Saturday, March 6, 2010

महिला बिल की क्‍या जरुरत : लालू

केंद्र सरकार एक ओर, 8 मार्च यानी सोमवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पर मतदान कराने की कोशिश कर रही है तो दूसरी ओर, राजेडी के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने इस बिल का विरोध करने का मन बना लिया है। वहीं, सोनिया गांधी ने फिर दोहराया है कि आठ मार्च को महिला आरक्षण बिल पास करवाना सबसे टॉप प्रॉयरिटी पर रहेगा। वहीं, भाजपा ने इस बिल को समर्थन देने की बात कही है।

संसद में प्रवेश करते समय जब लालू से महिला आरक्षण बिल पर उनकी राय मांगी गई तो उन्होंने कहा कि देश में राष्ट्रपति से लेकर संसद की स्पीकर तक महिला है। ऐसे में इस बिल की क्या जरुरत है। लालू ने आगे कहा कि महंगाई के मुद्दे को दबाने के लिए सरकार इस बिल को पेश करना चाहती है।

दूसरी ओर, सोनिया गांधी ने बृहस्पतिवार को सुबह हुई संसदीय दल की बैठक में कहा कि महिला आरक्षण बिल सबसे टॉप प्रॉयोरिटी है। आठ मार्च को इस बिल को संसद में पेश किया जाएगा।

महिला आरक्षण बिल पर बिखर सकता है विपक्ष

संसद के बजट सत्र में महंगाई के मुद्दे पर कायम हुई विपक्ष की एकजुटता अगले सप्ताह ही टूट सकती है। सरकार 8 मार्च यानी सोमवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पर मतदान कराने की कोशिश करेगी। यह विधेयक मई 2008 में राज्यसभा में पेश किया गया था।

विधेयक के विभिन्न प्रावधानों को वाजिब ठहराते हुए संसदीय समिति की रिपोर्ट आ चुकी है। गत 25 फरवरी को केंद्रीय कैबिनेट भी विधेयक के मौजूदा प्रावधान को मंजूर कर चुकी है। राज्यसभा में पारित होने के बाद सरकार विधेयक को लोकसभा में पेश करेगी। संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने बुधवार को पत्रकारों के पूछने पर इस संबंध में सरकार की रणनीति पर रोशनी डाली।

जानकारों का कहना है कि यह रणनीति कामयाब हुई तो सरकार को दोहरी सफलता हाथ लगेगी। एक तरफ, लंबे समय से लटका महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाएगा और दूसरी तरफ यूपीए के दूसरे कार्यकाल में पहली बार कायम हुई विपक्ष की एकजुटता टूट जाएगी।

कांग्रेस की कोर-कमेटी की उच्चस्तरीय बैठक में बनी इस खास रणनीति के चलते केंद्र सरकार महिला आरक्षण विधेयक को लेकर अचानक तेजी से हरकत में आई। इसी क्रम में अगले सप्ताह सोमवार को राज्यसभा में विधेयक पर चर्चा का प्रस्ताव सामने आया। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने राज्यसभा के उच्चधिकारियों से इस बात पर विचार-विमर्श भी किया। कार्यमंत्रणा समिति के फैसले के बाद इसकी विधिवत घोषणा की जाएगी।

सरकार को मालूम है कि कुछ दल महिला आरक्षण विधेयक का विरोध कर सकते हैं। इसके बावजूद वह अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है, क्योंकि इस मामले में विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है। भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दल इस विधेयक का समर्थन करने को तैयार हैं। लेकिन, समाजवादी पार्टी , राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी और लोजपा आदि दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान के साथ विधेयक पेश करने की मांग कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सरकार ने विधेयक के मौजूदा प्रारूप में संशोधन से इनकार कर दिया है। मौजूदा विधेयक में संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है।

पहले भी हो चुके हैं प्रयास

एच डी देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार ने सन 1996 में लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था, लेकिन स्वयं उनके सहयोगी दलों ने इसे मंजूरी देने से इनकार कर दिया था। तब से लोकसभा में कई बार इस विधेयक को पेश करने और पारित कराने की कोशिश की गई, लेकिन किसी सरकार को सफलता नहीं मिली।

Thursday, July 9, 2009

गे समाज के जय हो ..........


हमारे समाज में समलैंगिकता एक टैबू - एक वर्जना है। कोई भी व्यक्ति प्राय: खुलेआम इस बात को स्वीकार नहीं करेगा। इसकी एक वजह है भारतीय दंड संहिता की धारा 377 जिसके अंतर्गत समलैंगिक संबंध रखना जुर्म है। यह व्यवस्था अंग्रेजों की देन है जिन्होंने अपने यहां तो इससे कभी की मुक्ति पा ली है लेकिन हम इसे ढो रहे हैं। समलैंगिकता पर एक नजरिया धार्मिक है, जो ऐसे सभी अप्राकृतिक यौन संबंधों को पाप मानता है। दूसरा नजरिया वैज्ञानिक है। आज हमें मालूम है कि कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक होते हैं या कहिए उनका विकास उस तरह हुआ होता है। हर सभ्यता में ऐसे लोग रहे हैं और अनेक जीव-जंतुओं में भी ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। मसलन पेंग्विन। इसलिए दो वयस्क लोग अगर आपसी सहमति से साथ रहना या संबंध बनाना चाहते हैं तो समाज को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? हां, इस बात की मुकम्मल व्यवस्था समाज और सरकार को करनी चाहिए

और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंकि किसी भी बच्चे का कोई शोषण न कर सके। धारा 377 से संबंधित दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला सिर्फ सहमति पर आधारित वयस्क संबंधों पर ही लागू होता है। यह फैसला एक तरह से हमारे वयस्क हो रहे लोकतंत्र की सभी नागरिकों को अपने में शामिल करने, उन्हें बराबरी का दर्जा देने और गरिमा के साथ जीने की दलील देता है और अब गेंद सरकार के पाले में है कि वह क्या करती है। कई देशों में गे लोग आपस में शादी कर सकते हैं और बच्चे गोद ले सकते हैं। इस फैसले से हमारे यहां भी वयस्क समलैंगिक सिर उठाकर जी सकेंगे। उनका नया नारा है : जय हो, गे हो। लेकिन सरकार के लिए इस फैसले से पैदा हुई स्थिति से निपटना आसान नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली और स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने एक बैठक में इस प्रश्न पर विचार किया है लेकिन लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और कुछ अन्य नेताओं के तेवरों को देखते हुए लगता है कि सर्वानुमति बनाना मुश्किल साबित होगा। देश की अधिकांश जनता निरक्षर है (साक्षरता का अर्थ इतना है कि अनेक लोग अंगूठा लगाने की बजाय अब अपना नाम लिखना सीख गए हैं)। अमेरिका और यूरोप के देशों में लोग अपना सेक्सुअल रुझान बताने में नहीं झिझकते। मसलन मशहूर टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा लेस्बियन रही हैं। अनेक राजनैतिक कार्यकर्ता और जन प्रतिनिधि भी इसी जमात से आते हैं। यही कारण है कि पश्चिम में एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) के अधिकारों के प्रति समाज में सहानुभूति है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान एलजीबीटी के नाम एक खुला पत्र लिखकर वादा किया था कि अगर वे जीते तो समलैंगिक शादियों को मान्यता दिलाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेंगे। उन्हें इस जमात का समर्थन भी मिला। भारत में अगर मान लीजिए पांच-सात करोड़ लोग भी इस वर्ग के हों, तो आगे चलकर वे एक वोट बैंक में तब्दील हो सकते हैं। लेकिन भारत में गुजरात की एक पूर्व रियासत के युवराज को छोड़कर (मानवेंद्र सिंह गोहिल) कोई भी बड़ी पब्लिक फिगर अपने सेक्स रुझानों के बारे में बताने के लिए आगे नहीं आई। हमारे यहां अभी सिर्फ सिविल सोसायटी में ही इस वर्ग के प्रति थोड़ी-बहुत सहानुभूति बनी है। ज्यादातर लोग इस प्रश्न पर बात भी नहीं करना चाहते। पता नहीं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई है या कि डार्विन के अनुसार इवोल्यूशन के सिद्धांत पर अस्तित्व में आई है, मगर कहीं न कहीं है कुछ विचित्र गड़बड़झाला। अधिसंख्य प्राणियों में काम और सन्तानोत्पत्ति की एक-सी प्रक्रिया है। फिर एक बहुत ही छोटे से वर्ग में कोई स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति या कोई पुरुष दूसरे पुरुष के प्रति ही आकर्षित क्यों होता है। कहते हैं, सुकरात जैसा महान दार्शनिक भी समलैंगिक था जबकि बाबर ने अपने प्रसिद्ध 'बाबरनामा' में ऐसे बड़े लोगों का उल्लेख किया है जो अपने घरों में बीसियों लौंडे रखते थे। बाबर ने उन्हें फटकारा है। इसलिए कि यह अप्राकृतिक माना जाता था। आज भी माना तो इसे अपवाद ही जाएगा लेकिन अगर दो लोग आपस में खुश हैं तो समाज को कोई हक भी नहीं कि वह उनके साथ भेदभाव करे। वे अगर ऐसे हैं तो इसमें उनका कोई दोष भी तो नहीं। वे अपने हॉर्मोन के कारण, जेनेटिक कारण और माहौल के कारण ऐसे हैं और ऐसे ही रहेंगे। उनका कोई इलाज नहीं हो सकता, जैसा कि स्वामी रामदेव दावा कर रहे हैं। उन्हें ऐसे ही स्वीकार करना होगा। जहां तक प्रतिभा की बात है, वे किसी से कम नहीं होते। जैसे कि खब्बू लोग। जिस तरह समलैंगिकों का एक वर्ग है, उसी तरह पैदल चलनेवालों का भी एक वर्ग है। बहुत बड़ा वर्ग। लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। उनके अधिकारों की कोई बात नहीं करता। क्योंकि एक तो वे गरीब हैं और दूसरे असंगठित। महानगरों की फुटपाथों पर, सड़क पार करते हुए या साइकल चलाते हुए इस वर्ग के सैकड़ों लोग हर साल मारे जाते हैं लेकिन आप विडंबना देखिए कि सिविल सोसायटी उनके बारे में कतई नहीं सोचती। पिछले दिनों दिल्ली के मयूर विहार के निकट एक स्त्री को किसी वाहन ने कुचल डाला। पुलिस जब तक आई महिला का शव पहचाने जाने की स्थिति में नहीं था। क्षत-विक्षत। पुलिस का कहना है कि टक्कर लगने के बाद जब महिला सड़क पर गिरी तो उसे किसी ने नहीं उठाया और अनेक गाडि़यां उसे कुचलते हुए गुजरती रहीं। राजमार्गों पर प्राय: आपने कुत्तों की लाश के ऐसे चिथड़े उड़ते हुए देखे होंगे। तो क्या दिल्ली में एक गरीब महिला कुत्ते से भी कमतर हो गई? दिखावा करने और भागमभाग में रहनेवाले इस शहर में अगर कोई आदमी सड़क पर टक्कर खाकर गिर जाए और आप अपना स्कूटर या गाड़ी रोककर उसे उठाना चाहें तो पीछे से आ रही कारें हॉर्न बजा-बजाकर कहेंगी कि हटो बीच से। दया करनी है तो सड़क के एक किनारे होकर करो। हमें क्यों लेट कर रहे हो। वे गालियां तक दे देते हैं। ज्यादातर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय लोग ही मदद को आगे आते हैं जैसे राजमार्ग पर कोई दुर्घटना हो या रेल दुर्घटना हो तो गांव वाले आगे आते हैं। दिल्ली के ज्यादातर लोग हृदयहीन होते जा रहे हैं। गरीबों के प्रति तिरस्कार का भाव। मानो गरीब होना कोई जुर्म हो। इसलिए उनके कुचलकर मरने की खबर भी कोई बड़ी खबर नहीं बनती। और गरीबी इतनी अधिक और इतनी तरह की है कि गरीब लोगों का कोई संगठन नहीं है। उनकी आवाज कौन उठाएगा?

लालगढ़ में लाल लड़ाई


लालगढ़ कांड
की प्रस्तावना का पहला शब्द नंदीग्राम है। 24 परगना के इसी जिले में भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों के बीच सबसे पहले रोष फैला था। माओवादियों ने राजनैतिक कार्यकर्ताओं की आड़ में प्रतिरोध का नया व्याकरण रचा और नतीजा सबके सामने है। मगर लालगढ़ तक आते - आते माओवादी नेपथ्य से निकलकर मंच पर आ चुके थे। इसकी वजह कई गिनाई जा सकती हैं। उड़ीसा और झारखंड की नक्सल बेल्ट से यह इलाका बेहतर तरीके से कनेक्टेड है , इसलिए कैडर मूवमंट में आसानी थी। घोर गरीबी और सीपीएम की गुंडागर्दी के कारण आदिवासियों में असंतोष था। 2007 के बाद माओवादियों ने दूसरी तथाकथित फासिस्ट पार्टियों के बजाय सीपीएम के ऊपर अपनी रणनीति केंद्रित कर दी थी। मगर इन तमाम वजहों के बीच सबसे बड़ा सच यही है कि वेस्ट बंगाल सरकार अपनी राजनैतिक सुविधा के नाम पर माओवादियों की तरफ ध्यान देकर भी चुप रही। हथियारों की भाषा बोलने वालों ने खुले आम इंडियन स्टेट को चैलिंज किया और इस सबमें गरीब आदिवासी ढाल की तरह इस्तेमाल हुए। लेफ्ट ने इस बीच कभी टीएमसी पर निशाना साधा तो कभी केंद्र के पाले में गेंद उछाली। मगर उन मूलभूत सवालों के जवाब खोजने की कोशिश नहीं की , जिनकी वजह से इसके गढ़ हाथ से निकलते जा रहे हैं। कार्रवाई में देरी का सबब ऐसा कम ही होता है कि किसी इलाके में तैनात पुलिस अफसर के मातहत काम करने वाले जवान कैंप छोड़कर चले जाएं और अफसर को एक घंटे बाद मीडिया के जरिए इसकी खबर पहुंचे। मगर लालगढ़ में डिप्टी एसपी ऑपरेशंस अरनब घोष के साथ ऐसा ही हुआ। घोष एक प्रतीक भर हैं। माओवादियों से निपटने में राजनैतिक इच्छाशक्ति की इतनी कमी रही कि तमाम अफसरों से इस बारे में पूछने पर एक ही जवाब मिलता है , हम कुछ नहीं जानते , राइटर्स बिल्डिंग के पास ही सारे सवालों के जवाब हैं। छह दिनों तक राज्य के चीफ सेक्रटरी अशोक मोहन चक्रवर्ती यही कहते रहे कि हर मुमकिन प्रयास किए जा रहे हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि वेस्ट बंगाल में प्रशासन नाम की कोई चीज ही नहीं है और सीपीएम कैडरों की सत्ता खत्म होते ही राज्य में कानून ? का राज नहीं रह जाता। दरअसल नंदीग्राम की वजह से सीपीएम को इतना राजनैतिक नुकसान उठाना पड़ा कि वह प्रतिरोध शब्द सुनते ही चौकन्नी हो उठी। माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर जब आदिवासियों का उत्पीड़न हुआ , तो उन्होंने पुलिस प्रतिरोध समिति बना ली। लेफ्ट को लगा कि मिदनापुर में एक और नंदीग्राम बनाने की तैयारी हो रही है। साथ ही लेफ्ट को भरोसा रहा कि इस स्ट्रॉन्गहोल्ड में उनके अपने कैडर ही हालात से निपट लेंगे। मगर माओवादी लगातार अपनी स्थिति मजबूत करते रहे और लेफ्ट कैडरों के आक्रामक होने से पहले ही उन्होंने धरमपुर और दूसरे इलाकों में धावा बोल दिया। स्थिति हाथ से जाने के बाद राज्य सरकार केंद्र के पाले में गेंद फेंकने में जुट गई। जब केंद्र सरकार ने अपना रवैया साफ कर दिया और कहा कि कार्रवाई राज्य सरकार को ही करनी होगी , तब ऑपरेशन लालगढ़ की तैयारियां शुरू हुईं। सालबोनी में लैंड माइन अटैक के बाद भी वेस्ट बंगाल प्रशासन के कान नहीं चेते। उस घटना के वक्त डीजीपी रहे ए . बी . वोहरा ने पार्टी लाइन पर चलकर अपने कार्यकाल को निपटाया। उस वक्त वेस्ट मिदनापुर के एसपी अजय नंद थे , जिन्होंने माओवादियों से निपटने के लिए स्थानीय मुखबिरों की मदद से एक ब्लूप्रिंट तैयार किया था। नंद को कहा गया कि स्थानीय सीपीएम दफ्तर में आएं और पार्टी के पदाधिकारियों के साथ वह ब्लूप्रिंट डिस्कस करें। नंद ने इनकार कर दिया और उनका ट्रांसफर नांदिया कर दिया और फिलहाल वह प्रतिनियुक्ति पर हैदराबाद में हैं। ठीक इसी तरह से वेस्ट मिदनापुर के मौजूदा एसपी मनोज वर्मा भी फंसे हुए हैं। उनको काबिल आईपीएस अफसर माना जाता है , लेकिन उनके सुझावों पर कान देने के लिए राइटर्स बिल्डिंग में कोई तैयार ही नहीं है। प्रशासन बना सेकंडरी लाइन वेस्ट बंगाल के शहरी इलाकों को अगर छोड़ दिया जाए , तो ग्रामीण इलाकों में सीपीएम कैडर का फरमान ही प्रशासन का फरमान होता है। राशन कार्ड हों या कोई दूसरी जरूरत प्रशासन सीपीएम यूनिट के निर्देश पर ही काम करता था। राजनैतिक टिप्णीकारों के मुताबिक पार्टी के दिवंगत राज्य सचिव अनिल बसु का मानना था कि प्रशासन में आने की पहली योग्यता राज्य सरकार के राजनैतिक लक्ष्यों के प्रति समर्पण होना चाहिए। इसी वजह से लालगढ़ और दूसरे इलाकों में सीपीएम कैडर के ढेर होते ही अराजकता की स्थिति मच गई। 70 के दशक में सत्ता में आने के बाद से सीपीएम ने अपना विस्तार इतना आक्रामक होकर किया कि इसकी सहयोगी पार्टियों मसलन फॉरवर्ड ब्लॉक और सीपीआई को भी नए इलाकों में नहीं पनपने दिया गया। इसी एकाधिकार के कारण अब आदिवासी हों या सामान्य किसान सभी के गुस्से का शिकार सीपीएम हो रही है। माओवादियों की कार्रवाई को देखने से यह साफ होता है कि इन आदिवासी इलाकों में रहने वाले सीपीएम कैडर हथियारों से लैस थे। परोक्ष सत्ता स्थापित करने में यह तथ्य मददगार साबित होता था। इसीलिए माओवादियों ने इन कैडरों को साफ कर दिया कि अगर अपने घर और जमीन पर वापस लौटना है , तो न सिर्फ पुलिस प्रतिरोध समिति के साथ अपनी संबद्धता स्थापित करनी होगी , बल्कि अपने हथियार भी सरेंडर करने होंगे। धरमपुर में तकरीबन 4 हजार लोग वापस आ गए। उनका कहना है कि हमारी सीपीएम से जुड़े नेता या तो मारे गए या भाग गए , ऐसे में हम कहां जाएं। कई सीपीएम कैडरों ने अपने हथियार भी इस कमिटी के सामने सरेंडर कर दिए। माओवादी आक्रोश की यह भाषा बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। सीपीएम दफ्तरों को ढोल और क्रांति के नारों के शोर के बीच आग के हवाले करते आदिवासी दशकों की उपेक्षा का बदला ले रहे हैं। ये सब काम जिस माओवादी दस्ते के अधीन हुआ , उसके नायक हैं कंधे पर ए . के . 47 टांगे बगावत का ऐलान करते बिकास। बिकास माओवादी जनवादी लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के सदस्य हैं। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने गर्वपूर्वक कहा कि यहां जमीन तैयार हो चुकी है और हमारा इंतजार कर रही है। मुहावरेदार भाषा का इस्तेमाल करते हुए बिकास कहते हैं कि बच्चा पैदा हो चुका है और हम इस काम में सिर्फ नर्स की भूमिका अदा कर रहे हैं। माना जा रहा है कि बिकास उन 400 गुरिल्ला लड़ाकों में से एक हैं , जिन्होंने लालगढ़ ऑपरेशन को अंजाम दिया। पुलिस सूत्रों के मुताबिक इन लड़ाकों की फौज 6 जून को लालगढ़ में इस ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए घुसी। इनमें से 100 लड़ाकों के पास अत्याधुनिक स्वचालित हथियार हैं। राजनीति के रंग वेस्ट बंगाल में सभी राजनैतिक दल अगले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर कदम उठा रहे हैं। कांग्रेस ने जब राज्य सरकार की अक्षमता पर सवाल उठाते हुए सत्ता छोड़ने की सलाह दी , तो लेफ्ट ने नरमी से प्रतिक्रिया दी। लेफ्ट की पूरी कोशिश रही कि मामला इतना लंबा खिंचे कि माओवादी खुद ही टीएमसी को उघाड़ने लगें और ऐसा ही हुआ भी। यहीं सीपीएम की इंतजार करो की रणनीति कुछ सफल होती दिखी जब माओवादी नेताओं बिकास और किशनजी ने कहा कि नंदीग्राम में हम टीएमसी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर लड़े। जाहिर है कि शहरी वर्ग के बीच खुद को विक्टिम बताकर सीपीएम को फिर से पनपने का मौका मिल सकता है। उधर नैतिकता की नाव पर सवाल ममता फिलहाल चुप्पी साधे हैं। दरियाफ्त करने पर उनके दफ्तर से जवाब मिलता है कि मैडम रेल बजट में बिजी हैं। सीपीएम ने गरीबों की बात करके राजनीति शुरू की , लेकिन बुद्धदेव के आने के बाद से पार्टी नई पीढ़ी का हवाला देकर औद्योगिकीकरण की नीति अपना रही है। इस वजह से न सिर्फ आदिवासी और सीमान्त इलाकों में बसे लोग , बल्कि पार्टी को सपोर्ट देते रहे बुद्धिजीवी भी लेफ्ट फ्रंट से बिदकने लगे। खुद सीपीएम के कैडर भी मानते हैं कि नरेगा से लेकर तमाम मुद्दों पर सरकार की तरफ से गलतियां हुई हैं। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में मुस्लिमों की दशा सबसे ज्यादा खराब है। फिलहाल राज्य के 17 जिले ऐसे हैं , जहां खेती ही जीविका का मूल आधार है। इन जिलों के 60 फीसदी घरों में बीपीएल कार्ड है और 99 फीसदी परिवारों के घर राशन का ही चावल - गेंहू आता है। जाहिर है कि जब अन्न का स्त्रोत सीपीएम के प्रति वफादारी हो , तो खुलकर बगावत कौन करे। इसी असंतोष को माओवादियों ने कैश कराया। टीएमसी उग्र वाम के बूते सत्ता समीकरण साधती रही , लेकिन अब उन्हें भी शहरी जनता को जवाब देना होगा कि आखिर माओवादियों के साथ उनके किस तरह के संबंध हैं। वैचारिक आधार पर ममता की अपनी कोई खास पहचान नहीं। वह सिर्फ लेफ्ट फ्रंट के प्रतिपक्ष का चेहरा हैं। उनकी भाषा वाम राजनीति के कोष से ही आती है। ऐसे में माओवादियों का असर बढ़ने पर ममता सिर्फ प्यादे की भूमिका में रह जाएं , तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। राजनैतिक नियंत्रण की लड़ाई में ममता उसी दिन से पिछड़ने लगीं , जब माओवादी नेताओं ने खुले आम मीडिया में बयान देने शुरू कर दिए। माओवादी नेता कोटेश्वर राव ने साफ कर दिया कि लालगढ़ के मसले पर ममता अपना रुख साफ करें , वर्ना जनता उन्हें भी सबक सिखाने को तैयार है। ममता अब तक नंदीग्राम और तमाम दूसरी जगहों पर होने वाले आंदोलन को जनप्रतिरोध कहती रही हैं। लेकिन अब उन इंटेलिजंस रिपोर्टों को भी जमीन मिल गई है , जो आंदोलनकारियों के बीच माओवादी तत्वों की उपस्थिति का संकेत देती रही हैं। उधर कांग्रेस सेफ गेम खेल रही है। राज्य के नेता लेफ्ट को घेरे में ले रहे हैं , तो केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करना चाह रही है कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई राज्य सरकार करे और अपने रिस्क पर करें क्योंकि हालात बिगड़ने के लिए भी वही जिम्मेदार है। गृह मंत्री पी . चिदंबरम ने साफ कहा कि वेस्ट बंगाल के पास उचित संख्या में पुलिस बल हैं और उन्हें अभियान की अगुवाई करनी चाहिए , जैसा कि वे कर भी रहे हैं। चिदंबरम ने हालांकि , इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि राज्य सरकार माओवादियों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा रही है जैसा कि कई अन्य राज्य सरकारों ने किया है। मगर इस सारी राजनैतिक कसरत के बीच किसी कैडर का शव आठ दिनों से सड़ रहा है , तो कोई गरीब आदिवासी औरत अपने ही राज्य की पुलिस के खिलाफ निहत्थी लड़ रही है। राजनैतिक पार्टियां नहीं बतातीं कि राज्य की बदहाली दूर करने के लिए उनके पास क्या राजनैतिक कार्यक्रम हैं।

Tuesday, April 28, 2009

मुद्दा : विकास की राह से दूर ग्रामीण महिलाएं..........


देश की करीब 70 फीसद आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। उसमें से अधिकतर लोग कृषि कार्यों पर निर्भर रहकर जीवन-यापन करते हैं। इनमें से आधी आबादी यानी महिलाएं घर गृहस्थी संभालने के साथ-साथ कृषि कार्यों में हाथ बटांती हंै। उनकी इस महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। घर से खेती तक तथा खेत-खलिहानों से गोदामों तक सभी कार्यों में उनकी बराबरी की हिस्सेदारी है। यह अलग बात है कि इतना होने पर भी उनकी कोई खास पहचान नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था की चाबी प्राय: पुरूषों के हाथों में है। अत: वे तरक्की की राह पर नहीं बढ़ पातीं। उनकी राह में अशिक्षा, अनभिज्ञता, उदासीनता, अंधविश्वास आदि रोड़े का काम करते हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्र विकास में अपनी छिपी भूमिका रखने वाली इन महिलाओं के सशक्तीकरण पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए उनकी शिक्षा का समुचित प्रबंध करना आज की जरूरत है।असल में शहरी क्षेत्रों में तो महिलाओं के लिए अनेक अवसर उपलब्ध होते हैं। वे अपने लिए नए रास्ते आगे बढ़ सकती हैं परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में न तो ऐसी परिस्थितियां मौजूद हैं और न ही उन्हें इतना अधिकार है कि वे स्वतंत्र माहौल में रहकर शिक्षा ग्रहण करें या करियर के बारे में सोचें। जरूरी है कि उन्हें जागरूक बनाकर उनके रास्ते की बाधाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई जाए। कृषि कार्यों के दौरान भी उनकी शिक्षा का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए ताकि उनमें अधिक जागरूकता बढ़े तथा वे और अधिक सृजनात्मक तरीके से कार्य कर सकें। उनके लिए समय व श्रम बचाने वाली तकनीकी जानकारी सरल भाषा में रोचक ढंग से उन तक पहुंचने का प्रबंध होना चाहिए।देश में कुल महिला श्रमबल का प्रतिशत 23 है जबकि कृषि कार्यों में लगभग 55-60 फीसद है। पहाड़ी क्षेत्रों में तो लगभग 75 फीसदी कृषि कार्य महिलाएं ही करती हंै। हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, प.बंगाल, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आदि पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं ही खेतीबाड़ी संभालती हंै। अन्य जगहों पर भी महिलाएं खेती संबंधित कार्यो में हाथ बटांती हैं। ऐसे में सरकार को भी इनके लिए आवश्यक सुविधाओं का प्रबंध करना चाहिए ताकि इनमें और अधिक विश्वास और कार्यक्षमता का विस्तार हो सके। वैसे सरकार की तरफ से रेडियो व टेलीविजन के माध्यम से इनके लिए लगातार जागरूकता कार्यक्रम प्रस्तुत होते रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप कृषि से संबंधित जानकारी का फायदा इन तक पहुंचाया जा रहा है। कुछ क्षेत्रों में तो इनके सकारात्मक परिणाम दिखने भी लगे हंै पर इतना काफी नहीं है। दूर-दराज के इलाकों में ज्यादा ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है ताकि अंधेरे में आशा की रोशनी जलाई जा सके।सर्वविदित है कि हमारी जनसंख्या में आधा हिस्सा महिलाओं का है और वे देश के विकास में पुरूषों के बराबर ही महत्व रखती हंै। स्वतंत्रता के पूर्व ग्रामीण महिलाओं की स्थिति शोचनीय थी। महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी एवं परंपरागत सोच ने उन्हें चारदीवारी तक सीमित रखा परन्तु अब उन्होंने दायरे को तोड़कर बाहर निकलने की कोशिश की है। कृषि कार्यों के साथ-साथ महिलाओं ने बड़ी तादाद में घरेलू दायित्वों के अतिरिक्त कारखानों, बागानों, खदानों, डेरी, पशुपालन, पोल्ट्री-फार्म, चाय बागान, रेशम कीट-पालन तथा कृषि से संबंधित लघु उघोगों मे भी योगदान कर रही हैं। कृषि कार्यों में प्रत्यक्ष योगदान के बावजूद भी उन्हें कृषक श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि वे कृषि में सभी प्रकार के कार्य करती हैं। महिलाओं के प्रत्यक्ष योगदान एवं सक्रिय भागीदारी से अनेक क्षेत्रों में पैदावार बढ़ाने में भी मदद मिली है।कृषि मंत्रालय ने इनके विकास के लिए अनेक योजनाओं के माध्यम से सशक्तीकरण कार्यक्रम चला रखे हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति में सुधार आ रहा है। देश में लगभग 500 से ज्यादा कृषि विज्ञान केन्द्र कार्य कर रहे हैं। इनके द्वारा ग्रामीण विकास हेतु कृषि कार्यों में संलग्न महिलाओं के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। आवश्यकता है ग्रामीण महिलाओं को आगे बढ़कर पहल करने तथा रूचि लेकर लाभ उठाने की। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि किसान परिवार की आम महिलाएं यह जान सकें कि स्वच्छता, समुचित शिक्षा, पोषण, वैज्ञानिक द्वष्टिकोण आदि से जागरूकता बढ़ती है और विकास कार्य के लक्ष्य की प्राप्ति बिना महिलाओं की भागीदारी के अधूरी है।वैश्वीकरण के इस दौर में महिलाए कृषि कार्यों में रीढ़ का काम करती हैं। जितनी तेजी से महिलाओं का विकास होगा उतनी ही तेजी से सामाजिक विकास होगा तथा एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण होगा। अत: महिलाओं के विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि कृषि कार्यों के साथ-साथ वे अन्य क्षेत्रों में भी उतनी ही भागीदारी निभा सकें।

