Monday, February 9, 2009

यह कौन सी संस्कृति है?


अब मेंगलोर कांड को मीडिया ने उछाला और मीडिया के इस उछाले को पूरे देश ने तमाशबीन की तरह देखा। एक हिंदूवादी सेना के कथित जांबाज बहादुर धर्मरक्षक, सुसंस्कृत सैनिकों ने कुछ निहत्थी- निरीह ‘पापिन, हीन चरित्र’ ‘पब-गमना’ कन्याओं पर आक्रमण करके भारत नहीं तो कम-अज-कम हिंदू और भारतीय संस्कृति को नष्ट होने से बचा लिया। या बचाने का एक ‘साहसिक’ प्रयास तो अवश्य ही किया। क्योंकि यह प्रयास उन अति विशष्टि प्रयासों में से एक था, जिन पर मीडिया अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये रहता है, अपना पेट भरने के लिए, इसलिए यह अपनी पूरी विशष्टिता के साथ मीडिया में कूदा और अपने बिगड़ैल भतीजे राज ठाकरे की तर्ज पर एक-दो ऐसे नाम जिनके पास वास्तविक काम के नाम पर सिवाय राम नाम के और कुछ नहीं है उछल कर राष्ट्रीय व्यक्तित्व बन गये। मेरे उनको यहां स्मरण करने से उनकी नवर्जित राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को क्षति पहुंच सकती है इसलिए मैं उनको स्मरण-श्रद्धांजलि नहीं दे रहा हूं।वैसे भी मीडिया का टीआरपी मंडित चरित्र घटना पर टूटता है, परिघटना पर नहीं। हां, जब घटना पर टूटता है तो उसे परिघटना जैसा लबादा जरूर आ॓ढ़ा देता है। कुछ सिरफिरे या उन्हें जो कुछ कहिए अति हिंदू संस्कृतिवादी एक पब पर हमला कर देते हैं तो एक बड़ी बात हो जाती है, मगर करोड़ों हिंदू किसी पब पर कोई हमला नहीं करते और पबों की बात छोड़ दें, चकलों तक को सहजता से चलने देते हैं, तो यह होना कोई बात नहीं माना जाता। कहीं-कभी दो संप्रदाय आपस में भिड़ बैठते हैं या एक संप्रदाय के कुछ सिरफिरे लोग दूसरे संप्रदाय के लोगों के साथ कोई अतिवादी, आतंकवादी व्यवहार कर बैठते हैं तो बड़ी बात हो जाती है, मगर इन्हीं दो संप्रदायों के करोड़ों लोग सहजता से साथ-साथ रह रहे हैं तो यह कोई बात नहीं है। इतनी सी भी बात नहीं है कि इस सहज पारस्परिक व्यवहार की खूबियां बताकर सिरफिरों के दिमाग में कुछ अच्छी बातें बिधने की बात भी की जा सके। मीडिया एकदम उलट-गुलाटी मारता है। वह सिरफिरों की सिरफिरी हरकतों को करोड़ों शांत दिमागों में मार-मार कर घुसा डालता है और उन्हें भी सिरफिरी अशांति से भर देता है।बहरहाल, मीडिया की महत्ता-महानता एक दीगर विषय है, यहां बात पब, पब में जाने वाली लड़कियों और उनके भारतीय या हिंदू संस्कृति के लिए पैदा हुए खतरे की है। पब केवल हिंदू संस्कृति को ही खतरा नहीं लगते, उससे भी बड़ा खतरा तो इस्लामी संस्कृति को लगते हैं। स्वयं इस्लामी संस्कृति की बात इसलिए उठाना जरूरी लगा कि सिरफिरों की पब आक्रमकता को मीडिया ने ‘तालिबानीकरण’ से जोड़ा, यानी जिस तरह से तालिबान इस्लाम के नाम पर जो ‘शुद्धतावादी’ कार्यक्रम चलाते हैं, वैसा ही शुद्धतावादी कार्यक्रम ये हिंदू तालिबान चलाना चाहते हैं।