दल के कार्यकर्ताओं से पहले अपील की थी कि वे भ्रष्टों को पकड़वाने में सरकार की मदद करें। पर कोई कार्यकर्ता अब तक सामने नहीं आया। आज की राजनीति ही ऐसी हो चुकी है कि शायद ही किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को घूसखोरों पर अब कोई गुस्सा आता है। इसी कारण मुख्यमंत्री को आम जनता से अपील करनी पड़ी। देखना यह है कि कहां से कितनी मदद मिलती है, पर संकेत है कि राज्य सरकार त्वरित अदालतों के गठन के लिए जल्दी ही पटना हाई कोर्ट से गुजारिश करेगी। अपराध से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए बिहार में गठित त्वरित अदालतों ने कमाल किया है। गत तीन साल में करीब 28 हजार अपराधियों को निचली अदालतों से सजाएं मिल चुकी हैं। नतीजतन अब बिहार में ‘जंगल राज’ नहीं है।आम लोगों ने उनकी विकास यात्रा के दौरान चंपारण में मुख्यमंत्री को बताया कि डकैतों का भय तो अब नहीं है, पर भ्रष्ट अफसर डकैत की तरह ही गरीब जनता को लूट रहे हैं। बिना घूस के सरकार का कोई काम नहीं हो रहा है। यह सुशासन नहीं बल्कि घूस–शासन है। पांचों दिन मुख्यमंत्री को यही सुनना पड़ा। नीतीश कुमार ने देखा कि उनके भ्रष्ट अफसर और कितने ताकतवर हो चुके हैं कि उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं हैं ! मुख्यमंत्री तो भ्रष्टाचार पर अपराध की तरह ही काबू पाने की कोशिश करेंगे। उसमें उन्हें सफलता भी मिल सकती है जिस तरह अपराध के मोर्चे पर मिल चुकी है। पर सवाल यह है कि भ्रष्ट अफसर और कर्मचारी इतने निर्भीक कैसे हो चुके हैं कि उन्हें एक ऐसे मुख्यमंत्री की भी कोई परवाह नहीं है जो भीषण सरकारी भ्रष्टाचार का खात्मा चाहता है? बिहार के निगरानी दस्ते ने पिछले तीन साल में महा निदेशक स्तर के पुलिस अफसर और कलक्टर स्तर के आईएएस अफसर को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार किया। इसके बावजूद सरकारी दफ्तरों में गत तीन साल में भ्रष्टाचार बढ़ा।बिहार सरकार में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। इस भ्रष्टाचार ने तो सभी मानकों में बिहार को देश के राज्यों की सूची में पिछले वर्षों में सबसे निचले पायदान पर ठेल दिया था। सन् 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी सक्सेना ने कहा था कि बिहार में नौकरशाही के सर्वोच्च शिखर तक चूंकि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, इसलिए निचले तबके के अधिकारियों के मन में पैसा बनाने के खिलाफ भय समाप्त हो गया है।’ नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद लगा था कि यह समाप्त हुआ भय वापस आ जाएगा। पर, ऐसा नहीं हुआ।ऐसा क्यों हुआ ? सवाल यह है कि ऐसे भ्रष्ट सरकारी मुलाजिमों को ताकत कहां से मिल रही है? दरअसल उन्हें ताकत राजनीतिक कार्यपालिका के एक बड़े हिस्से और अनेक जन प्रतिनिधियों के भ्रष्ट आचरण से मिल रही है। एमपी–विधायक फंड में जारी घूसखारी और कमीशनखोरी ने अफसरों और कर्मचारियों को और भी बेखौफ और निर्लज्ज बना दिया है। ऐसे जन प्रतिनिधियों की संख्या अब काफी कम है जो अपने फंड के बदले ठेकेदारों से कमीशन नहीं लेते। एमपी–विधायक फंड से हो रहे निर्माण कार्यों का कार्यान्वन और पर्यवेक्षण वही अफसर, ठेकेदार और इंजीनियर करते हैं जो राज्य के अन्य विकास कार्यों का काम करते हैं। वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने यूं ही इस बात की सिफारिश नहीं की है कि एमपी–विधायक फंड को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। हालांकि राजनीति और प्रशासन पर इसके कुप्रभाव को देखते हुए बिहार के तीनों प्रमुख नेता नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव और राम विलास समय-समय पर यह कह चुके हैं कि एमपी–विधायक फंड को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

