Saturday, January 31, 2009

ओबामा और मुस्लिम जगत


ओबामा और मुस्लिम जगत यद्यपि जार्ज बुश 11 सितंबर, 2001 से पद छोड़ने की तिथि 20 जनवरी, 2009 तक आतंक के खिलाफ युद्धरत रहे, फिर भी वह यह परिभाषित करने में हिचकते रहे कि युद्ध में उनका शत्रु कौन है? आतंकवाद ऐसी रणनीति है जिस पर वे लोग चल रहे हैं जिन्होंने अन्य सभी सभ्यताओं के खिलाफ युद्ध की उद्घोषणा कर रखी है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने शपथ ग्रहण संबोधन में ही शत्रुओं की पहचान करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। ये तत्व इस्लाम के कट्टर स्वरूप मेंहैं। उन्होंने इन तत्वों को यह बता दिया कि वे इतिहास के गलत पाले में खड़े हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अमेरिका उन्हें नहीं छोड़ेगा और परास्त करके ही दम लेगा। उन्होंने मुस्लिम समुदाय को आश्वस्त भी किया कि उनके साथ अमेरिका के संबंध परस्पर मान और पारस्परिक हितों के आधार पर कायम होंगे। इस बेबाक घोषणा के पश्चात ओबामा ने 26 जनवरी को दुबई के अल-अरबिया टीवी को इंटरव्यू में कहा, मेरे खुद के परिवार में मुस्लिम सदस्य हैं। मैं मुस्लिम देशों में रहा हूं..मेरा काम मुस्लिम विश्व को यह बताना है कि अमेरिका उनका शत्रु नहीं है। उन्होंने कहा कि वह अपने कार्यकाल के शुरुआती सौ दिनों के भीतर ही किसी मुस्लिम देश की राजधानी से मुस्लिम समुदाय को संबोधित करेंगे। उन्होंने अल कायदा के नेताओं-ओसामा बिन लादेन और अल जवाहिरी की विचारधारा को दीवालिया बताया। ओबामा यह वायदा भी करते हैं कि समाधान निकालने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने की अपनी वचनबद्धताओं को पूरा करेंगे। मुस्लिम समुदाय की बात सुनेंगे और अपनी बात उनके सामने रखेंगे। अपने कुछ पूर्ववर्तियों के विपरीत वह अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही फलस्तीन समस्या का हल निकालने का इरादा रखते हैं। इसलिए उन्होंने अपने विशेष दूत जार्ज मिशेल को इस अभियान पर लगा दिया है। उन्होंने ईरान के साथ वार्ता की पेशकश भी की, बशर्ते पहले वह जड़ता छोड़े। ओबामा ने कहा है, दुनियाभर में ऐसे नेताओं जो झगड़े का बीज बोना चाहते हैं या फिर अपनी तमाम परेशानियों का ठीकरा पश्चिम के सिर फोड़ना चाहते हैं, को यह जानना चाहिए कि जनता आपका आकलन आपके द्वारा किए जाने वाले निर्माण से करेगी, न कि विनाश से। ओबामा यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उग्रवादी संगठनों के हिंसा फैलाने के कारण वह पूरे पंथ को ही हिंसा का आरोपी नहीं ठहरा सकते। इसके कुछ नेता और संगठन ही जिम्मेदार हैं। उन्होंने यह उल्लेख करना भी जरूरी समझा कि अमेरिका कभी साम्राज्यवादी नहीं रहा, किंतु इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले साठ वर्षो में शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने इस्लामिक विश्व और खासतौर से मुस्लिम देशों के शासकों को नास्तिक साम्यवाद के खिलाफ इस्तेमाल किया। अपनी आबादी के बीच लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों का उभार रोकने के लिए मुस्लिम शासक तेजी से अमेरिका की तरफ झुक गए। सस्ते तेल के रूप में अमेरिका ने भी इस स्थिति का फायदा उठाया। इस्लामिक राष्ट्रों के शासकों के लिए यह सुविधाजनक था कि तमाम तरह के परिवर्तन के विरोध के लिए पंथ का इस्तेमाल करें। अन्य किसी भी पंथ की तुलना में इस्लामिक धर्मगुरुओं का वर्ग अतीत से विरासत में मिली परंपराओं पर अधिक भरोसा करता है। इस रूप में अमेरिकी और