इसके अलावा बहुत सी राजनीतिक बातें थीं कि सेना नायक अपनी राजनीति चमकाना चाहता था इसलिए उसने अन्य किसी हथकंडे के बजाय बकरेकंडे का प्रयोग किया, कि यह सरकार को बदनाम करने का सुनियोजित षड्यंत्र था, कि यह इस्लामी कट्टरंथी संगठनों की कार्यनीति की अनुक्रिया थी आदि-आदि। अब ये सारी बातें अलग, आधारभूत सवाल तो पब, कथित ‘नग्न-अर्धनग्न’ लड़कियों का पब-गमन और इनसे आहत होती हिंदू संस्कृति का है। पब क्यों खुल रहे हैं’ इन पबों को कौन और किसलिए खोल रहा है। जिस आर्थिक नीति को हमने प्रगति का मूल मंत्र बनाया हुआ है, उसके चलते क्या पबों की जगह चैत्यालय खुलेंगे, ये सारे सवाल विचारणीय हैं, और इन पबों का सामाजिक प्रभाव भी विचारणीय है, तथापि यहां विचारणीय सवाल यह है कि क्या चंद निहत्थी लड़कियों पर हमला करके, या पार्कों में बैठे जोड़ों को सरेआम अपमानित करके, ऐसे मिलन स्थलों में तोड़-फोड़ करके क्या सचमुच हिंदू संस्कृति की रक्षा की जा सकती है? और क्या इस तरह के हमले सचमुच हिंदू संस्कृति के हिस्से हैं? या किसी भी सभ्य, जीवंत, सजग व्यवहार संस्कृति के हिस्से हो सकते हैं?पहली बात तो यह कि कोई भी ऐसा अनुदार, अभद्र, पश्चगामी कृत्य किसी दूसरे के ऐसे ही अभद्र, अनुदार, कट्टर और क्रूर हत्या का प्रत्युत्तर नहीं हो सकता। किसी दूसरे की खाज का जवाब अपने शरीर पूर कोढ़ पैदा कर के नहीं दिया जा सकता। हिंदू उग्रवादी संगठन प्राय: ऐसा ही करते प्रतीत होते हैं! दूसरे, कोई भी सांस्कृतिक परिवर्तन या नियंत्रण अभद्र और क्रूर व्यवहार द्वारा नहीं हो सकता। पब में जाने वाली लड़कियां अगर अभद्र-अश्लील सांस्कृतिक व्यवहार कर रही थीं तो उन पर हमला करने वाले उनसे हजार गुना अधिक अभद्र, अश्लील और अपसांस्कृतिक व्यवहार कर रहे थे। तीसरी बात यह कि यह वैसा ही व्यवहार था जैसे दांत खोले भेड़िये पर आपका कोई वश न चले और अपना डंडा मेमने पर फटकारने लगे। इस देश में पब संस्कृति फैलाने वालों का आप कुछ नहीं उखाड़ सकते, इसलिए पब जानेवाली कमजोर लड़कियों पर ही टूट पड़ो। यह सिर्फ दिमागी विकृति है।ये स्वयंभू हिंदू संगठन अगर सचमुच हिंदुओं का भला चाहते हैं तो न तो इन्हें इस तरह के कायरतापूर्ण कार्य करने चाहिए और न औरों को करने देने चाहिए। जरूरत हिंदुओं को आंतरिक तौर पर मजबूत होने और बनाने की है। और वे ऐसा तब कर सकते हैं जब वे अपनी सामाजिक आंतरिक कमजोरियों से लड़ें और अपनी अंतर्निहित कायरता से लड़ें। कायरता से लड़ने की लड़ाई वैचारिक ज्यादा होती है, जिससे इस तरह के संगठन लगातार बचते हैं। कुछ बम फोड़कर, निर्दोषों पर गोलियां चलाकर यह काम कर करना चाहते हैं, तो कुछ निर्दोषों की पिटाई करके। ये सिर्फ कायरतापूर्ण कार्य हैं। जो समाज इस तरह के कायरतापूर्ण कार्यों को पैदा करता है, समर्थन देता है या क्रियान्वित करता है, उसके पतन को ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता।