Friday, February 6, 2009

पटेल दूर, नेहरू निकट क्यों थे बापू के.....


बात गत सदी की है। छह दशक पुरानी। आखिर महात्मा गांधी ने वल्लभभाई पटेल को क्यों गौण किए रखा और जवाहरलाल नेहरू के प्रति क्यों पक्षपाती रहे? भारत के सोशलिस्ट, खासकर जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जो नेहरू का जयघोष करते थे, का जब मोहभंग हुआ तो इन्होंने अपनी ‘ऐतिहासिक भूल’ को माना। कालचक्र तब तक घूम चुका था। आज भी यह यक्ष प्रश्न है कि रघुकुल में जन्मे राम के अनन्य भक्त, सत्य वचन पर सदैव अडिग, अति मानवीय गुणवाले गांधीजी ने भेदभाव क्यों किया? कहीं उनकी अवचेतना में यह तो नहीं था कि वे और पटेल एक ही भाषा (गुजराती) बोलते हैं। आजादी के आंदोलन में हिन्दीवालों की बहुलता थी, अत: नेतृत्व उन्हीं का होना चाहिए। वह दौर भी द्विज वर्ण के वर्चस्व का था। रंग-रूप से ठेठ गंवई भारत में शिक्षित पटेल कुर्मी थे। नेहरू पाश्चात्य शैली में रंगे, विदेश में पढ़े, लोहित वर्ण के विप्र थे। उनके जीवन के चौथे चरण (आयु 76 वर्ष) में गांधीजी के मुतल्लिक ये बातें क्षुद्र लगेंगी। आध्यात्मिक उत्कर्ष के शीर्ष सोपान पर पहुंचे बापू जरूर राग-द्वेष से परे तो रहे होंगे, मगर सारथी भी तो ईश्वर था जो कुरूक्षेत्र में पार्थ के प्रति अनुरागी था।एक दस्तावेजी घटना (1946 की) है, जिससे लगता है कि गांधीजी ने नेहरू को अन्य के मुकाबले बचाया, बढ़ाया और प्रायोजित किया। भारत सरकार के फिल्म प्रभाग की (इंदिरा गांधी युग में निर्मित) डाक्युमेंटरी ‘सरदार पटेल’ शीर्षक से है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में मौलाना आजाद की जगह नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था। गांधीजी ने सदस्यों को सूचित किया कि लगभग सारी प्रदेश समितियों ने सरदार पटेल का नामांकन भेजा। नेहरू के लिए प्रस्ताव नगण्य थे! फिर बापू ने पटेल की आ॓र मुखातिब होकर कहा, ‘सरदार, मैं चाहता हूं कि तुम जवाहर के पक्ष में अपना नामांकन वापस ले लो।’ सिर्फ दो शब्द में पटेल ने उत्तर दिया : ‘जी बापू।’ नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बन गये और कुछ महीनों में अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री भी।यूं इतिहास में ढेर सारे उदाहरण हैं, जिसमें राष्ट्र-नायकों और उनके उत्तराधिकारियों में विचार- वैषम्य उभरा है। व्लादिमिर लेनिन के निधन के बाद जोसेफ स्टालिन ने उनकी विचारधारा ही उलटा दी। माआ॓ जेडोंग के पूंजीशाही जानशीनों ने कम्युनिज्म को माआ॓ के शव के साथ संलेपित कर उनके ताबूत में सील बंद कर दिया। नेहरू ने तो बापू के जीते जी उन्हें नकार दिया था। अपनी डायरी में 1936 में नेहरू ने लिखा कि वे निश्चित राय के हैं कि बापू के साथ सहयोग मुमकिन नहीं है। ‘हम दोनों को अब अलग राहें लेनी पड़ेंगी।’ उन्हीं दिनों गांधीजी ने अपने अंग्रेज मित्र अगाथा हैरिसन को लिखा था : ‘जवाहर अब मेरा नहीं रहा। मुझे उसके तौर-तरीके पसंद नहीं हैं।’ गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन पर नेहरू ने जो कहा, उसे पत्रकार लुई फिशर ने अपनी पुस्तक ‘गांधी, उनका जीवन और विश्व को संदेश’ में दर्ज किया है। नेहरू ने बापू को 13 अगस्त, 1943 को लिखा- ‘इस बार जेल आना मेरी धमनियों के लिए कठिन परीक्षा जैसा है।’ गांधीजी के संघर्ष–दर्शन पर अपनी शंका नेहरू ने 1942 में व्यक्त की। तब वे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से सहमत थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में ‘भारत छोड़ो’ जैसा आन्दोलन ब्रिटेन को जर्मनी के खिलाफ लड़ने में कमजोर कर देगा। राजगोपालाचारी ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव का विरोध और पाकिस्तान की मांग का खुलकर समर्थन किया था, मगर बाद में समय की नजाकत को भांपकर नेहरू मुंबई अधिवेशन में शरीक हुए और गांधीजी का समर्थन किया। वे तब तीन वर्ष (9 अगस्त, 1942 से 14 जुलाई, 1945) तक अहमदनगर किले की जेल में कैद रहे।संघर्ष से थकान ही थी कि नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेता हर कीमत पर ब्रिटेन से समझौता चाहते थे, भले ही भारत का विभाजन हो जाय। गांधीजी ने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। यह नाथूराम गोड्से ने सचकर दिखाया, जब पाकिस्तान बनने के साढ़े पांच महीनों में ही गांधीजी की हत्या कर दी गई। गांधीजी और नेहरू की दूरी सदैव के लिए हो गई, जब संगम तट पर बापू का नेहरू ने अस्थि विसर्जन किया। वही तब श्रद्धाजंलि जनसभा में नेहरू के भाषण के बाद सम्पादक दुर्गादास के कान में रफी अहमद किदवई ने कहा, ‘जवाहरलाल ने आज गांधीजी ही नहीं, बल्कि गांधीवाद का भी अंतिम संस्कार कर दिया।’ (फ्रॉम कर्जन टु नेहरू : दुर्गादास)। गांधीजी ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को भारतीय धरती पर रोपित करने के विरूद्ध थे, क्योंकि इसके तहत दो वर्ग- शासक और शासित ही पैदा होते हैं। राजकाज में जन सहभागीदारी नहीं हो सकती। गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था : ‘ब्रिटिश संसद बांझ है, वारांगना है।’ बांझ इसलिए कि इसने एक भी जन कल्याणकारी कार्य नहीं किया। वेश्या इसलिए कि सांसद भिन्न किस्म के प्रभावों तथा दबावों के तहत काम करने के लिए लाचार होते हैं, मगर नेहरू ने पूरी ताकत जुटा कर यह किया। इसी परिवेश में गांधीजी और नेहरू के परिवारों की राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना भी हो जाए। जवाहरलाल नेहरू लाहौर में दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष उनके निवर्तमान अध्यक्ष पिता मोतीलाल नेहरू के स्थान पर बने थे। महात्मा गांधी ने पद को अस्वीकार कर दिया था। तब पिता द्वारा पुत्र हेतु आग्रह को गांधीजी ने स्वीकार किया था। महात्मा गांधी के परिवार के आज 54 लोग हैं। जो दिवंगत हो गये, वे तो सत्ता से दूर-दूर ही रहे, क्योंकि गांधीजी ने किसी को आने नहीं दिया। अलबत्ता, सत्याग्रही बनाकर उन्हें जेल भेजते रहे। केवल दो का नाम आता है, जो राजनीति की परिधि के इर्द-गिर्द रहे। जैसे उनके पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी जो विदेश सेवा की नौकरी में थे, आज पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। उन्हीं के भाई राजमोहन गांधी लेखक हैं और बस एक बार उन्होंने अमेठी से राजीव गांधी के विरूद्ध लोकसभा का चुनाव 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर वाले जनता दल के टिकट पर लड़ा था, मगर उनके अग्रज रामचंद्र गांधी नई दिल्ली के बंगाली मार्केट के सेंट्रल लेन स्थित एक गैरेज के ऊपर निर्मित कमरे में रहे। उनके निधन के दिन वहां के चौकीदार को पता चला कि महात्मा गांधी के सत्तर वर्षीय लेखक पौत्र रामचन्द्र का जून, 2007 में निधन हो गया। तो क्या इन सब तथ्यों पर गौर करने के बाद भी कुछ सोचने हेतु शेष रह जाता है कि गांधीजी क्या थे, कैसे थे और आज उनकी याद कितनी बची है?

खेती में पिछड़ता भारत


पिछले दो दशकों में भले ही अन्य क्षेत्रों में हम अव्वल साबित हुए हों लेकिन, खाघ उत्पादन में हम पड़ोसी मुल्कों से भी पिछड़ गए हैं। पिछड़ने का दर्द इसलिए भी ज्यादा है कि हमारी गिनती कभी कृषि प्रधान देशों में होती थी, हमारे यहां औसत कृषि जोत अब भी ज्यादा है और पड़ोसी देशों से एक समान सामाजिक पृष्ठभूमि साझा करते हैं। लेकिन आलम ये है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ की खाघ फसलों की उत्पादकता वृद्धि दर में हम गए गुजरे हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि भारत कृषि उत्पादन में पड़ोसी मुल्कों से पिछड़ गया है। दरअसल कृषि उत्पाद में हम आज भी दक्षिण एशियाई देशों में दिग्गज हैं लेकिन, खाघ फसल मसलन, गेहूं, चावल, दाल की पैदावार वृद्धि दर में हमारी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई है। यह चिंता की बात है, न केवल किसानों के लिए बल्कि आम नागरिकों के लिए भी क्योंकि पेट की भूख मिटाना सबकी प्राथमिकता में शामिल है। इसके अलावा ये इस मायने में खतरे की घंटी भी है कि कहीं खेती-किसानी प्रधान मुल्क भारत का अस्तित्व ही तो नहीं मिट रहा है। खाघ उत्पादन के मामले में हमारे दावे कितने सही हैं, इसका अंदाजा नवंबर 2008 में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के कृषि मंत्रियों की हुई बैठक में चला। नई दिल्ली में हुई इस बैठक में सभी आठ देशों ने खाघ फसलों के उत्पादन संबंधी दस्तावेज एक दूसरे से साझा किए। इसके अलावा बैठक में संयुक्त राष्ट्र खाघ एवं कृषि संगठन (एफएआ॓) की नीतियों पर भी चर्चा हुई। जो बात प्रमुखता से उभर कर सामने आई वो है, फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के मामले में भूटान पहले स्थान पर है। यहां तक कि नेपाल, अफगानिस्तान और बांग्लादेश भी पिछले दो दशकों में खाघ फसलों की उत्पादन दर में भारत से आगे हैं। अब चावल को ही लीजिए, सार्क देशों में चावल की खेती बड़े पैमाने पर होती है। भारत में तो इसकी खेती और भी बड़े पैमाने पर की जाती है। हालांकि अब भी विश्व के चुनिंदा चावल उत्पादक देशों में हमारी गिनती होती है। लेकिन इसकी औसत वृद्धि दर 1991-93 और 2005-07 के बीच भारत में महज 1.21 फीसद रही। जबकि भूटान में सबसे ज्यादा 3.37 फीसद दर्ज की गई। इसी दौरान बांग्लादेश में 2.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई। यही नहीं, पाकिस्तान और श्रीलंका में 1.80 और 1.40 फीसद क्रमश: दर्ज की गई। जहां तक गेहूं उत्पादन की बात है तो सार्क देशों की यह दूसरी प्रमुख खाघ फसल मानी जाती है। यहां भी अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान हमसे आगे हैं। अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 3.44 फीसद रही। दूसरे पायदान पर नेपाल 3.39 फीसद के साथ रहा। जबकि भारत 0.86 फीसद के साथ पांचवें पायदान पर खिसक गया। कहने के लिए कहा जा सकता है कि इन सालों के बीच उत्पादकता के लिहाज से मानसून अनुकूल नहीं रहा है, जो कि अफगानिस्तान और नेपाल पर लागू नहीं होता है। लेकिन इस तर्क को ज्यादा सटीक नहीं माना जा सकता, इसलिए कि यही मानसून श्रीलंका और बांग्लादेश पर भी लागू होती है। अगर हम कुल अनाज उत्पादन के लिहाज से भारत की तुलना दूसरे सार्क देशों से करें तो भारत श्रीलंका के साथ अंतिम पायदान पर नजर आता है। भूटान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 5.12 है और भारत का 1.46 फीसद है। ये हाल तब है जबकि हमारे यहां औसत कृषि जोत सबसे ज्यादा है, देश की कुल आबादी का तीन चौथाई हिस्सा खेती को अपना रोजगार मानता है। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि इन सालों में नकदी फसलों का उत्पादन बढ़ा है। अभिप्राय यह कि किसानों ने चावल, गेहूं के बजाय कपास और जूट जैसी फसलों के उत्पादन पर जोर दिया है। दूसरी आ॓र सब्जी की खेती भी अब पहले की तुलना में बड़े पैमाने पर की जाने लगी है। लेकिन यह भी सचाई है कि 1960 की हरित क्रांति का असर अब खत्म होने लगा है। लोगों को अब खेती में, खासकर अनाज उत्पादन में ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है। जहां तक सार्क देशों से पिछड़ने की बात है तो 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद स्थिति में बड़ी तेजी से बदलाव आया है। भारत में शहरीकरण, उच्च शिक्षा, बीपीआ॓, विज्ञान एवं तकनीक और प्रशासनिक सुधारों पर जोर दिया जाने लगा है। हम आर्थिक नजरिए से खुद को मजबूत बनाते गए। दूसरी आ॓र सालों तक अनाज के लिए हम पर निर्भर रहने वाले छोटे-छोटे सार्क देश खेती-किसानी पर ज्यादा जोर देने लगे। इस बीच हमारी कृषि नीतियां महज कागजी ही साबित हुई और हम पडा़ेसी मुल्कों से पिछड़ते गए। बहरहाल अब प्रश्न यह है कि भारत खाघान्न उत्पादन के मामले में क्या कारगर कदम उठाए? हमारी आबादी एक अरब से ज्यादा है और हम खाघ उत्पादन में पिछड़ते जाएंगे तो निस्संदेह एक दिन हमारी आबादी या तो भूखे सोएगी या दूसरे देश का अनाज खाएगी। इसलिए जरूरी इस बात की है कि हम पडा़ेसी मुल्क से कुछ सीखें और अपनी कृषि नीतियों पर फिर से विचार करें।

भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक मुख्यमंत्री की जंग


बिहार इतिहास के एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में गत तीन वर्षों में फर्क ला दिया है। एक मीडिया समूह ने नीतीश को पालिटिशियन ऑफ द इयर चुना है। केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए स्वर्ण पदक दिया है। पूंजी निवेश के क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि को देखते हुए एसोचेम ने कहा है कि बिहार अब बीमारू राज्यों की जमात से बाहर निकल रहा है। ये तीनों खबरें पिछले हफ्ते आई हैं। पर इससे अनेक जद (यू) कार्यकर्ता, नेता व प्रशासन के भ्रष्ट लोग कतई प्रभावित नहीं हैं। इसकी बानगी दिखी हाल ही में राजगीर के जनता दल (यू) चिंतन शिविर में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने झल्ला कर कहा कि यदि आपको लूट की छूट चाहिए तो आप मेरी जगह दूसरा नेता चुन लीजिए। इससे पहले उन्होंने अपनी विकास यात्रा के दौरान प्राप्त कटु अनुभवों को देखते हुए यह ऐलान कर दिया कि वे अपनी ही सरकार के भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ चौतरफा जंग करेंगे। शायद एक दो हफ्तों में उस प्रस्तावित जंग का ठोस स्वरूप भी सामने आ जाएगा। यह अजीब बात है कि कोई मुख्यमंत्री अपने ही दल के अनेक कार्यकर्ताओं और अपनी ही सरकार के अधिकतर अफसरों व कर्मचारियों में मौजूद लोभ की प्रवृत्ति से इतना विचलित हो जाए। ऐसा लगता है कि यह एक आंतरिक जंग है। देखना है कि इसमें अंतत: कौन जीतता है।राजगीर के चिंतन श्वििर में कार्यकर्ताओं के सरकार विरोधी भाषणों ने नीतीश कुमार की चिंता बढ़ा दी। उन्हें अपने समापन भाषण में यह कहना पड़ा कि यदि कार्यकर्तागण इतने ही नाराज हैं तो वे अपना नया नेता चुन लें। पर यदि मुझे चुना है तो मैं अपने ही ढंग से काम करूंगा और किसी को लूट की छूट नहीं दूंगा। यानी जद(यू)कार्यकर्ताओं के एक बड़े हिस्से के दिलोदिमाग पर से अब भी पुरानी राजनीतिक कार्य संस्कृति का भूत नहीं उतर रहा है। कमोबेश यही स्थिति उस प्रशासनिक कार्यपालिका की है जिसका साथ लेकर नीतीश कुमार बिहार का कायापलट करना चाहते हैं। नीतीश कुमार ने हाल ही में चंपारण के गांवों में 5 रातें बिताने के बाद पटना में एक सार्वजनिक मंच से जनता से अपील कर दी कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल दें। सरजमीं की फर्स्ट हैंड जानकारी लेकर लौटे मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार में भ्रष्टाचार के खात्मे के बगैर विकास का लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच सकता। हम जहां-तहां से साधन जुटा कर उसे इस गरीब राज्य के विकास कार्यों में खर्च करना चाहते हैं, पर भ्रष्टाचार में वे पैसे बीच में ही लूट लिए जाएं, यह हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। उससे पहले वे खुद भी राज्य भर के सरकारी दफ्तरों में फैले भीषण भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कारगर प्रशासनिक व कानूनी कार्रवाइयां करने जा रहे हैं, उनकी ताजा टिप्पणियों से यह संकेत मिला है। यह जानकारी तो उन्हें पहले से ही थी कि राज्य सरकार के अफसरों और कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार के कारण सरकारी विकास व कल्याण योजनाओं का कम ही लाभ आम जनता तक पहुंच पा रहा है। इसीलिए उन्होंने कह रखा था कि वे अब भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार अफसरों और कर्मचारियों के मुकदमों की सुनवाई त्वरित अदालतों में कराने की व्यवस्था कराएंगे। साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा कर रखी है कि घूसखोरी के आरोप में सरकारीकर्मियों को पकड़वाने वालों को 50 हजार रूपए तक का इनाम दिया जाएगा। यदि किसी भ्रष्ट अफसर के पकड़े जाने पर बड़ी मात्रा में काले धन का पता चलता है तो उस राशि का दो प्रतिशत इनाम के रूप में अलग से मिलेगा। उन्होंने अपने दल के कार्यकर्ताओं से पहले अपील की थी कि वे भ्रष्टों को पकड़वाने में सरकार की मदद करें। पर कोई कार्यकर्ता अब तक सामने नहीं आया। आज की राजनीति ही ऐसी हो चुकी है कि शायद ही किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को घूसखोरों पर अब कोई गुस्सा आता है। इसी कारण मुख्यमंत्री को आम जनता से अपील करनी पड़ी। देखना यह है कि कहां से कितनी मदद मिलती है, पर संकेत है कि राज्य सरकार त्वरित अदालतों के गठन के लिए जल्दी ही पटना हाई कोर्ट से गुजारिश करेगी। अपराध से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए बिहार में गठित त्वरित अदालतों ने कमाल किया है। गत तीन साल में करीब 28 हजार अपराधियों को निचली अदालतों से सजाएं मिल चुकी हैं। नतीजतन अब बिहार में ‘जंगल राज’ नहीं है।आम लोगों ने उनकी विकास यात्रा के दौरान चंपारण में मुख्यमंत्री को बताया कि डकैतों का भय तो अब नहीं है, पर भ्रष्ट अफसर डकैत की तरह ही गरीब जनता को लूट रहे हैं। बिना घूस के सरकार का कोई काम नहीं हो रहा है। यह सुशासन नहीं बल्कि घूस–शासन है। पांचों दिन मुख्यमंत्री को यही सुनना पड़ा। नीतीश कुमार ने देखा कि उनके भ्रष्ट अफसर और कितने ताकतवर हो चुके हैं कि उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं हैं ! मुख्यमंत्री तो भ्रष्टाचार पर अपराध की तरह ही काबू पाने की कोशिश करेंगे। उसमें उन्हें सफलता भी मिल सकती है जिस तरह अपराध के मोर्चे पर मिल चुकी है। पर सवाल यह है कि भ्रष्ट अफसर और कर्मचारी इतने निर्भीक कैसे हो चुके हैं कि उन्हें एक ऐसे मुख्यमंत्री की भी कोई परवाह नहीं है जो भीषण सरकारी भ्रष्टाचार का खात्मा चाहता है? बिहार के निगरानी दस्ते ने पिछले तीन साल में महा निदेशक स्तर के पुलिस अफसर और कलक्टर स्तर के आईएएस अफसर को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार किया। इसके बावजूद सरकारी दफ्तरों में गत तीन साल में भ्रष्टाचार बढ़ा।बिहार सरकार में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। इस भ्रष्टाचार ने तो सभी मानकों में बिहार को देश के राज्यों की सूची में पिछले वर्षों में सबसे निचले पायदान पर ठेल दिया था। सन् 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी सक्सेना ने कहा था कि बिहार में नौकरशाही के सर्वोच्च शिखर तक चूंकि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, इसलिए निचले तबके के अधिकारियों के मन में पैसा बनाने के खिलाफ भय समाप्त हो गया है।’ नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद लगा था कि यह समाप्त हुआ भय वापस आ जाएगा। पर, ऐसा नहीं हुआ।ऐसा क्यों हुआ ? सवाल यह है कि ऐसे भ्रष्ट सरकारी मुलाजिमों को ताकत कहां से मिल रही है? दरअसल उन्हें ताकत राजनीतिक कार्यपालिका के एक बड़े हिस्से और अनेक जन प्रतिनिधियों के भ्रष्ट आचरण से मिल रही है। एमपी–विधायक फंड में जारी घूसखारी और कमीशनखोरी ने अफसरों और कर्मचारियों को और भी बेखौफ और निर्लज्ज बना दिया है। ऐसे जन प्रतिनिधियों की संख्या अब काफी कम है जो अपने फंड के बदले ठेकेदारों से कमीशन नहीं लेते। एमपी–विधायक फंड से हो रहे निर्माण कार्यों का कार्यान्वन और पर्यवेक्षण वही अफसर, ठेकेदार और इंजीनियर करते हैं जो राज्य के अन्य विकास कार्यों का काम करते हैं। वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने यूं ही इस बात की सिफारिश नहीं की है कि एमपी–विधायक फंड को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। हालांकि राजनीति और प्रशासन पर इसके कुप्रभाव को देखते हुए बिहार के तीनों प्रमुख नेता नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव और राम विलास समय-समय पर यह कह चुके हैं कि एमपी–विधायक फंड को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

कैसे कामयाब हो रोजगार गारंटी योजना


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाना और इस तरह हमारे गांवों में रोजगार के अधिकार को स्थापित करना यूपीए सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी गई है। इस कानून के अन्तर्गत बनी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मूलत: अच्छी योजना है। यदि इस अधिनियम का क्रियान्वयन सही ढंग से हो और जो कानून में कहा गया है, वह ठीक-ठीक जमीनी स्तर पर दिखे, तो गरीबी दूर करने में इस योजना की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पर्यावरण संरक्षण के कार्य व टिकाऊ विकास की बुनियाद तैयार करने वाले बहुत से कार्य इसके अन्तर्गत हो सकते हैं। अंतिम लक्ष्य तो यही है कि गांवों के टिकाऊ व आत्म–निर्भर विकास की बुनियाद तैयार हो तथा इस योजना का उपयोग इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए। टिकाऊ विकास के लिए, जल व मिट्टी संरक्षण तथा हरियाली बढ़ाने के कार्यों को करने के लिए अब इस योजना के कारण पहले से कहीं अधिक बजट उपलब्ध हो सकता है, यह बड़ी उपलब्धि होगी।पर, इन तमाम संभावनाओं का अपेक्षाकृत अच्छा उपयोग अभी देश के कमोबेश छोटे क्षेत्र में ही हो पा रहा है। देश के बड़े क्षेत्र में अभी उम्मीद के अनुकूल परिणाम रोजगार के अधिकार के इस कानून से नहीं मिल सके हैं, जिसे ‘नरेगा’ कहा जा रहा है। सवाल है कि जहां बेहतर परिणाम मिले हैं, वहां की स्थितियां कैसी थीं, ताकि इन स्थितियों को बड़े पैमाने पर उत्पन्न कर पूरे देश में इस योजना को सफल बनाया जा सके।‘नरेगा’ की सफलता के लिए बहुत महत्वपूर्ण शर्त यह है कि गांववासियों के व विशेषकर उनके कमजोर व जरूरतमंद वर्ग के संगठन मजबूत होने चाहिए। यदि ये संगठन मजबूत होंगे, तो जॉब कार्ड बनवाने, विधिसम्मत ढंग से रोजगार मांगने, रोजगार स्थल पर उचित मजदूरी व अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करने व रोजगार न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करने जैसे सभी कार्य ठीक से हो सकेंगे। दूसरी आ॓र, संगठन न होने पर अकेले कोई संवेदनहीन हो चली व्यवस्था में रोजगार की मांग के लिए देर तक संघर्ष नहीं कर सकता।दूसरी मुख्य बात यह है कि गांव व पंचायत की योजना बनाने का कार्य संतोषजनक ढंग से होना चाहिए। यदि पंचायत स्तर की अच्छी योजनाएं बनी हैं, तो आसानी से चुनाव हो सकता है कि किस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर पहले करना है। अच्छी योजना बनाने का अभिप्राय यह है कि सभी लोगों की भागीदारी हो, महिलाओं व कमजोर आर्थिक–सामाजिक वर्ग विशेषकर दलित समुदायों पर विशेष ध्यान दिया जाए, टिकाऊ विकास व पर्यावरण संरक्षण की जरूरतों को भली–भांति समझकर कार्य किया जाए।इस योजना की तीसरी अहम शर्त है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए असरदार कदम उठाए जाएं। हालांकि ‘नरेगा’ में पारदर्शिता व जनता की जांच–निगरानी के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, पर जब ग्रामीण विकास कार्यों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो, तो इन प्रावधानों की उपेक्षा होने लगती है। अत: भ्रष्टाचार करने वालों के विरूद्ध असरदार कार्यवाही करना व उन्हें न्यायोचित सजा दिलाना जरूरी है, ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।जब रोजगार गारंटी की बात की जाती है, तो ‘गारंटी’ पक्ष के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि रोजगार की व्यवस्था न होने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। ‘नरेगा’ में बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था है, पर इस बारे में कानून उतना मजबूत नहीं है, जितना होना चाहिए व क्रियान्वयन तो और भी कमजोर है। अत: बेरोजगारी भत्ते के मामले में कानून और क्रियान्वयन- दोनों को मजबूत किया जाए।आंकड़ों के अनुसार, योजना पर अभी तक जो खर्च हुआ है, वह जरूरतमंदों को एक सौ दिन का रोजगार दिलाने के लिए काफी कम है। वर्ष 2006–07 में ‘नरेगा’ पर 8,823 करोड़ रूपए खर्च हुए, 2007–08 में 15,857 करोड़ रूपए व 2008–09 में 17,076 करोड़ रूपए खर्च हुए। औसतन एक जिले पर 30 करोड़ रूपए का खर्च अभी बहुत कम है। जब यह ध्यान में रखें कि इसका महत्वपूर्ण हिस्सा भ्रष्टाचार में चला गया, तो यह उपलब्धि और भी कम हो जाती है। जब जमीनी स्तर पर जरूरतमंद लोग यह महसूस करते हैं कि उन्हें सौ दिन की अपेक्षा तीस–चालीस दिन ही काम मिला, पूरी मजदूरी नहीं मिल रही है या देर से मिल रही है, तो उन्हें बहुत निराशा होती है। इसके साथ पुरानी रोजगार योजनाएं रोकी गईं व कई सूखा प्रभावित क्षेत्रों में अलग से राहत कार्य शुरू नहीं किए गए, जिससे जरूरतमंदों को मिलने वाली राहत कम हो गई। पहले खाघ के बदले कार्य व सूखा राहत कार्यों से अनाज जरूरतमंद लोग तक नहीं पहुंचता था, वह अब नजर नहीं आ रहा है। इतना तो तय है कि ‘नरेगा’ के लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।