मुस्लिम जनता के बजाय शासकों के बीच संबंध पारस्परिक हितों पर ही टिके थे। ये पारस्परिक मूल्यों पर आधारित नहीं थे। दोनों पक्ष बड़ी धूर्तता से एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे। ओबामा इसे बदलने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें सत्ता भी परिवर्तन की जरूरत पर बल देने पर ही मिली है। ऊर्जा के नए स्त्रोतों के विकास के संदर्भ में संकेत मिलता है कि ओबामा तेल उत्पादक इस्लामिक देशों पर निर्भरता कम करने का प्रयास करेंगे। ओबामा इस्लामिक विश्व को संबोधित करते हुए कहते हैं कि उनके मुस्लिम रिश्तेदार हैं, वह ऐसे देश के राष्ट्रपति हैं जिसमें मुस्लिम आबादी है। वह बदलाव के ऐसे योद्धा हैं जो अमेरिका और विश्व के अन्य भागों में आम आदमी की दशा को सुधारना चाहता है, जो जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है और तेल पर निर्भरता कम करना चाहता है। इस प्रकार वह शीत युद्ध काल सरीखे रूढ़ीवादी अमेरिकी नजर नहीं आते। बुश की तरह उनका जोर लोकतंत्र पर नहीं है। वह पूछ रहे हैं कि इस्लामिक देशों की नीतियां उनकी आने वाली पीढि़यों को एक बेहतर भविष्य देंगी या नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह इजरायल को अमेरिका के सहयोगी के रूप में मानने को वचनबद्ध हैं। उनके विचार में इजरायल को अपना अस्तित्व बचाने और राकेट के हमलों से खुद की रक्षा करने का अधिकार है। दूसरे शब्दों में उनके प्रति ओबामा के मन में कोई सहानुभूति नहीं है जो आतंकवादी तरीकों से अरब-इजरायल समस्या का समाधान निकालना और इजरायल को बर्बाद करना चाहते हैं। वह मुस्लिम समुदाय से परस्पर मान और हितों के आधार पर संबंध विकसित करने की बात करते हुए भी अमेरिकी कार्यप्रणाली और नीतियों पर खेद नहीं जताते। अल कायदा ने खुद को अमेरिका का शत्रु घोषित कर रखा है और ओबामा ने अल कायदा के खात्मे का संकल्प लिया है। इसीलिए अमेरिका और नाटो अफगानिस्तान में टिकेंगे और अल कायदा का शिकार करेंगे। बहुत से लोगों की दलील है कि तालिबान अमेरिका का शत्रु नहीं है, इसलिए उसे तालिबान और अल कायदा के बीच भेद रखते हुए तालिबान से संधि कर लेनी चाहिए। जब तालिबान लड़कियों के स्कूल आग के हवाले कर देता है और अपनी खुद की गढ़ी हुई शरीयत जबरन थोपना चाहता है तो वह आस्था के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा होता है। उग्रवादी पंथ के इस खतरे का सबसे अधिक सामना विश्व के दूसरे सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान को करना पड़ रहा है। अब यह पाकिस्तान पर निर्भर है कि उसे तालिबानी इस्लामिक उग्रवाद से खुद को बचाने के लिए अमेरिकी मदद चाहिए या नहीं? ओबामा के इसी सवाल में पाकिस्तान फंस गया है।

कांग्रेस का चुनावी दाव

कांग्रेस का चुनावी दांव केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने अगले आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठजोड़ करने के स्थान पर अकेले मैदान में उतरने का जो निर्णय लिया वह उसका एक राजनीतिक दांव हो सकता है, लेकिन यदि वह यह सोच रही है कि उसे अपने दम पर सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा तो उसे निराश होना पड़ सकता है। कांग्रेस का यह निर्णय यह भी बताता है कि अधिकांश क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस भी गठबंधन की राजनीति को अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहती है। 2004 के पिछले आम चुनाव में भी कांग्रेस छिटपुट राज्यों में गठजोड़ को छोड़कर अपने बलबूते मैदान में उतरी थी, पर तब भी उसने यह उम्मीद शायद ही की हो कि उसे सत्ता में दावेदारी करने लायक सीटें मिल सकेंगी। चुनाव परिणाम सामने आने के बाद कांग्रेस ने भाजपा से अधिक सीटें जरूर हासिल कीं, लेकिन बहुमत से वह दूर ही रही। तब उसने कथित पंथनिरपेक्ष दलों को अपने साथ लाकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का निर्माण किया और पांच साल तक सत्ता में रहे इस समूह का नेतृत्व किया। ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं को देखते हुए अपनी चुनावी रणनीति को नए सिरे से निर्धारित कर रही है। वास्तव में कांग्रेस को आम चुनाव के संदर्भ में दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। एक तो संप्रग के कुछ घटक दल आम चुनाव के बाद सरकार गठन के लिए अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं-विशेषकर प्रधानमंत्री चयन के मामले में और दूसरे, स्वयं कांग्रेस नेतृत्व के संदर्भ में यह तय करने में कठिनाई का अनुभव कर रही है कि किसे आगे कर आम चुनाव में उतरा जाए? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अस्वस्थता के कारण कांग्रेस की यह परेशानी बढ़ी ही है। यह संभव है कि स्वास्थ्य कारणों से मनमोहन सिंह अगली सरकार में अपनी दावेदारी न पेश कर सकें। संप्रग के घटक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को भले ही उनकी महत्वाकांक्षा माना जाए, लेकिन गठबंधन की राजनीति में जिस तरह सिद्धांतों और आदर्शों को कोई भी राजनीतिक दल महत्व देने के लिए तैयार नहीं उससे कांग्रेस का शरद पवार की ऐसी किसी मुहिम से असहज होना स्वाभाविक है। वैसे तो कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि वह कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी तालमेल कर सकती है, लेकिन उसने जिस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठबंधन न करने का फैसला किया उससे उन क्षेत्रीय दलों के मंसूबे अधूरे रह सकते हैं जो अपनी उपस्थिति दूसरे राज्यों में दर्ज कराना चाहते हैं। अनेक ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो किसी राज्य विशेष में तो अपना व्यापक जनाधार रखते हैं, लेकिन उससे बाहर उनकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं। संप्रग में शामिल या उसके साथ नजदीकी रखने वाले ऐसे क्षेत्रीय दलों को निश्चित ही कांग्रेस की यह घोषणा रास नहीं आने वाली कि वह चुनाव के पूर्व कोई राष्ट्रीय गठजोड़ बनाने के लिए तैयार नहीं। इस संदर्भ में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का जिक्र किया जा सकता है, जो अपने जनाधार वाले राज्यों-उत्तर प्रदेश और बिहार के बाहर कोई विशेष सफलता नहीं हासिल कर पा रहे हैं। सिर्फ यही दोनों दल ही नहीं, बल्कि लगभग सभी क्षेत्रीय दल अपने को राष्ट्रीय दल के रूप में पेश करने के लिए कई राज्यों में प्रत्याशी उतारते हैं, लेकिन उन्हें मनमाफिक सफलता नहीं मिलती। अभी यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं कि क्या कांग्रेस उसी दौर में फिर से लौट रही है जब वह किसी के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार नहींथी? आखिर यह एक सच्चाई है कि कांग्रेस एक लंबे अर्से तक गठबंधन की राजनीति के यथार्थ को स्वीकार नहीं कर सकी। यह राष्ट्रीय स्तर पर उसकी शक्ति सिमटते जाने का ही परिणाम है कि उसने गठबंधन की राजनीति को न केवल गले लगाया, बल्कि अनेक क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार भी गठित की। कांग्रेस भले ही यह महसूस करे कि चुनाव में