कैसे कामयाब हो रोजगार गारंटी योजना


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाना और इस तरह हमारे गांवों में रोजगार के अधिकार को स्थापित करना यूपीए सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी गई है। इस कानून के अन्तर्गत बनी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मूलत: अच्छी योजना है। यदि इस अधिनियम का क्रियान्वयन सही ढंग से हो और जो कानून में कहा गया है, वह ठीक-ठीक जमीनी स्तर पर दिखे, तो गरीबी दूर करने में इस योजना की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पर्यावरण संरक्षण के कार्य व टिकाऊ विकास की बुनियाद तैयार करने वाले बहुत से कार्य इसके अन्तर्गत हो सकते हैं। अंतिम लक्ष्य तो यही है कि गांवों के टिकाऊ व आत्म–निर्भर विकास की बुनियाद तैयार हो तथा इस योजना का उपयोग इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए। टिकाऊ विकास के लिए, जल व मिट्टी संरक्षण तथा हरियाली बढ़ाने के कार्यों को करने के लिए अब इस योजना के कारण पहले से कहीं अधिक बजट उपलब्ध हो सकता है, यह बड़ी उपलब्धि होगी।पर, इन तमाम संभावनाओं का अपेक्षाकृत अच्छा उपयोग अभी देश के कमोबेश छोटे क्षेत्र में ही हो पा रहा है। देश के बड़े क्षेत्र में अभी उम्मीद के अनुकूल परिणाम रोजगार के अधिकार के इस कानून से नहीं मिल सके हैं, जिसे ‘नरेगा’ कहा जा रहा है। सवाल है कि जहां बेहतर परिणाम मिले हैं, वहां की स्थितियां कैसी थीं, ताकि इन स्थितियों को बड़े पैमाने पर उत्पन्न कर पूरे देश में इस योजना को सफल बनाया जा सके।‘नरेगा’ की सफलता के लिए बहुत महत्वपूर्ण शर्त यह है कि गांववासियों के व विशेषकर उनके कमजोर व जरूरतमंद वर्ग के संगठन मजबूत होने चाहिए। यदि ये संगठन मजबूत होंगे, तो जॉब कार्ड बनवाने, विधिसम्मत ढंग से रोजगार मांगने, रोजगार स्थल पर उचित मजदूरी व अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करने व रोजगार न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करने जैसे सभी कार्य ठीक से हो सकेंगे। दूसरी आ॓र, संगठन न होने पर अकेले कोई संवेदनहीन हो चली व्यवस्था में रोजगार की मांग के लिए देर तक संघर्ष नहीं कर सकता।दूसरी मुख्य बात यह है कि गांव व पंचायत की योजना बनाने का कार्य संतोषजनक ढंग से होना चाहिए। यदि पंचायत स्तर की अच्छी योजनाएं बनी हैं, तो आसानी से चुनाव हो सकता है कि किस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर पहले करना है। अच्छी योजना बनाने का अभिप्राय यह है कि सभी लोगों की भागीदारी हो, महिलाओं व कमजोर आर्थिक–सामाजिक वर्ग विशेषकर दलित समुदायों पर विशेष ध्यान दिया जाए, टिकाऊ विकास व पर्यावरण संरक्षण की जरूरतों को भली–भांति समझकर कार्य किया जाए।इस योजना की तीसरी अहम शर्त है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए असरदार कदम उठाए जाएं। हालांकि ‘नरेगा’ में पारदर्शिता व जनता की जांच–निगरानी के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, पर जब ग्रामीण विकास कार्यों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो, तो इन प्रावधानों की उपेक्षा होने लगती है। अत: भ्रष्टाचार करने वालों के विरूद्ध असरदार कार्यवाही करना व उन्हें न्यायोचित सजा दिलाना जरूरी है, ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।