Thursday, February 12, 2009

जूतों और चप्पलों कि राजनीति.................

उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश विधानसभा में जो कुछ हुआ वह नहीं होना चाहिए था। उन्होंने राज्पाल के साथ दुर्व्यवहार किया और उन्हें अभिभाषण पढ़ने से रोककर संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार किया। विपक्षी दलों को राज्य में बिगड़ रही कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार या किसानों की समस्या को उठाने का पूरा हक है, पर उसके लिए यह अवसर नहीं था। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो वे पार्टियां राज्य में कानून और व्यवस्था कायम करना चाहती हैं, लेकिन दूसरी तरफ सदन में खुद संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रही हैं। शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुई और ऐसा लगता है जैसे संक्रमण उड़ीसा और आंध्र प्रदेश तक फैल गया। तीनों के कारण अलग-अलग थे लेकिन हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण एक जैसा था।
आपको जो कुछ कहना है सदन के नियमों के अंतर्गत कह सकते हैं। किंतु धीरे-धीरे नियमों एवं प्रक्रियाओं के पालन की परंपरा खत्म होती जा रही है। यह स्थिति विधानसभाओं से शुरू होकर संसद तक पहुंच गई है। संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों की टिप्पणियां इस बात के प्रमाण हैं कि सदन के भीतर सदस्यों के हंगामों से वे कितनी बार विचलित हुए हैं। हालांकि यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि बातचीत में सभी राजनीतिक दल इस रवैये को अनुचित ठहराते हैं पर सदनों के भीतर उनका यह विचार आचरण में नहीं बदल पाता। क्या पक्ष, क्या विपक्ष- सबकी दशा एक जैसी है। जब ये सरकार में होते हैं तो विपक्ष के ऐसे रवैये की आलोचना करते हैं पर जब ये विपक्ष में आते हैं तो स्वयं उसी आचरण पर उतर जाते हैं।
राजनीतिक विरोध प्रदर्शन तो लोकतंत्र की शोभा है किंतु इसकी जगह विधानसभा नहीं हो सकती। इसके लिए आप सड़कों पर उतरिए और अहिंसक तरीके से अपना धरना-प्रदर्शन करिए। राज्य विधायिकाएं या केन्द्रीय संसद में आप गंभीर विषय बहस के लिए लाइए, अपने प्रश्नों से सरकार को कठघरे में खड़ा करिए, जन समस्याओं से जुड़े मुद्दों पर सदन का ध्यान खींचिए, सरकार को काम करने के लिए मजबूर करिए। उ। प्र. में तो आज से विधानसभा एवं विधान परिषद का सत्र आरंभ होना था। राज्यपाल परंपरानुसार दोनों सदनों को संयुक्त रूप से संबोधित करनेवाले थे। यह एक ऐसी परंपरा है जिसका हर हाल में पालन होना चाहिए था। किंतु उप्र में विपक्षी सदस्यों ने राज्यपाल तक को अपना अभिभाषण नहीं देने दिया और उन्हें कुछ मिनटों में ही इसकी औपचारिकता पूरी कर लौटना पड़ा।
जब हमारे माननीय राज्यपाल तक का अभिभाषण नहीं सुन सकते तो फिर वे अपने प्रतिस्पर्धी नेताओं की बात कैसे सुन सकते हैं। उसमें सत्तारूढ़ बसपा तथा भाजपा को छोड़कर सभी दल के विधायक शामिल थे। भाजपा ने हंगामे की जगह बहिष्कार का रास्ता चुना। वास्तव में असहिष्णुता अब राजनीतिक व्यवहार का अंग बन चुकी है। कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि उनके हाथों ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य है। कोई माइक तोड़ने की कोशिश करे, कोई सदन में काले झंडे दिखाए या फिर राज्यपाल की ओर कागज का गोला फेंके तो इन सबसे कैसा परिदृश्य बनता है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है लेकिन वह उस सीमा तक न चली जाए जहां जन प्रतिनिधि होने का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाए। हम तो यही निवेदन करेंगे कि भारी बलिदानों के बाद हमने आजादी हासिल की और हमारे आरंभिक नेताओं ने अपने आचरण से जो परंपरा कायम की, कम से कम उसे ध्वस्त न करें।