Monday, April 6, 2009

लोकतांत्रिक ताकतों को मिले मजबूती

लाहौर के पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर हमले से एक बार फिर साफ हो गया है कि पाकिस्तान पर आतंकवादियों की पकड़ मजबूत हो गई है। अब तक पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांत और कराची जैसे शहरों में ही आतंकवादियों का रूतबा था लेकिन लाहौर पर लगातार हो रहे हमलों से पता चलता है कि पूर्वी प्रांत पर भी उनकी मजबूत पकड़ बन गई है। पाकिस्तान में जहां भी आतंकी हमले हो रहे हैं, उसके लिए वहां की राजनीति और सत्ता पर मौजूद लोगों की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। आज भी वहां शीर्ष स्तर पर आतंकवाद को जांचने या उस पर अंकुश लगाने की ठीक से कोशिश नहीं की जा रही है। मुंबई हमलों के दोषियों के संबंध में पाकिस्तान ने जो कुछ भी कहा, वह सारे विश्व के सामने है। खुद अपने यहां हो रहे आतंकी हमलों को लेकर भी उसकी जांच प्रक्रिया में ढिलाई बरती जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो श्रीलंकाई खिलाड़ियों पर हुए हमले के दोषी अब तक जरूर पकड़े गए होते। दरअसल पाकिस्तान में आतंकवादी समूहों को फलने-फूलने का पूरा मौका दिया गया। यहां तक कि सीमा पर जाकर अफगानिस्तान जैसे देशों में भी आतंकवादियों को उसने मदद पहुंचाई। अब यही आतंकी समूह इतने मजबूत हो गए हैं कि सरकार को खुली चुनौती देने लगे हैं और सरकार भौंचक मुद्रा में है। यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि वहां की सरकार अब भी आतंक मिटाने को लेकर प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही। सेना, नौकरशाह और सरकार में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनकी सहानुभूति लश्करे तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और तालिबान जैसे संगठनों से है।सवाल यह है कि किया क्या जाए? जिस विष बेल को उसने खुद रोपा था, उसके समूल नाश के लिए भी उसे ही आगे बढ़ना होगा। अमेरिका जैसा देश कुछ नहीं कर सकता। वह तो बस अपनी रोटी ही सेंक सकता है। फिर आतंकवाद के खिलाफ वह पाकिस्तान की नहीं, अपनी लड़ाई लड़ रहा है। पाकिस्तान में सबसे जरूरी है कि लोकतांत्रिक शासन को अहमियत दी जाए। जिस तरह का लोकतंत्र अभी वहां है, वह उसकी जरूरत नहीं है। वहां की जरूरत शासन में स्थिरता की है। शासन में सेना-आईएसआई का प्रभाव कम से कम होना चाहिए। अभी जो स्थिति है उसमें गिलानी, शरीफ और जरदारी जैसे लोग जिस तरह की उदार लोकतांत्रिक शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, वह दिन ब दिन हाशिये की आ॓र बढ़ रही है। कुछ दिनों पहले चले नवाज शरीफ के अभियान के समय तो ऐसा लग रहा था कि शासन की बागडोर फिर सेना के हाथ में जा सकती है। वह तो सेना ही ऐसा नहीं चाह रही थी अन्यथा आज कयानी वहां की सत्ता पर काबिज होते। पीछे झांक कर देखा जा सकता है कि जब-जब वहां लोकतांत्रिक ताकतें विफल हुई हैं, सेना ने सत्ता हथियाई और उसके बाद वहां के हालात और बिगड़े। दरअसल वहां मजबूत लोकतंत्र चाहिए जिसमें विपक्ष का भी रोल ऐसा नहीं हो जिससे सेना या आईएसआई को अपने पैर पसारने में मदद मिले।जैसे-जैसे समय बीत रहा है पाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ अभियान चलाना और मुश्किल होता जा रहा है। आम लोगों के बीच आतंकी और उग्रवादी इस तरह घुलते-मिलते जा रहे हैं कि आतंकवाद के खिलाफ अभियान से आम लोगों के भी प्रभावित होने का खतरा है। अभी अमेरिका जिस तरह से तालिबान के उदार तबके के साथ उदारतापूर्ण रवैया अपनाने का संकेत कर रहा है, वह किसी के हित में नहीं है। कोशिश यह होनी चाहिए कि आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को प्रभावी कदम उठाने को मजबूर किया जाए और उदारवादी तबकों को मजबूत करने की दिशा में बढ़ा जाए। वहां लोकतंत्र की कागजी मजबूती नहीं बल्कि वास्तविक मजबूती चाहिए। उसे आतंकवाद मिटाने के लिए जो मदद जा रही है उसकी पाई-पाई का हिसाब लिया जाए और इसकी निगरानी सख्ती से की जाए कि कहीं वह पैसा आतंकियों के हाथों में तो नहीं जा रहा है।