जब रोजगार गारंटी की बात की जाती है, तो ‘गारंटी’ पक्ष के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि रोजगार की व्यवस्था न होने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। ‘नरेगा’ में बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था है, पर इस बारे में कानून उतना मजबूत नहीं है, जितना होना चाहिए व क्रियान्वयन तो और भी कमजोर है। अत: बेरोजगारी भत्ते के मामले में कानून और क्रियान्वयन- दोनों को मजबूत किया जाए।आंकड़ों के अनुसार, योजना पर अभी तक जो खर्च हुआ है, वह जरूरतमंदों को एक सौ दिन का रोजगार दिलाने के लिए काफी कम है। वर्ष 2006–07 में ‘नरेगा’ पर 8,823 करोड़ रूपए खर्च हुए, 2007–08 में 15,857 करोड़ रूपए व 2008–09 में 17,076 करोड़ रूपए खर्च हुए। औसतन एक जिले पर 30 करोड़ रूपए का खर्च अभी बहुत कम है। जब यह ध्यान में रखें कि इसका महत्वपूर्ण हिस्सा भ्रष्टाचार में चला गया, तो यह उपलब्धि और भी कम हो जाती है। जब जमीनी स्तर पर जरूरतमंद लोग यह महसूस करते हैं कि उन्हें सौ दिन की अपेक्षा तीस–चालीस दिन ही काम मिला, पूरी मजदूरी नहीं मिल रही है या देर से मिल रही है, तो उन्हें बहुत निराशा होती है। इसके साथ पुरानी रोजगार योजनाएं रोकी गईं व कई सूखा प्रभावित क्षेत्रों में अलग से राहत कार्य शुरू नहीं किए गए, जिससे जरूरतमंदों को मिलने वाली राहत कम हो गई। पहले खाघ के बदले कार्य व सूखा राहत कार्यों से अनाज जरूरतमंद लोग तक नहीं पहुंचता था, वह अब नजर नहीं आ रहा है। इतना तो तय है कि ‘नरेगा’ के लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

Tuesday, February 3, 2009

भटकी रणनीति

भटकी रणनीति अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान के लिए विशेष दूत नियुक्त कर शानदार काम किया है। ओबामा ने कहा है कि आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई में अफगानिस्तान और पाकिस्तान केंद्रीय मोर्चा है। मध्य-पूर्व के साथ-साथ यह इलाका अमेरिकी हितों के लिए महत्वपूर्ण है। ओबामा जब कहते हैं कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हालात बिगड़ते जा रहे हैं और एक दूसरे से संबद्ध दोनों देशों के लिए एक अनुकूल अमेरिकी कूटनीति की जरूरत है तो वह बिल्कुल सही होते हैं। वैसे अफगानिस्तान में सैन्य शक्ति बढ़ाने का उनका विचार गलत है। अफगानिस्तान में गर्मियों तक सैनिकों की संख्या करीब दोगुनी करके यह आंकड़ा 63 हजार पर लाने की योजना की मंशा तालिबान को सैन्य बल की ताकत से उखाड़ना नहीं है, बल्कि शक्ति प्रदर्शन के बल पर राजनीतिक समझौता करने की है। जो बुश प्रशासन ने इराक में किया वही ओबामा अफगानिस्तान में करना चाहते हैं। इराक में अमेरिका ने सुन्नी कबीलाई नेताओं और अन्य स्थानीय सरदारों को सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास किया था। अफगानिस्तान में और अधिक सैनिक भेजने की रणनीति अमेरिका को हार की ओर ले जाएगी। एक लाख से अधिक सोवियत सैनिक भी अफगानिस्तान को काबू नहीं कर पाए थे। असल मुद्दा सैनिकों की संख्या बढ़ाना नहीं, बल्कि सही रणनीति अपनाना है। रक्षा मंत्री राबर्ट गेट्स के वरदहस्त से अमेरिकी केंद्रीय कमान के कमांडर जनरल डेविड पेट्रायस तालिबान की प्रमुख शक्ति अफगान कमांडरों और कबीलाई नेताओं को समझा-बुझाकर रास्ते पर लाना चाहते हैं। जनरल पेट्रायस स्थानीय कबीलाई सरदारों और अन्य गुरिल्ला नेताओं के साथ संधि और मैत्री करना चाहते हैं। उन्होंने इराक में भी सैन्य शक्ति के बल पर ऐसा ही किया था। वार्ता को सफलता के अंजाम तक पहुंचाने के लिए अमेरिका को पहले तालिबान की शक्ति क्षीण करनी होगी। अफगानिस्तान के प्रत्येक प्रांत में स्थानीय सरदारों को तैनात करते समय उसे इराक में अपने अनुभव की किताब के पन्ने पलटने होंगे। यह कदम इस खतरे से आंखें फेरने वाला है कि ऐसे सरदार स्थानीय जनता को आतंकित कर सकते हैं। 2008 का वर्ष अमेरिकी सेनाओं के लिए सबसे घातक सिद्ध हुआ है। अगर तालिबान फिर से आक्रामक हो रहे हैं तो इसके दो प्राथमिक कारण हैं- तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली सहायता और विदेशी दखल के खिलाफ पश्तूनियों का बढ़ता पलटवार अर्थात उनमें राष्ट्रवाद का जोर मारना। अमेरिकी शक्ति प्रदर्शन स्थानीय तालिबान कमांडरों और कबीलाई सरदारों में इतना खौफ पैदा नहीं कर पाएगा कि वे शांति संधि करने को मजबूर हो जाएं-खासतौर से तब जब अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों का साथ दे रहे कुछ देश युद्ध से आजिज आ चुके हैं। ऐसे समय जब अफगानिस्तान में युद्ध के लिए समर्थन घटता जा रहा है, ओबामा प्रशासन पर दबाव है कि वह जल्द कुछ परिणाम निकाले। वास्तव में इराक के समान अफगानिस्तान में सैनिकों में वृद्धि और घूसखोरी के अनुभव के आधार पर काबुल में सफलता की कामना करना भोलापन ही है। अफगानिस्तान का पर्वतीय इलाका, असंख्य कबीले, कबीलाई पंथिक आग्रह, अफीम का वैश्विक गढ़ और लंबे गृहयुद्ध का इतिहास इसे अन्य मुस्लिम देशों से अलग करता है। एक ऐसी जगह जहां विदेशी सेनाओं को नीचा दिखाने की लंबी परंपरा रही है, घूसखोरी से शांति नहीं खरीदी जा सकती। तब भी पेट्रायस बांटो और जीतो की साम्राज्यवादी कूटनीति का 21वीं सदी का संस्करण इस्तेमाल करना चाहते हैं। यह तय है कि पाकिस्तान पर अपनी निर्भरता बढ़ाने की पेट्रायस की योजना तालिबान को अपने दांत और पैने करने में सहायक सिद्ध होगी। रूस और मध्य एशियाई देशों के साथ रसद आपूर्ति करने के लिए रास्ता उपलब्ध कराने की नई संधियों से भी अमेरिका की पाकिस्तान पर निर्भरता अधिक नहीं घटेगी। ऐसे आसार हैं कि नई रणनीति को तर्कसंगत ठहराने के लिए अलकायदा और तालिबान में दिखावटी अंतर स्थापित किया जाएगा। इसके तहत अलकायदा को एक बुराई मानते हुए तालिबान के साथ समझौते की कोशिश की जाएगी। कटु सत्य यह है कि जिहाद के लिए बेचैन आत्माएं-अलकायदा, तालिबान और लश्करे-तैयबा एक-दूसरे के साथ इस तरह घुलमिल गए हैं कि इनको अलग-अलग करना संभव नहीं है। पाकिस्तान में इन्हें सुरक्षित पनाहगाह मिल रही है। एकमात्र अंतर यह है कि अलकायदा पर्वतीय गुफाओं के मुहाने से अभियान चलाता है, जबकि तालिबान और लश्करे-तैयबा पाकिस्तान में कुछ खुलकर कार्य करते हैं। इस प्रकार के किसी भी समूह के साथ संधि वैश्विक जिहाद संघ को मजबूती ही प्रदान करेगी। पहले इस नीति का समर्थन करने वाले उपराष्ट्रपति जो बिडेन की दलील है कि अमेरिका के लिए अफगानिस्तान को सुरक्षित रखना जरूरी है, क्योंकि अगर यह असफल हो गया तो पाकिस्तान में भी ऐसा ही होगा। वह दोहरी गलती कर रहे हैं। अफगानिस्तान में युद्ध को सात साल बीत चुके हैं। वह समय निकल चुका है जब सैन्य शक्ति में वृद्धि असरदार साबित होती। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अमेरिका तब तक अफगानिस्तान में जीत हासिल नहीं कर पाएगा जब तक वह पाकिस्तान की सैन्य पनाहगाहों को ध्वस्त न कर दे और जब तक तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली बुनियादी सहायता पर रोक न लगे। ओबामा के शपथ ग्रहण करने से तुरंत पहले ऐसा ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्टीफन हेडली ने कहा था-आप पाकिस्तान को साधने से पहले अफगानिस्तान को कभी नहीं साध पाएंगे। फिर भी, वाशिंगटन पाकिस्तान को असैन्य सहायता जारी रखने और जवाबदेही के साथ सैन्य सहायता देने की बात कर रहा है। वास्तविकता यह है कि अमेरिका इस स्थिति में है कि वह दीवालिया होने के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान को 24 घंटे के भीतर घुटने टेकने को मजबूर कर दे। उसे पाकिस्तान को मिलने वाली तमाम सहायता रोकने और आतंक फैलाने वाले राष्ट्रों की सूची में डालने की धमकी देने भर की जरूरत है, जबकि अमेरिका इसका उलटा कर रहा है। वह पाकिस्तान के साथ सैन्य सहयोग बढ़ा रहा है। अमेरिकी अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि अमेरिका अशासित सीमा क्षेत्र के ऊपर मानवरहित विमान ड्रोन की कार्रवाई पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों की देखरेख में करने पर राजी हो गया है। साथ ही वह पाकिस्तान में फोन से होने वाली आतंकियों की बातचीत का रिकार्ड भी पाकिस्तान से साझा कर रहा है। अगर ओबामा प्रशासन इस संधि के माध्यम से अफगानिस्तान में हिंसा में कमी लाने में कामयाब हो भी जाता है तो भी पाकिस्तानी सेना की सहायता से तालिबान की संहारक शक्ति बरकरार रहेगी। इस प्रकार का सामरिक लाभ इस क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करेगा। अल्पकालीन सफलता की कामना से ओबामा प्रशासन दीर्घकालीन अमेरिकी नीतियों की कमजोरी का शिकार बन रहा है। वह छोटे लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मित्रों की सुरक्षा की अनदेखी कर रहा है। जैसा कि मुंबई हमलों से जाहिर होता है, अफगानिस्तान-पाकिस्तान पट्टी में अमेरिका की विफल नीतियों का सबसे अधिक खामियाजा भारत को ही भुगतना पड़ा है।

Monday, February 2, 2009

किस मुद्दे पर लड़े जाएंगे आम चुनाव


आम चुनावों में अब कुछ ही महीने शेष रह गए हैं। इसे देखते हुए देश में यह बहस जोरों पर है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में मतदाताओं को रिक्षाने के लिए पार्टियां किन मुद्दों की मदद लेंगी।


क्या इस बार के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के लिए आतंकवाद का मुद्दा महत्वपूर्ण होगा या बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी या फिर आर्थिक सुधार और उदारीकरण की बात? पिछले दो दशकों में, भारतीय राजनीति में कई परिर्वतन हुए हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव बढ़ा है और राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार घटा है। आज किसी भी एक पार्टी के लिए राष्ट्रीय चुनावों में बहुमत हासिल करना मुश्किल हो गया है। वर्ष 1991 में हुए आम चुनावों में जहां क्षेत्रीय पार्टियों ने कुल मिलाकर लोकसभा की 55 सीटें जीती थीं और लगभग 24 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे, वहीं 2004 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों ने कुल 174 सीटों पर विजय हासिल की और लगभग एक तिहाई प्रतिशत मत प्राप्त किए। इन चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों का वोट प्रतिशत 80 से घटकर 63 ही रह गया। इस तरह देश में मिलीजुली सरकारों का दौर शुरू हुआ।पार्टियों और सरकारों के बदलते स्वरूप के साथ-साथ चुनावी राजनीति और चुनावी रणनीति के स्वरूप में भी काफी परिवर्तन आया। सत्तर और अस्सी के दशक में होनेवाले लोकसभा चुनावों में अक्सर राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी होते थे और राज्यों के या स्थानीय मुद्दे बहुत कम उठाए जाते थे। मिसाल के तौर पर 1971 के लोकसभा चुनाव में 'गरीबी हटाओ', 1977 के चुनाव में इंदिरा हटाओ, 1980 के चुनाव में सरकार की स्थिरता, 1984 के चुनाव में राष्ट्र स्तर पर चली सहानुभूति लहर और 1989 के आम चुनावों में 'बोफोर्स और भ्रष्टाचार' राष्ट्रव्यापी मुद्दे बने थे। पर अब ऐसे राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो गए हैं। पार्टियां अपने घोषणापत्र में भले ही बड़ी-बड़ी बातों का जिक्र करें, परंतु मतदाताओं पर जिसका सबसे ज्यादा असर होता है, वह है उनकी रोजमर्रा की जिंदगी की समस्याएं; जैसे बिजली, सड़क, पानी और रोजगार। उल्लेखनीय यह है कि अब मुद्दों को लेकर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय चुनावों के बीच का अंतर लगभग खत्म हो गया है। किसी भी चुनाव में मतदाताओं के वोट देने के निर्णय पर सबसे ज्यादा असर उन समस्याओं का पड़ता है, जिनका उन्हें रोजाना सामना करना पड़ता है। अगर एक चुनावी क्षेत्र में बिगड़ती कानून व्यवस्था मतदाताओं के बीच अहम मुद्दा है, तो यह संभव है कि उसके बगल के चुनावी क्षेत्र में सड़क या बिजली की समस्या मतदाताओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो। जो उम्मीदवार इन समस्याओं को सुलझाने का ज्यादा आश्वासन देता है या जिस उम्मीदवार ने इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास दूसरों की तुलना में ज्यादा किया हो, मतदाताओं का रुझान पार्टी के बजाय ऐसे उम्मीदवार की तरफ ज्यादा होता है। सर्वेक्षणों से भी यह बात साफ सामने आई है कि मतदाताओं के वोट देने का निर्णय उम्मीदवार की जात-बिरादरी, धर्म या 'उसकी पार्टी की बजाय' उसकी छवि पर ज्यादा निर्भर करता है। स्पष्ट है कि स्थानीय मुद्दों को अहमियत देने वाले उम्मीदवार मतदाताओं के बीच ज्यादा लोकप्रिय होते हैं। ऐसे बदलते माहौल में राष्ट्रीय मुद्दों का महत्व घट गया है, चाहे वह धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा हो, आतंकवाद का मुद्दा हो या फिर आर्थिक उदारीकरण की नीति का मुद्दा ही क्यों न हो? करीब दो महीने पहले 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों और फिर लोगों के आक्रोश को देखकर ऐसा लगा था कि आतंकवाद चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनकर छाएगा। परंतु मुंबई की घटना के बाद पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से प्रतीत होता है कि आतंकी हमले से आम लोगों में भले ही सरकार के प्रति नाराजगी थी, पर आतंकवाद के मुद्दे ने मतदाताओं के वोट देने के निर्णय पर शायद ही कोई असर डाला हो। सेंटर फॉर द स्टडीज़ डिवेलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा विधानसभा चुनावों में किए गए सर्वेक्षणों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि आतंकवाद विधानसभा चुनावों में चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। इसी तरह सवाल पैदा होता है कि क्या महंगाई और आर्थिक उदारीकरण आने वाले लोकसभा चुनावों में अहम मुद्दे बनकर उभर सकते हैं? बढ़ती महंगाई असल में कई चीजों का मिला-जुला प्रभाव है, जिसमें आर्थिक उदारीकरण की नीति एक कारक है। शहरों में रहने वाले, पढ़ेलिखे नौकरीपेशा लोगों को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चूंकि आर्थिक उदारीकरण की नीति से उन लोगों की माली हालत में सुधार आया है, इसलिए ये मध्यम वर्गीय मतदाता उदारीकरण की नीति के पक्षधर होंगे और चुनावों में उदारीकरण का समर्थन करने वाली पार्टी का पक्ष लेंगे। परंतु इन लोगों की बात करते वक्त गांवों में रहने वाले और पिछड़े व कम पढ़ेलिखे उन 70 फीसदी मतदाताओं को कैसे भूल सकते हैं, जिन्हें आर्थिक नीतियों में होनेवाले फेरबदलों की कम समझ है। इसलिए इसकी गुंजाइश कम ही लगती है कि आर्थिक उदारीकरण की नीति आम चुनाव में एक राष्ट्रीय मुद्दा बन कर उभरेगी। सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट है कि आज भी आम मतदाताओं को आर्थिक उदारीकरण की नीति और उसके असर की जानकारी बहुत कम है। 