राजनीतिक कलाबाजी..................

चुनाव समाप्त होने के पूर्व ही राजनीतिक दलों द्वारा अगली सरकार को लेकर की जा रही बयानबाजी वास्तव में ऐसी अशोभनीय राजनीतिक कलाबाजी है जिसकी आलोचना किए जाने की आवश्यकता है। यह कलाबाजी ज्यादातर संप्रग के पूर्व घटकों, कांग्रेस एवं वामपंथी दलों की ओर से ही प्रदर्शित की जा रही है। कांग्रेस ने पहले राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव पर टिप्पणी की तो लालू ने उसका जवाब यह कहकर दिया कि उनका तो वामपंथियों से पुराना रिश्ता रहा और उनके लिए हमेशा दरवाजा खुला है। उनके नए-नए मित्र बने रामविलास पासवान ने भी उनकी हां में हां मिला दी। माकपा तो लगातार यही साबित करने की कोशिश कर रही है कि चुनाव के बाद कांग्रेस या भाजपा के नेतृत्व में सरकार गठित होने की कोई संभावना नहीं है और जो दल उनके साथ हैं वे भी हालात देखकर तीसरे मोर्चे के साथ आ जाएंगे। इसके विपरीत जो भी बातें सामने आतीं हैं माकपा तुरत उसका खंडन कर अपनी इस स्थापना को दुहराती है। इन कलाबाजियों में अगले प्रधानमंत्री पर भी चर्चा शामिल है। ऐसी चर्चा जब आप करेंगे तो प्रधानमंत्री पद का प्रश्न उठेगा ही और इसी प्रक्रिया में माकपा महासचिव प्रकाश करात का नाम बतौर प्रधानमंत्री उछल गया। हालांकि उन्होंने अगले दिन इसका खंडन कर दिया। किंतु इससे आम मतदाता के मन में कई प्रकार के संशय उभरने लगे हैं। इसमें सबसे बड़ा प्रश्न राजनीतिक नैतिकता का है। इनकी कलाबाजी से संदेश यह निकल रहा है कि इस समय चाहे कोई दल किसी के साथ गठजोड़ करके चुनाव लड़ रहा हो सरकार बनाने में उनका साथ रहना आवश्यक नहीं है। वे राजनीतिक परिस्थितियां बदलते ही अपनी निष्ठा बदलकर जिधर ज्यादा संख्याबल होगा, उधर मुड़ जाएंगे। ऐसे में मतदाता के सामने बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि तो फिर मत किसे दिया जाए? जो आज साथ है उसके आगे रहने की गारंटी ही नहीं है और विजय का लाभ उठाकर वह अपना पाला बदल देगा तो फिर उसे मत दिया क्यों जाए? मतदाता यदि गठजोड़ या चुनावी तालमेल के साथी के तौर पर किसी दल या उम्मीदवार को मत देता है तो उसकी अपेक्षा यही है कि वह उसका सम्मान करे। यानी पाला न बदले। किंतु वामदलों और संप्रग के पूर्व एवं वर्तमान साथी दलों के रवैये से मतदाता की इस स्वाभाविक अपेक्षा की खिल्ली उड़ रही है। इससे बड़ी राजनीतिक अनैतिकता और क्या हो सकती है कि जिस दल या गठजोड़ के खिलाफ आप आग उगल रहे हैं, कल उनसे ही यह उम्मीद करते हैं कि वह अपनी धारा बदलकर आपके साथ आ जाए! वामदलों का रवैया उन दलों को एक प्रकार से अपने साथ आने का निमंत्रण देने वाला है। अगर ये राजनीति की बची-खुची प्रतिष्ठा की रक्षा करना चाहते हैं तो अपना रवैया बदलें एवं मतदाताओं की भावनाओं का सम्मान करें।

