Friday, February 6, 2009

कैसे कामयाब हो रोजगार गारंटी योजना


राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाना और इस तरह हमारे गांवों में रोजगार के अधिकार को स्थापित करना यूपीए सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी गई है। इस कानून के अन्तर्गत बनी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मूलत: अच्छी योजना है। यदि इस अधिनियम का क्रियान्वयन सही ढंग से हो और जो कानून में कहा गया है, वह ठीक-ठीक जमीनी स्तर पर दिखे, तो गरीबी दूर करने में इस योजना की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पर्यावरण संरक्षण के कार्य व टिकाऊ विकास की बुनियाद तैयार करने वाले बहुत से कार्य इसके अन्तर्गत हो सकते हैं। अंतिम लक्ष्य तो यही है कि गांवों के टिकाऊ व आत्म–निर्भर विकास की बुनियाद तैयार हो तथा इस योजना का उपयोग इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए। टिकाऊ विकास के लिए, जल व मिट्टी संरक्षण तथा हरियाली बढ़ाने के कार्यों को करने के लिए अब इस योजना के कारण पहले से कहीं अधिक बजट उपलब्ध हो सकता है, यह बड़ी उपलब्धि होगी।पर, इन तमाम संभावनाओं का अपेक्षाकृत अच्छा उपयोग अभी देश के कमोबेश छोटे क्षेत्र में ही हो पा रहा है। देश के बड़े क्षेत्र में अभी उम्मीद के अनुकूल परिणाम रोजगार के अधिकार के इस कानून से नहीं मिल सके हैं, जिसे ‘नरेगा’ कहा जा रहा है। सवाल है कि जहां बेहतर परिणाम मिले हैं, वहां की स्थितियां कैसी थीं, ताकि इन स्थितियों को बड़े पैमाने पर उत्पन्न कर पूरे देश में इस योजना को सफल बनाया जा सके।‘नरेगा’ की सफलता के लिए बहुत महत्वपूर्ण शर्त यह है कि गांववासियों के व विशेषकर उनके कमजोर व जरूरतमंद वर्ग के संगठन मजबूत होने चाहिए। यदि ये संगठन मजबूत होंगे, तो जॉब कार्ड बनवाने, विधिसम्मत ढंग से रोजगार मांगने, रोजगार स्थल पर उचित मजदूरी व अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करने व रोजगार न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करने जैसे सभी कार्य ठीक से हो सकेंगे। दूसरी आ॓र, संगठन न होने पर अकेले कोई संवेदनहीन हो चली व्यवस्था में रोजगार की मांग के लिए देर तक संघर्ष नहीं कर सकता।दूसरी मुख्य बात यह है कि गांव व पंचायत की योजना बनाने का कार्य संतोषजनक ढंग से होना चाहिए। यदि पंचायत स्तर की अच्छी योजनाएं बनी हैं, तो आसानी से चुनाव हो सकता है कि किस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर पहले करना है। अच्छी योजना बनाने का अभिप्राय यह है कि सभी लोगों की भागीदारी हो, महिलाओं व कमजोर आर्थिक–सामाजिक वर्ग विशेषकर दलित समुदायों पर विशेष ध्यान दिया जाए, टिकाऊ विकास व पर्यावरण संरक्षण की जरूरतों को भली–भांति समझकर कार्य किया जाए।इस योजना की तीसरी अहम शर्त है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए असरदार कदम उठाए जाएं। हालांकि ‘नरेगा’ में पारदर्शिता व जनता की जांच–निगरानी के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, पर जब ग्रामीण विकास कार्यों में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो, तो इन प्रावधानों की उपेक्षा होने लगती है। अत: भ्रष्टाचार करने वालों के विरूद्ध असरदार कार्यवाही करना व उन्हें न्यायोचित सजा दिलाना जरूरी है, ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।जब रोजगार गारंटी की बात की जाती है, तो ‘गारंटी’ पक्ष के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि रोजगार की व्यवस्था न होने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। ‘नरेगा’ में बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था है, पर इस बारे में कानून उतना मजबूत नहीं है, जितना होना चाहिए व क्रियान्वयन तो और भी कमजोर है। अत: बेरोजगारी भत्ते के मामले में कानून और क्रियान्वयन- दोनों को मजबूत किया जाए।आंकड़ों के अनुसार, योजना पर अभी तक जो खर्च हुआ है, वह जरूरतमंदों को एक सौ दिन का रोजगार दिलाने के लिए काफी कम है। वर्ष 2006–07 में ‘नरेगा’ पर 8,823 करोड़ रूपए खर्च हुए, 2007–08 में 15,857 करोड़ रूपए व 2008–09 में 17,076 करोड़ रूपए खर्च हुए। औसतन एक जिले पर 30 करोड़ रूपए का खर्च अभी बहुत कम है। जब यह ध्यान में रखें कि इसका महत्वपूर्ण हिस्सा भ्रष्टाचार में चला गया, तो यह उपलब्धि और भी कम हो जाती है। जब जमीनी स्तर पर जरूरतमंद लोग यह महसूस करते हैं कि उन्हें सौ दिन की अपेक्षा तीस–चालीस दिन ही काम मिला, पूरी मजदूरी नहीं मिल रही है या देर से मिल रही है, तो उन्हें बहुत निराशा होती है। इसके साथ पुरानी रोजगार योजनाएं रोकी गईं व कई सूखा प्रभावित क्षेत्रों में अलग से राहत कार्य शुरू नहीं किए गए, जिससे जरूरतमंदों को मिलने वाली राहत कम हो गई। पहले खाघ के बदले कार्य व सूखा राहत कार्यों से अनाज जरूरतमंद लोग तक नहीं पहुंचता था, वह अब नजर नहीं आ रहा है। इतना तो तय है कि ‘नरेगा’ के लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

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