1996 में जब उदारीकरण नीति को देश में अपनाए हुए पांच साल पूरे हुए थे, तब सिर्फ 19 प्रतिशत मतदाताओं को ही इसकी जानकारी थी। बाद में उम्मीद थी कि इस नीति के बारे में जागरूकता बढ़ेगी, परंतु वैसा कुछ नहीं हुआ। 2007 में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक आज भी सिर्फ 28 प्रतिशत मतदाताओं को ही आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के बारे में कुछ पता है। देश के दो-तिहाई से भी ज्यादा मतदाताओं ने इसके बारे में कुछ भी नहीं सुना था। सर्वेक्षणों के आंकड़ों और मतदाताओं के अब तक के रुझानों से स्पष्ट होता है कि फिलहाल ऐसा कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, जिसे पार्टियां आम चुनावों में भुना सकें और जिसके आधार पर अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर सकें। ज्यादातर दल स्थानीय मुद्दों के सहारे ही अपनी चुनावी वैतरणी पार लगाने की कोशिश कर सकते हैं।

सुरक्षा को औरत का हक नहीं माना

साल के शुरू में ही दिल्ली से सटा नोएडा फिर सुर्खियों में आ गया है। पिछले साल हुए निठारी कांड और आरुषि कांड के बाद अब इस वहशी सामूहिक बलात्कार की घटना के कारण यह शहर फिर से चर्चा में है। आम नागरिक इस घटना से स्तब्ध है। ऐसे हालात में महिलाएं कैसे सुरक्षित रह पाएंगी? इस घटना की तुलना पत्रकार सौम्या विश्वनाथन के साथ हुए हादसे से करते हुए कोई यह भी नहीं कह सकता कि उस लड़की ने कोई दुस्साहस किया था। सौम्या की हत्या के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री ने कहा था कि आधी रात को अकेले घर से बाहर जाकर उसने दुस्साहस किया। पर नोएडा में यह छात्रा तो अपने एक साथी के साथ कार में शॉपिंग मॉल से वापस लौट रही थी। जब महिलाएं कार में सुरक्षित नहीं हैं, तो पैदल चलने वाली महिलाएं कितना भय अपने साथ लेकर चलती होंगी- इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आमतौर पर हमारे समाज में जब इस तरह की गंभीर घटनाएं सामने आती हैं, तब प्रशासन, मीडिया तथा आम जन भयानक उथलपुथल से घिर जाते हैं और परेशान नजर आते हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं पर उठे बवाल के शांत होने के बाद इनके स्थाई समाधान को लेकर कोई अधिक चिंता नहीं देखी जाती है। अगर ऐसा होता, तो इनसे निपटने के ठोस उपाय भी सोचे गए होते। अपने देश में बलात्कार के 49 हजार मामले अदालतों में लंबित पड़े हैं। बलात्कार के जितने केस दर्ज होते हैं, उनमें से 25 प्रतिशत अपराधियों को ही सजा मिल पाती है। पिछले साल इस संबंध में गृह मंत्रालय ने जो आंकड़े पेश किए थे, वे इसके सबूत हैं कि स्थिति कितनी शोचनीय है। मंत्रालय के अनुसार देश में हर दिन बलात्कार के 57 मामले दर्ज होते हैं, यानी यहां हर 25 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है। इसके अलावा प्रति मिनट 106 महिलाएं छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। ऐसे समय में, जबकि सरकार लगातार महिलाओं के सशक्तीकरण की बात कह रही है, यौन हिंसा के अलावा स्त्री विरोधी दूसरे तरह की हिंसाओं के ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं और स्थिति की गंभीरता को बताते हैं। बहरहाल, ये आंकड़े तो समस्या का नमूना भर हैं। सभी जानते हैं कि वास्तविक अपराधों की संख्या, दर्ज केसों के मुकाबले कई गुना अधिक हो सकती है। वजह यह है कि हमारे समाज में ऐसे मामले औरत की इज्जत के साथ जोडे़ जाते हैं और स्त्री की प्रतिष्ठा को बचाने के नाम पर ऐसा कुछ हो जाए तो