Monday, April 6, 2009

लोकतांत्रिक ताकतों को मिले मजबूती

लाहौर के पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर हमले से एक बार फिर साफ हो गया है कि पाकिस्तान पर आतंकवादियों की पकड़ मजबूत हो गई है। अब तक पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांत और कराची जैसे शहरों में ही आतंकवादियों का रूतबा था लेकिन लाहौर पर लगातार हो रहे हमलों से पता चलता है कि पूर्वी प्रांत पर भी उनकी मजबूत पकड़ बन गई है। पाकिस्तान में जहां भी आतंकी हमले हो रहे हैं, उसके लिए वहां की राजनीति और सत्ता पर मौजूद लोगों की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। आज भी वहां शीर्ष स्तर पर आतंकवाद को जांचने या उस पर अंकुश लगाने की ठीक से कोशिश नहीं की जा रही है। मुंबई हमलों के दोषियों के संबंध में पाकिस्तान ने जो कुछ भी कहा, वह सारे विश्व के सामने है। खुद अपने यहां हो रहे आतंकी हमलों को लेकर भी उसकी जांच प्रक्रिया में ढिलाई बरती जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो श्रीलंकाई खिलाड़ियों पर हुए हमले के दोषी अब तक जरूर पकड़े गए होते। दरअसल पाकिस्तान में आतंकवादी समूहों को फलने-फूलने का पूरा मौका दिया गया। यहां तक कि सीमा पर जाकर अफगानिस्तान जैसे देशों में भी आतंकवादियों को उसने मदद पहुंचाई। अब यही आतंकी समूह इतने मजबूत हो गए हैं कि सरकार को खुली चुनौती देने लगे हैं और सरकार भौंचक मुद्रा में है। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि वहां की सरकार अब भी आतंक मिटाने को लेकर प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही। सेना, नौकरशाह और सरकार में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनकी सहानुभूति लश्करे तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और तालिबान जैसे संगठनों से है।सवाल यह है कि किया क्या जाए? जिस विष बेल को उसने खुद रोपा था, उसके समूल नाश के लिए भी उसे ही आगे बढ़ना होगा। अमेरिका जैसा देश कुछ नहीं कर सकता। वह तो बस अपनी रोटी ही सेंक सकता है। फिर आतंकवाद के खिलाफ वह पाकिस्तान की नहीं, अपनी लड़ाई लड़ रहा है। पाकिस्तान में सबसे जरूरी है कि लोकतांत्रिक शासन को अहमियत दी जाए। जिस तरह का लोकतंत्र अभी वहां है, वह उसकी जरूरत नहीं है। वहां की जरूरत शासन में स्थिरता की है। शासन में सेना-आईएसआई का प्रभाव कम से कम होना चाहिए। अभी जो स्थिति है उसमें गिलानी, शरीफ और जरदारी जैसे लोग जिस तरह की उदार लोकतांत्रिक शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, वह दिन ब दिन हाशिये की आ॓र बढ़ रही है। कुछ दिनों पहले चले नवाज शरीफ के अभियान के समय तो ऐसा लग रहा था कि शासन की बागडोर फिर सेना के हाथ में जा सकती है। वह तो सेना ही ऐसा नहीं चाह रही थी अन्यथा आज कयानी वहां की सत्ता पर काबिज होते। पीछे झांक कर देखा जा सकता है कि जब-जब वहां लोकतांत्रिक ताकतें विफल हुई हैं, सेना ने सत्ता हथियाई और उसके बाद वहां के हालात और बिगड़े। दरअसल वहां मजबूत लोकतंत्र चाहिए जिसमें विपक्ष का भी रोल ऐसा नहीं हो जिससे सेना या आईएसआई को अपने पैर पसारने में मदद मिले।जैसे-जैसे समय बीत रहा है पाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ अभियान चलाना और मुश्किल होता जा रहा है। आम लोगों के बीच आतंकी और उग्रवादी इस तरह घुलते-मिलते जा रहे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ अभियान से आम लोगों के भी प्रभावित होने का खतरा है। अभी अमेरिका जिस तरह से तालिबान के उदार तबके के साथ उदारतापूर्ण रवैया अपनाने का संकेत कर रहा है, वह किसी के हित में नहीं है। कोशिश यह होनी चाहिए कि आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को प्रभावी कदम उठाने को मजबूर किया जाए और उदारवादी तबकों को मजबूत करने की दिशा में बढ़ा जाए। वहां लोकतंत्र की कागजी मजबूती नहीं बल्कि वास्तविक मजबूती चाहिए। उसे आतंकवाद मिटाने के लिए जो मदद जा रही है उसकी पाई-पाई का हिसाब लिया जाए और इसकी निगरानी सख्ती से की जाए कि कहीं वह पैसा आतंकियों के हाथों में तो नहीं जा रहा है।

विकास का मुद्दा और वोट की राजनीति


इन दिनों लालू प्रसाद अपने रेल विकास कार्यों के नाम पर मतदाताओं से वोट मांग रहे हैं। यह राजनीति का नया विकास है। इससे पहले लालू प्रसाद जातीय समीकरण के आधार पर ही वोट मांगते और चुनाव जीतते या हारते रहे हैं। वे कहा करते थे कि ‘विकास से राजनीति का कोई संबंध ही नहीं है।’ पर ‘विकास बनाम पिछड़ापन’ को मुख्य मुद्दा बनाकर नीतीश कुमार ने न सिर्फ बिहार में सन 2005 में सत्ता हासिल कर ली, बल्कि लालू प्रसाद को भी अपना मुद्दा बदलने को मजबूर कर दिया। बिहार जैसे अविकसित प्रदेश के लिए यह खुशी की बात मानी जा रही है कि लालू प्रसाद जैसे महाबली नेता भी अब विकास पर जोर दे रहे हैं। हालांकि देश के पिछले कई चुनाव-नतीजे यह बताते हैं कि विकास के मुद्दे पर भी वोट मिलते रहे हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी दल की सरकार के विकास कार्यों को नजरअंदाज कर मतदाताओं ने उसे इस आधार पर वोट ही नहीं दिया। ऐसा सोचना ही इस गरीब देश के मतदाताओं का अपमान करना है, जो विकास के लिए तरसता रहता है।हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सिर्फ विकास के नाम पर ही कोई दल दुबारा सत्ता में आ सकता है। चुनाव में जीत के लिए कुछ अन्य तत्व भी सहायक होते हैं, पर हाल के वर्षों के चार उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि विकास के नाम पर भी वोट मिलते ही रहे हैं। पहला उदाहरण अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ‘इंडिया शाइनिंग’ यानी ‘भारत उदय’ के नारे का है। दूसरा उदाहरण आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के विकास कार्यक्रमों का है। तीसरा उदाहरण सन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के मुद्दे का है। चौथा उदाहरण भी बिहार का ही है जो गत तीन साल में हुए छह उप चुनावों के नतीजों में परिलक्षित होता है। जिस भी दल की सरकार जहां जितना भी विकास कार्य करती है, उसे उसका लाभ मिलता ही है। हां, यदि अन्य चुनावी तत्व भी उन दलों के अनुकूल रहेंगे तो उनकी दुबारा सत्ता में आने की संभावना और ज्यादा बढ़ जाती है। इस बात को थोड़ा और बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले चंद्रबाबू नायडू का उदाहरण लिया जाए। आंध्र प्रदेश में सन 1999 में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा का भी चुनाव हुआ था। तब नायडू के दल तेलुगूदेशम को विधानसभा चुनाव में 47.6 प्रतिशत मत मिले थे। नायडू मुख्यमंत्री बने पर, सन 2004 के आंध्र विधानसभा चुनाव में तेलुगूदेशम को मात्र 40.20 प्रतिशत वोट मिले और वे सत्ता से बाहर हो गए। नायडू की हार के बाद अनेक राजनीतिक व चुनावी विश्लेषकों की बन आई। उन लोगों ने यह फतवा देना शुरू कर दिया कि विकास के नाम पर वोट नहीं मिलते, पर जरा आंध्रप्रदेश की तब की राजनीतिक स्थिति को याद करिए। आंध्र प्रदेश में करीब 10 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है जो काफी संगठित और जागरूक है। सन 2002 में गुजरात में भीषण सांप्रदायिक दंगे हो चुके थे। तेलुगूदेशम और उसके नेता चंद्रबाबू नायडू से आंध्रप्रदेश के मुस्लिम नेताओं और अनेक प्रमुख लोगों ने कहा कि अब आप अटल बिहारी सरकार से समर्थन वापस ले लीजिए पर उन्होंने समर्थन वापस नहीं लिया, लिहाजा सन 1999 के चुनाव में जो अल्पसंख्यक वोट आम तौर पर नायडू की पार्टी को मिले थे, सन 2004 के चुनाव में पार्टी उस अल्पसंख्यक वोट से पूरी तरह वंचित हो गई। तेलुगूदेशम के घटे वोट-प्रतिशत को देखने से साफ हो जाता है कि यदि मुस्लिम मतदाताओं ने उसे 1999 की तरह ही 2004 में भी वोट दिए होते तो नायडू सत्ता से बाहर नहीं होते। यानी वे विकास के कारण नहीं हारे, बल्कि अल्पसंख्यक मतों का समर्थन न मिल पाने के कारण हारे। उसके बाद चंद्र बाबू नायडू भाजपा के साथ हाथ मिलाने का नाम तक नहीं लेते। नायडू के बारे में यह भी प्रचारित किया जाता है कि उन्होंने सिर्फ शहरों का विकास किया था। सवाल है कि क्या 40 प्रतिशत वोट सिर्फ शहरों के हो सकते हैं? क्या आंध्र के शहरों की आबादी इतनी अधिक है? बिलकुल नहीं।अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के छह साल के कामों पर भी विचार करें। सन 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 145 और भाजपा को 138 सीटें मिलीं। यानी इन दो प्रमुख दलों की सीटों में मात्र 7 सीटों का अंतर रहा। कल्पना कीजिए कि सन 2004 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो कैसा रिजल्ट आता? जाहिर है, 2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार में जितनी सीटें यूपीए को मिलीं, उतनी ही एनडीए को मिलतीं। फिर केंद्र में किसकी सरकार बनती?इतना ही नहीं, अदूरदर्शी एनडीए ने अपने गलत राजनीतिक कदम के तहत तमिलनाडु में डीएमके को छोड़कर अलोकप्रिय होते एडीएमके को अपना लिया। नतीजतन उस प्रदेश में सन 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का भट्ठा बैठ गया। हरियाणा में आ॓म प्रकाश चौटाला से दोस्ती तोड़ना भी एनडीए के लिए महंगा साबित हुआ। सचाई यह है कि लोजपा, द्रमुक और चौटाला का दल पहले ही की तरह 2004 में भी एनडीए में ही होते तो ‘इंडिया शाइनिंग की जीत’ को भला कौन रोक सकता था?रामविलास पासवान, चौटाला और करूणानिधि यदि एनडीए से अलग हुए तो इसके लिए राजग ही जिम्मेदार था, न कि ये तीनों नेता। राम विलास पासवान से यदि बारी-बारी से रेल मंत्रालय और आईटी मंत्रालय नहीं छीना गया होता तो वे राजग में ही रहते। उधर धर्मांतरण विरोधी कानून पास कराने के कारण भाजपा को जयललिता में हिंदुत्व नजर आने लगा था। हाल में आ॓म प्रकाश चौटाला से फिर से समझौता करके भाजपा ने अपनी पिछली गलती सुधार ली है।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विकास कार्यों के नाम पर राजग को 2004 में वोट तो मिले ही थे पर सिर्फ विकास कार्यों के नाम पर ही कोई पार्टी चुनाव जीत जाए, ऐसी स्थिति अभी इस देश में नहीं बनी है। इसके साथ-साथ दलीय और जातीय समीकरण पर भी एक हद तक ध्यान देना पड़ता है।अटल सरकार के इन्हीं विकास कार्यों के अंग के रूप में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नीतीश कुमार को बिहार में सड़क और रेलवे-क्षेत्र में अनेक विकासात्मक कार्य करने का मौका मिला। विकास कार्यों की तुलना लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों से करने पर जनता को नीतीश के काम बेहतर लगे। दूसरी आ॓र 2005 में लालू प्रसाद को बिहार विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान की मदद नहीं मिली। इस कारण राजद बिहार में फिर सत्ता हासिल नहीं कर सका और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए। नीतीश के सत्ता में आने के बाद बिहार में विकास के मुद्दे ने वहां की राजनीति की दिशा ही बदल दी। नीतीश सरकार के दौरान बाद बिहार में लोकसभा और विधानसभा के तीन-तीन उपचुनाव हुए और तीनों मेें ही सत्ताधारी राजग की जीत हुई। फिर कौन कहता है कि विकास करने वालों को वोट नहीं मिलते?

Sunday, March 22, 2009

बिहार की फांस


बिहार में संप्रग के बीच मतभेद से सीधा लाभ अगर किसी को होगा तो वह है भाजपा एवं जद-यू गठजोड़। हालांकि यह बात तो संप्रग के नेताओं को भी पता है लेकिन यहां उनकी वही एकता गायब है जो सरकार में दिखाई देती है। लोजपा के नेता राम विलास पासवान के दबाव में लालू प्रसाद ने उन्हें 12 स्थान दिए और अपने लिए 25 रखे। कांग्रेस को तीन स्थान दिये गये। इसके साथ मान ही यह लिया गया कि बिहार में संप्रग का गठजोड़ हो चुका है। लेकिन कांग्रेस एवं राकांपा तो बिफरी ही, स्वयं राजद के अंदर भी फूट पड़ गयी। कारण ढूंढि़ए तो एक ही नजर आता है, कोई निजी स्तर पर स्वयं को संसद पहुंचने से वंचित मान रहा है तो ये दोनों दल यह मान रहे हैं कि उनके जितने सांसद हो सकते हैं, इस समझौते में उसे नजरअंदाज कर दिया गया है। कांग्रेस ने 2004 में चार स्थानों पर लड़कर तीन सीटें पाई थीं। उसे लगता है कि उसे इस बार ज्यादा स्थान मिलने चाहिए थे। कांग्रेस अगर बिहार में संप्रग का अंत मानकर स्वयं उम्मीदवार उतारती है तथा राकांपा भी घोषणानुसार 14 स्थानों से उम्मीदवार खड़े करती है तो फिर इनके बीच आपस में ही संघर्ष होगा। राजद के अंदर यदि कुछ नेता अपने ऐलान के अनुसार लोजपा एवं अपनी पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ ताल ठोकेंगे तो इसका परिणाम क्या होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन क्या यह स्थिति अस्वाभाविक है? कतई नहीं। वास्तव में सत्ता के लिए गठजोड़ की जो राजनीति की जा रही है यह सब उसकी स्वाभाविक परिणति है। सरकार के लिए एकत्रित होना एक बात है पर इससे दलीय प्रतिस्पर्धा का पूरी तरह अंत नहीं हो जाता। संसदीय अंकगणित में हर दल एवं व्यक्ति अपना संख्याबल मजबूत रखना चाहता है। उसे मालूम है कि उसकी औकात का आधार उसके सांसदों की संख्या ही है। इसलिए कोई आसानी से अपनी एक भी सीट दूसरे को लड़ने के लिए नहीं देना चाहता, जबकि व्यावहारिक तौर पर वे एक गठजोड़ के ही सदस्य होते हैं। बिहार ही क्योें, आप उत्तरप्रदेश में देख लीजिए, सपा एवं कांग्रेस के बीच चाहते हुए भी सहमति नहीं बन पा रही है। महाराष्र्ट्र में कांग्रेस एवं राकांपा के बीच कुछ सीटों पर रस्साकशी चल रही है। प. बंगाल में भी लंबे समय तक गतिरोध कायम रहा। उड़ीसा में भाजपा-बीजद गठजोड़ टूटने के कारण चाहे जो हों लेकिन बीजद का तर्क यही था कि भाजपा जितनी सीटें मांग रही थी उतने पर उनके जीतने की संभावना नहीं थी। साफ है कि गठजोड़ की राजनीति में सरकार या विपक्ष में एक साथ काम करते हुए भी नेताओं के बीच एक दूसरे के प्रति इतना संवेदनशील लगाव नहीं हो पाता कि वे अपनी एक-दो सीटों का भी दूसरे के लिए परित्याग कर दें।

Friday, March 6, 2009

लोकतंत्र का महायज्ञ


चुनाव आयोग द्वारा पांच चरणों में लोकसभा चुनाव आयोजित करने की घोषणा राजनीतिक दलों की इस मांग की अस्वीकृति है कि चुनाव कम चरणों में और कम समय में आयोजित किये जाएं। अधिकतर राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग के साथ बैठक में यह अनुरोध किया था कि चुनाव को ज्यादा लंबा न खींचा जाए। लगता है चुनाव आयोग जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में कम समय में शांतिपूर्ण एवं निष्पक्ष मतदान को लेकर आश्वस्त नहीं था। लेकिन इतने लंबे समय तक चुनाव खींचने के कारण आचार संहिता की तलवार विकास कार्यो पर लटकी रहेगी। जाहिर है अगर चुनाव को लंबा खींचना था तो आचार संहिता में इतना संशोधन अवश्य होना चाहिए था ताकि आम विकास के कार्य इससे अप्रभावित रहें। खैर, चूंकि हमारे संसदीय लोकतंत्र का आधार आम चुनाव हैं, इसलिए हम इस स्थिति को झेलने के लिए तैयार हैं। बशर्ते चुनाव वाकई स्वतंत्र एवं भय रहित वातावरण में संपन्न हो जाएं। लंबे समय बाद लोकसभा के चुनाव परिसीमन के बाद संशोधित क्षेत्रानुसार आयोजित हो रहा है। 499 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनका परिसीमन हो गया है। जाहिर है ऐसे कई उम्मीदवारों के लिए नये क्षेत्र एवं नये मतदाता से रू-ब-रू होने की अग्नि-परीक्षा है तो कई सांसदों के लिए क्षेत्र ही नहीं बचा। जाहिर है लोकसभा चुनाव के परिणामों पर भी इसका असर होगा। वर्तमान विखंडित राजनीति में इतनी बड़ी संख्या में परिसीमित क्षेत्र राजनीतिक वर्णक्रम में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य लाएंगे। हालांकि चुनाव आयोग के लिए इससे कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। राष्ट्रव्यापी चुनाव प्रबंधन में जो कुछ परिसीमन के पूर्व करना होता था, वही अब भी होगा। इस नाते चुनाव आयोग की चुनौतियां पूर्ववत हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी 20 अप्रैल को सेवानिवृत्त हो रहे हैं, इसलिए अंतिम चार चरण का चुनाव उनके उत्तराधिकारी नवीन चावला के नेतृत्व में संपन्न होगा। भाजपा जिस ढंग से नवीन चावला को निशाना बना रही है उसे चुनाव में बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना सकती है। देश के मुख्य विपक्षी दल का मुख्य चुनाव आयुक्त पर विश्वास न करना ऐसी अशोभनीय स्थिति है जिसे टाले जाने की आवश्यकता है। यह नवीन चावला के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती होगी। उनके लिए यह आवश्यक होगा कि वे स्वयं को अपनी भूमिका से बिल्कुल निष्पक्ष व पारदर्शी साबित कर दें। हम यही चाहेंगे कि हमारे लोकतंत्र का यह महायज्ञ आम मतदाता की पवित्र मत-आहुतियों से निर्विघ्न संपन्न हो जाए और चुनाव आयोग अपने तमाम विवादों से परे इसके निष्पक्ष वाहक बनें। उम्मीद करनी चाहिए कि राजनीतिक दल भी चुनाव आयोग के संदर्भ में अपने राजनीतिक मतभेदों से परे हटकर इस महाअभियान को शांतिपूर्ण एवं निष्पक्ष तरीके से संपन्न कराने में योगदान करें।

तीसरे मोर्चे की कवायद


चुनाव की घोषणा के साथ तीसरे मोर्चे की कवायद आम मतदाता की नजर में मूलत: एक राजनीतिक प्रहसन है। हालांकि माकपा के नेतृत्व वाला वाममोर्चा पिछले साल की शुरुआत से ही तीसरे विकल्प की बात करने लगा था और उसने कुछ कोशिशें भी कीं लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यह सफल न हो सका। वास्तव में राजनीति के चरित्र एवं विकास नीतियों में मौलिक बदलाव के आंदोलन की भावना से यदि तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आए तो उसका स्वागत किया जाएगा, लेकिन आसन्न चुनाव के पहले इसका उद्देश्य केवल संगठित होकर सत्ता समीकरण में अपनी ताकत बढ़ाना ही हो सकता है। ठीक यही बात चुनावोपरांत ऐसे मोर्चे के गठन के संदर्भ में भी कही जा सकती है। तीसरा मोर्चा यानी कांग्रेस तथा भाजपा से अलग राजनीतिक समूह। वैसे तीसरे मोर्चे के मुख्य निशाने पर भाजपा रहती है और इसका आधार तथाकथित सेक्यूलर राजनीति को बनाया जाता है। तर्क यह होता है कि भाजपा चूंकि सेक्यूलर विरोधी है, इसलिए सेक्यूलरवाद को बचाने के लिए वे इकट्ठे हो रहे हैं। यह बात अलग है कि जो दल सेक्यूलरवाद की दुहाई देकर तीसरा मोर्चा या संप्रग का भाग होते हैं उनमें से कई भाजपा के साथ हाथ मिला चुके हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा तीसरे मोर्चे के लिए सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। उनकी पार्टी कर्नाटक में भाजपा के साथ सरकार चला चुकी है। अन्नाद्रमुक की जे. जयललिता भाजपा गठजोड़ में शामिल रही हैं। तेलुगूदेशम भी भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देने के साथ मिलकर चुनाव लड़ चुका है। इस प्रकार इनकी विख्ासनीयता समाप्त है। देवेगौड़ा की तीसरे मोर्चे के लिए सक्रियता का उद्देश्य क्या हो सकता है? पांच सालों तक लोकसभा में रहते हुए भी सत्ता समीकरण या विपक्षी गठजोड़ में कहीं उनकी कोई भूमिका नहीं थी। चन्द्रबाबू नायडू को इस समय अपने मुस्लिम मतों की चिंता सताने लगी है। वामदलों के लिए तो तीसरा मोर्चा केन्द्रीय राजनीति में महत्ता कायम रखने का एकमात्र आधार है। अगर भाजपा एवं कांग्रेस से अलग कोई मोर्चा न हो तो फिर वे नेतृत्व किसका करेंगे। ऐसी पृष्ठभूमि से किसी राजनीतिक समूह का आविर्भाव होता है तो उसकी विख्ासनीयता क्या होगी? वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में किसी सशक्त तीसरे मोर्चा का उभरना वैसे ही असंभव है। तेलूगु देशम के चन्द्रबाबू नायडू, जनता दल सेक्यूलर के देवेगौड़ा के अलावा ऐसा कोई दल निश्चित तौर पर तीसरे मोर्चा का भाग बनने को अभी तैयार नहीं है। जयललिता जब तक औपचारिक तौर पर इसका भाग बनने की स्वयं घोषणा नहीं करतीं, उनके बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। अच्छा होगा कि वामदल तीसरे मोर्चे के गठन के प्रयास की बजाय अपनी सीटों को बचाने पर ध्यान केन्द्रित करें।