अकेले उतरने का उसका निर्णय क्षेत्रीय दलों को यह नसीहत है कि वे देश पर राज करने का सपना न देखें, लेकिन उसे इस फैसले की कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस ने यदि यह निर्णय अपनी मजबूती वाले राज्यों में सीटों के बंटवारे से बचने के लिए किया है तो उसे यह भी देखना होगा कि उन राज्यों में उसे अपेक्षित कामयाबी कैसे मिलेगी जहां उसकी स्थिति कमजोर है? चुनाव पूर्व गठबंधन से दूर रहने के कांग्रेस के दृष्टिकोण से संप्रग के घटक दलों का इसलिए भी बेचैन होना स्वाभाविक है, क्योंकि गठबंधन का कोई साझा घोषणा पत्र न होने के कारण कांग्रेस मौजूदा सरकार के सभी बेहतर कार्यों का श्रेय स्वयं लेने की कोशिश कर सकती है। आम जनता के लिए यह निर्णय करना कठिन होगा कि जो अच्छे कार्य हुए हैं उनके पीछे कांग्रेस का योगदान है या संप्रग का? वैसे तो राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के अपने भविष्य के लिए यह उचित हो सकता है कि वह अकेले चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन इससे गठबंधन राजनीति के मौजूदा दौर में उन दलों को बढ़ावा ही मिलेगा जो चुनाव बाद सत्ता पाने के लिए गठजोड़ करने की फिराक में रहते हैं। यदि कांग्रेस इस बार भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो वह उन्हीं दलों के साथ गठबंधन की अपेक्षा करेगी जिनके साथ वह चुनाव पूर्व गठबंधन करना उचित नहीं समझ रही है। चुनाव बाद गठबंधन की आड़ में जनादेश का जिस प्रकार निरादर किया जाता है उसमें यह संभव है कि वे क्षेत्रीय दल भी साझा सरकार गठित करने के लिए कांग्रेस को समर्थन दें जो चुनावों में उसके खिलाफ जीत हासिल कर आए हों। यह कुछ और नहीं, मतदाताओं के साथ खिलवाड़ ही है कि राजनीतिक दल उनसे जिस दल की नीतियों और कार्यों के खिलाफ समर्थन मांगते हैं, परिणाम आने के बाद उसी के साथ सरकार बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। विडंबना यह है कि गठबंधन की राजनीति में इस प्रकार की धोखाधड़ी से कोई भी राजनीतिक दल दूर नहीं। अकेले चुनाव में उतरने की कांग्रेस की घोषणा के प्रति संप्रग के घटक दलों की प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो, लेकिन इसमें अधिक संदेह नहीं कि चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इस संदर्भ में वामपंथी दलों के रुख पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा, जिन्होंने लगभग साढ़े चार साल तक संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दिया। इसके अतिरिक्त अन्नाद्रमुक और तेलगुदेशम पार्टी जैसी कुछ अन्य क्षेत्रीय शक्तियां भी हैं, जिन्होंने संप्रग अथवा राजग में किसी के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित नहीं किया है। जैसी कि वर्तमान राजनीतिक स्थितियां हैं, कांग्रेस और भाजपा की बात तो दूर, उनके नेतृत्व वाले संप्रग और राजग के लिए भी यह दावा करना कठिन है कि उन्हें सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा। संभवत: यही कारण है कि राजग अपना आकार बढ़ाने की कोशिश में है। गठबंधन की राजनीति में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन यह जरूरी है कि राजनीतिक दलों के बीच तालमेल किन्हीं सिद्धांतों के आधार पर हो। यदि राजनीतिक दल गठबंधन के नाम पर सिद्धांतहीन तालमेल अर्थात अवसरवादिता को बढ़ावा देंगे तो इससे न केवल राजनीति के प्रति आम जनता की अरुचि बढ़ेगी, बल्कि वे आधार भी कमजोर होंगे जिन पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है।