Friday, February 6, 2009

खेती में पिछड़ता भारत


पिछले दो दशकों में भले ही अन्य क्षेत्रों में हम अव्वल साबित हुए हों लेकिन, खाघ उत्पादन में हम पड़ोसी मुल्कों से भी पिछड़ गए हैं। पिछड़ने का दर्द इसलिए भी ज्यादा है कि हमारी गिनती कभी कृषि प्रधान देशों में होती थी, हमारे यहां औसत कृषि जोत अब भी ज्यादा है और पड़ोसी देशों से एक समान सामाजिक पृष्ठभूमि साझा करते हैं। लेकिन आलम ये है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ की खाघ फसलों की उत्पादकता वृद्धि दर में हम गए गुजरे हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि भारत कृषि उत्पादन में पड़ोसी मुल्कों से पिछड़ गया है। दरअसल कृषि उत्पाद में हम आज भी दक्षिण एशियाई देशों में दिग्गज हैं लेकिन, खाघ फसल मसलन, गेहूं, चावल, दाल की पैदावार वृद्धि दर में हमारी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई है। यह चिंता की बात है, न केवल किसानों के लिए बल्कि आम नागरिकों के लिए भी क्योंकि पेट की भूख मिटाना सबकी प्राथमिकता में शामिल है। इसके अलावा ये इस मायने में खतरे की घंटी भी है कि कहीं खेती-किसानी प्रधान मुल्क भारत का अस्तित्व ही तो नहीं मिट रहा है। खाघ उत्पादन के मामले में हमारे दावे कितने सही हैं, इसका अंदाजा नवंबर 2008 में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के कृषि मंत्रियों की हुई बैठक में चला। नई दिल्ली में हुई इस बैठक में सभी आठ देशों ने खाघ फसलों के उत्पादन संबंधी दस्तावेज एक दूसरे से साझा किए। इसके अलावा बैठक में संयुक्त राष्ट्र खाघ एवं कृषि संगठन (एफएआ॓) की नीतियों पर भी चर्चा हुई। जो बात प्रमुखता से उभर कर सामने आई वो है, फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के मामले में भूटान पहले स्थान पर है। यहां तक कि नेपाल, अफगानिस्तान और बांग्लादेश भी पिछले दो दशकों में खाघ फसलों की उत्पादन दर में भारत से आगे हैं। अब चावल को ही लीजिए, सार्क देशों में चावल की खेती बड़े पैमाने पर होती है। भारत में तो इसकी खेती और भी बड़े पैमाने पर की जाती है। हालांकि अब भी विश्व के चुनिंदा चावल उत्पादक देशों में हमारी गिनती होती है। लेकिन इसकी औसत वृद्धि दर 1991-93 और 2005-07 के बीच भारत में महज 1.21 फीसद रही। जबकि भूटान में सबसे ज्यादा 3.37 फीसद दर्ज की गई। इसी दौरान बांग्लादेश में 2.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई। यही नहीं, पाकिस्तान और श्रीलंका में 1.80 और 1.40 फीसद क्रमश: दर्ज की गई। जहां तक गेहूं उत्पादन की बात है तो सार्क देशों की यह दूसरी प्रमुख खाघ फसल मानी जाती है। यहां भी अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान हमसे आगे हैं। अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 3.44 फीसद रही। दूसरे पायदान पर नेपाल 3.39 फीसद के साथ रहा। जबकि भारत 0.86 फीसद के साथ पांचवें पायदान पर खिसक गया। कहने के लिए कहा जा सकता है कि इन सालों के बीच उत्पादकता के लिहाज से मानसून अनुकूल नहीं रहा है, जो कि अफगानिस्तान और नेपाल पर लागू नहीं होता है। लेकिन इस तर्क को ज्यादा सटीक नहीं माना जा सकता, इसलिए कि यही मानसून श्रीलंका और बांग्लादेश पर भी लागू होती है। अगर हम कुल अनाज उत्पादन के लिहाज से भारत की तुलना दूसरे सार्क देशों से करें तो भारत श्रीलंका के साथ अंतिम पायदान पर नजर आता है। भूटान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर 5.12 है और भारत का 1.46 फीसद है। ये हाल तब है जबकि हमारे यहां औसत कृषि जोत सबसे ज्यादा है, देश की कुल आबादी का तीन चौथाई हिस्सा खेती को अपना रोजगार मानता है। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि इन सालों में नकदी फसलों का उत्पादन बढ़ा है। अभिप्राय यह कि किसानों ने चावल, गेहूं के बजाय कपास और जूट जैसी फसलों के उत्पादन पर जोर दिया है। दूसरी आ॓र सब्जी की खेती भी अब पहले की तुलना में बड़े पैमाने पर की जाने लगी है। लेकिन यह भी सचाई है कि 1960 की हरित क्रांति का असर अब खत्म होने लगा है। लोगों को अब खेती में, खासकर अनाज उत्पादन में ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है। जहां तक सार्क देशों से पिछड़ने की बात है तो 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद स्थिति में बड़ी तेजी से बदलाव आया है। भारत में शहरीकरण, उच्च शिक्षा, बीपीआ॓, विज्ञान एवं तकनीक और प्रशासनिक सुधारों पर जोर दिया जाने लगा है। हम आर्थिक नजरिए से खुद को मजबूत बनाते गए। दूसरी आ॓र सालों तक अनाज के लिए हम पर निर्भर रहने वाले छोटे-छोटे सार्क देश खेती-किसानी पर ज्यादा जोर देने लगे। इस बीच हमारी कृषि नीतियां महज कागजी ही साबित हुई और हम पडा़ेसी मुल्कों से पिछड़ते गए। बहरहाल अब प्रश्न यह है कि भारत खाघान्न उत्पादन के मामले में क्या कारगर कदम उठाए? हमारी आबादी एक अरब से ज्यादा है और हम खाघ उत्पादन में पिछड़ते जाएंगे तो निस्संदेह एक दिन हमारी आबादी या तो भूखे सोएगी या दूसरे देश का अनाज खाएगी। इसलिए जरूरी इस बात की है कि हम पडा़ेसी मुल्क से कुछ सीखें और अपनी कृषि नीतियों पर फिर से विचार करें।

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