उस पर पर्दा डालने की ही कोशिश की जाती है। उनके खुलासे से भरसक बचा जाता है। यौन हिंसा की ज्यादातर घटनाओं को इसीलिए दबाने की हर मुमकिन कोशिश होती है। दूसरे, हमारे देश में कानूनी प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि साधारण इंसान तो उसका सामना करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता है। इसके बावजूद यदि सिर्फ दर्ज मामलों पर ही गौर किया जाए, तो स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। यह मानना गलत होगा कि हर अपराधी दिमागी तौर पर बीमार होता है। कुछ अपराधी जरूर ऐसी प्रवृत्ति के हो सकते हैं, लेकिन ऐसे अपराधों का ज्यादा बड़ा कारण हमारे समाज में व्याप्त स्त्रीदोही मानसिकता है। समाज की हर इकाई के हर संस्थान में, चाहे वह परिवार हो, शिक्षण संस्थान हो या कोई भी कार्यस्थल, स्त्री कहीं भी भोग लिए जाने या इस्तेमाल की वस्तु समझे जाने से बच नहीं पाती है। ऐसा सिर्फ अपराधी प्रवृत्ति के लोग ही नहीं सोचते, बल्कि दूसरे सभ्य दिखने वाले अन्य तमाम लोगों की सोच में भी उस मानसिकता के दर्शन होते हैं। बलात्कार औरत को डराने का सबसे बड़ा हथियार है। जब जमीन संपत्ति का मसला हो, धर्म का या सांप्रदायिक दंगे का मसला हो या जब युद्ध की स्थिति हो, हर ऐसी स्थिति में महिला यौन हिंसा की शिकार होती है। असल में, नोएडा की घटना हमारे समाज की अंदरूनी बीमारी का ही प्रतिबिंबन है। हजारों महिलाएं हर साल ऐसिड अटैक की शिकार हो रही हैं, क्योंकि वे कुछ पुरुषों की इच्छा के सामने समर्पण करने से इनकार कर देती हैं। उड़ीसा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ, तो उड़ीसा के कुछ अखबारों ने इस घटना पर ही संदेह जताया। उसी तरह विदेशी टूरिस्ट स्कारलेट के बलात्कार तथा उसकी हत्या के बाद उसके चरित्र को ही लांछित करने का प्रयास किया गया। गोवा के 385 व्यक्तियों ने अपने नाम-पते के साथ अखबार में विज्ञापन दिया कि वह तो असल में एक चरित्रहीन लड़की थी। यह उन सभी 385 पुरुषों की मानसिकता का प्रतिबिंब था, जो यह मान कर चलता है कि उसे किसी भी स्त्री को चरित्र का सर्टिफिकट देने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। और यदि कोई चरित्रहीन है तो उसके साथ बलात्कार किया जा सकता है, हत्या की जा सकती है - वह कोई बड़ी बात नहीं है। कानून में संशोधन के बावजूद भारतीय जनमानस यह बात स्वीकार नहीं कर पाया है कि बलात्कार के अपराध का पीडि़ता के चरित्र से कोई लेनादेना नहीं होता। यदि महिला के साथ किसी ने यौनाचार किया है, तो इससे अपराधी का दोष कम नहीं हो जाता कि महिला के चरित्र पर कोई दाग था। जाहिर है कि ये बातें अपराध को छिपाने या अपराधी को बचाने के लिए उठाई जाती हैं। दरअसल, हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा का मामला अभी तक उनके अधिकार के तौर पर स्थापित नहीं हो पाया है। उनके साथ होने वाले अपराधों को नैतिक बुराई के रूप में लिया जाता है। मसलन, समाज का बड़ा तबका एक बलात्कारी के बारे में इस तरह सोचता है कि कुछ लोग कितने बुरे और अनैतिक हैं कि एक बेचारी स्त्री की आबरू से खेलते हैं या उसका शीलभंग कर डालते हैं। इसी तरह यौन हिंसा या बलात्कार की जगह 'दुष्कर्म' शब्द का प्रयोग अपराध की तीव्रता को कम कर देता है। महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ को तो गंभीर अपराध की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता। यदि सुरक्षित होना महिलाओं का हक माना जाता, तो प्रशासन और पूरे समाज को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ती और उनकी सुरक्षा के उपाय करने पड़ते।