विकास का मुद्दा और वोट की राजनीति


इन दिनों लालू प्रसाद अपने रेल विकास कार्यों के नाम पर मतदाताओं से वोट मांग रहे हैं। यह राजनीति का नया विकास है। इससे पहले लालू प्रसाद जातीय समीकरण के आधार पर ही वोट मांगते और चुनाव जीतते या हारते रहे हैं। वे कहा करते थे कि ‘विकास से राजनीति का कोई संबंध ही नहीं है।’ पर ‘विकास बनाम पिछड़ापन’ को मुख्य मुद्दा बनाकर नीतीश कुमार ने न सिर्फ बिहार में सन 2005 में सत्ता हासिल कर ली, बल्कि लालू प्रसाद को भी अपना मुद्दा बदलने को मजबूर कर दिया। बिहार जैसे अविकसित प्रदेश के लिए यह खुशी की बात मानी जा रही है कि लालू प्रसाद जैसे महाबली नेता भी अब विकास पर जोर दे रहे हैं। हालांकि देश के पिछले कई चुनाव-नतीजे यह बताते हैं कि विकास के मुद्दे पर भी वोट मिलते रहे हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी दल की सरकार के विकास कार्यों को नजरअंदाज कर मतदाताओं ने उसे इस आधार पर वोट ही नहीं दिया। ऐसा सोचना ही इस गरीब देश के मतदाताओं का अपमान करना है, जो विकास के लिए तरसता रहता है।हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सिर्फ विकास के नाम पर ही कोई दल दुबारा सत्ता में आ सकता है। चुनाव में जीत के लिए कुछ अन्य तत्व भी सहायक होते हैं, पर हाल के वर्षों के चार उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि विकास के नाम पर भी वोट मिलते ही रहे हैं। पहला उदाहरण अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ‘इंडिया शाइनिंग’ यानी ‘भारत उदय’ के नारे का है। दूसरा उदाहरण आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के विकास कार्यक्रमों का है। तीसरा उदाहरण सन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के मुद्दे का है। चौथा उदाहरण भी बिहार का ही है जो गत तीन साल में हुए छह उप चुनावों के नतीजों में परिलक्षित होता है। जिस भी दल की सरकार जहां जितना भी विकास कार्य करती है, उसे उसका लाभ मिलता ही है। हां, यदि अन्य चुनावी तत्व भी उन दलों के अनुकूल रहेंगे तो उनकी दुबारा सत्ता में आने की संभावना और ज्यादा बढ़ जाती है। इस बात को थोड़ा और बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले चंद्रबाबू नायडू का उदाहरण लिया जाए। आंध्र प्रदेश में सन 1999 में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा का भी चुनाव हुआ था। तब नायडू के दल तेलुगूदेशम को विधानसभा चुनाव में 47.6 प्रतिशत मत मिले थे। नायडू मुख्यमंत्री बने पर, सन 2004 के आंध्र विधानसभा चुनाव में तेलुगूदेशम को मात्र 40.20 प्रतिशत वोट मिले और वे सत्ता से बाहर हो गए। नायडू की हार के बाद अनेक राजनीतिक व चुनावी विश्लेषकों की बन आई। उन लोगों ने यह फतवा देना शुरू कर दिया कि विकास के नाम पर वोट नहीं मिलते, पर जरा आंध्रप्रदेश की तब की राजनीतिक स्थिति को याद करिए। आंध्र प्रदेश में करीब 10 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है जो काफी संगठित और जागरूक है। सन 2002 में गुजरात में भीषण सांप्रदायिक दंगे हो चुके थे। तेलुगूदेशम और उसके नेता चंद्रबाबू नायडू से आंध्रप्रदेश के मुस्लिम नेताओं और अनेक प्रमुख लोगों ने कहा कि अब आप अटल बिहारी सरकार से समर्थन वापस ले लीजिए पर उन्होंने समर्थन वापस नहीं लिया, लिहाजा सन 1999 के चुनाव में जो अल्पसंख्यक वोट आम तौर पर नायडू की पार्टी को मिले थे, सन 2004 के चुनाव में पार्टी उस अल्पसंख्यक वोट से पूरी तरह वंचित हो गई। तेलुगूदेशम के घटे वोट-प्रतिशत को देखने से साफ हो जाता है कि यदि मुस्लिम मतदाताओं ने उसे 1999 की तरह ही 2004 में भी वोट दिए होते तो नायडू सत्ता से बाहर नहीं होते। यानी वे विकास के कारण नहीं हारे, बल्कि अल्पसंख्यक मतों का समर्थन न मिल पाने के कारण हारे। उसके बाद चंद्र बाबू नायडू भाजपा के साथ हाथ मिलाने का नाम तक नहीं लेते। नायडू के बारे में यह भी प्रचारित किया जाता है कि उन्होंने सिर्फ शहरों का विकास किया था। सवाल है कि क्या 40 प्रतिशत वोट सिर्फ शहरों के हो सकते हैं? क्या आंध्र के शहरों की आबादी इतनी अधिक है? बिलकुल नहीं।अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के छह साल के कामों पर भी विचार करें। सन 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 145 और भाजपा को 138 सीटें मिलीं। यानी इन दो प्रमुख दलों की सीटों में मात्र 7 सीटों का अंतर रहा। कल्पना कीजिए कि सन 2004 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो कैसा रिजल्ट आता? जाहिर है, 2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार में जितनी सीटें यूपीए को मिलीं, उतनी ही एनडीए को मिलतीं। फिर केंद्र में किसकी सरकार बनती?इतना ही नहीं, अदूरदर्शी एनडीए ने अपने गलत राजनीतिक कदम के तहत तमिलनाडु में डीएमके को छोड़कर अलोकप्रिय होते एडीएमके को अपना लिया। नतीजतन उस प्रदेश में सन 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का भट्ठा बैठ गया। हरियाणा में आ॓म प्रकाश चौटाला से दोस्ती तोड़ना भी एनडीए के लिए महंगा साबित हुआ। सचाई यह है कि लोजपा, द्रमुक और चौटाला का दल पहले ही की तरह 2004 में भी एनडीए में ही होते तो ‘इंडिया शाइनिंग की जीत’ को भला कौन रोक सकता था?रामविलास पासवान, चौटाला और करूणानिधि यदि एनडीए से अलग हुए तो इसके लिए राजग ही जिम्मेदार था, न कि ये तीनों नेता। राम विलास पासवान से यदि बारी-बारी से रेल मंत्रालय और आईटी मंत्रालय नहीं छीना गया होता तो वे राजग में ही रहते। उधर धर्मांतरण विरोधी कानून पास कराने के कारण भाजपा को जयललिता में हिंदुत्व नजर आने लगा था। हाल में आ॓म प्रकाश चौटाला से फिर से समझौता करके भाजपा ने अपनी पिछली गलती सुधार ली है।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विकास कार्यों के नाम पर राजग को 2004 में वोट तो मिले ही थे पर सिर्फ विकास कार्यों के नाम पर ही कोई पार्टी चुनाव जीत जाए, ऐसी स्थिति अभी इस देश में नहीं बनी है। इसके साथ-साथ दलीय और जातीय समीकरण पर भी एक हद तक ध्यान देना पड़ता है।अटल सरकार के इन्हीं विकास कार्यों के अंग के रूप में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नीतीश कुमार को बिहार में सड़क और रेलवे-क्षेत्र में अनेक विकासात्मक कार्य करने का मौका मिला। विकास कार्यों की तुलना लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों से करने पर जनता को नीतीश के काम बेहतर लगे। दूसरी आ॓र 2005 में लालू प्रसाद को बिहार विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान की मदद नहीं मिली। इस कारण राजद बिहार में फिर सत्ता हासिल नहीं कर सका और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए। नीतीश के सत्ता में आने के बाद बिहार में विकास के मुद्दे ने वहां की राजनीति की दिशा ही बदल दी। नीतीश सरकार के दौरान बाद बिहार में लोकसभा और विधानसभा के तीन-तीन उपचुनाव हुए और तीनों मेें ही सत्ताधारी राजग की जीत हुई। फिर कौन कहता है कि विकास करने वालों को वोट नहीं मिलते?