Friday, February 6, 2009

पटेल दूर, नेहरू निकट क्यों थे बापू के.....


बात गत सदी की है। छह दशक पुरानी। आखिर महात्मा गांधी ने वल्लभभाई पटेल को क्यों गौण किए रखा और जवाहरलाल नेहरू के प्रति क्यों पक्षपाती रहे? भारत के सोशलिस्ट, खासकर जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जो नेहरू का जयघोष करते थे, का जब मोहभंग हुआ तो इन्होंने अपनी ‘ऐतिहासिक भूल’ को माना। कालचक्र तब तक घूम चुका था। आज भी यह यक्ष प्रश्न है कि रघुकुल में जन्मे राम के अनन्य भक्त, सत्य वचन पर सदैव अडिग, अति मानवीय गुणवाले गांधीजी ने भेदभाव क्यों किया? कहीं उनकी अवचेतना में यह तो नहीं था कि वे और पटेल एक ही भाषा (गुजराती) बोलते हैं। आजादी के आंदोलन में हिन्दीवालों की बहुलता थी, अत: नेतृत्व उन्हीं का होना चाहिए। वह दौर भी द्विज वर्ण के वर्चस्व का था। रंग-रूप से ठेठ गंवई भारत में शिक्षित पटेल कुर्मी थे। नेहरू पाश्चात्य शैली में रंगे, विदेश में पढ़े, लोहित वर्ण के विप्र थे। उनके जीवन के चौथे चरण (आयु 76 वर्ष) में गांधीजी के मुतल्लिक ये बातें क्षुद्र लगेंगी। आध्यात्मिक उत्कर्ष के शीर्ष सोपान पर पहुंचे बापू जरूर राग-द्वेष से परे तो रहे होंगे, मगर सारथी भी तो ईश्वर था जो कुरूक्षेत्र में पार्थ के प्रति अनुरागी था।एक दस्तावेजी घटना (1946 की) है, जिससे लगता है कि गांधीजी ने नेहरू को अन्य के मुकाबले बचाया, बढ़ाया और प्रायोजित किया। भारत सरकार के फिल्म प्रभाग की (इंदिरा गांधी युग में निर्मित) डाक्युमेंटरी ‘सरदार पटेल’ शीर्षक से है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में मौलाना आजाद की जगह नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था। गांधीजी ने सदस्यों को सूचित किया कि लगभग सारी प्रदेश समितियों ने सरदार पटेल का नामांकन भेजा। नेहरू के लिए प्रस्ताव नगण्य थे! फिर बापू ने पटेल की आ॓र मुखातिब होकर कहा, ‘सरदार, मैं चाहता हूं कि तुम जवाहर के पक्ष में अपना नामांकन वापस ले लो।’ सिर्फ दो शब्द में पटेल ने उत्तर दिया : ‘जी बापू।’ नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बन गये और कुछ महीनों में अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री भी।यूं इतिहास में ढेर सारे उदाहरण हैं, जिसमें राष्ट्र-नायकों और उनके उत्तराधिकारियों में विचार- वैषम्य उभरा है। व्लादिमिर लेनिन के निधन के बाद जोसेफ स्टालिन ने उनकी विचारधारा ही उलटा दी। माआ॓ जेडोंग के पूंजीशाही जानशीनों ने कम्युनिज्म को माआ॓ के शव के साथ संलेपित कर उनके ताबूत में सील बंद कर दिया। नेहरू ने तो बापू के जीते जी उन्हें नकार दिया था। अपनी डायरी में 1936 में नेहरू ने लिखा कि वे निश्चित राय के हैं कि बापू के साथ सहयोग मुमकिन नहीं है। ‘हम दोनों को अब अलग राहें लेनी पड़ेंगी।’ उन्हीं दिनों गांधीजी ने अपने अंग्रेज मित्र अगाथा हैरिसन को लिखा था : ‘जवाहर अब मेरा नहीं रहा। मुझे उसके तौर-तरीके पसंद नहीं हैं।’ गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन पर नेहरू ने जो कहा, उसे पत्रकार लुई फिशर ने अपनी पुस्तक ‘गांधी, उनका जीवन और विश्व को संदेश’ में दर्ज किया है। नेहरू ने बापू को 13 अगस्त, 1943 को लिखा- ‘इस बार जेल आना मेरी धमनियों के लिए कठिन परीक्षा जैसा है।’ गांधीजी के संघर्ष–दर्शन पर अपनी शंका नेहरू ने 1942 में व्यक्त की। तब वे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से सहमत थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में ‘भारत छोड़ो’ जैसा आन्दोलन ब्रिटेन को जर्मनी के खिलाफ लड़ने में कमजोर कर देगा। राजगोपालाचारी ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव का विरोध और पाकिस्तान की मांग का खुलकर समर्थन किया था, मगर बाद में समय की नजाकत को भांपकर नेहरू मुंबई अधिवेशन में शरीक हुए और गांधीजी का समर्थन किया। वे तब तीन वर्ष (9 अगस्त, 1942 से 14 जुलाई, 1945) तक अहमदनगर किले की जेल में कैद रहे।संघर्ष से थकान ही थी कि नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेता हर कीमत पर ब्रिटेन से समझौता चाहते थे, भले ही भारत का विभाजन हो जाय। गांधीजी ने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। यह नाथूराम गोड्से ने सचकर दिखाया, जब पाकिस्तान बनने के साढ़े पांच महीनों में ही गांधीजी की हत्या कर दी गई। गांधीजी और नेहरू की दूरी सदैव के लिए हो गई, जब संगम तट पर बापू का नेहरू ने अस्थि विसर्जन किया। वही तब श्रद्धाजंलि जनसभा में नेहरू के भाषण के बाद सम्पादक दुर्गादास के कान में रफी अहमद किदवई ने कहा, ‘जवाहरलाल ने आज गांधीजी ही नहीं, बल्कि गांधीवाद का भी अंतिम संस्कार कर दिया।’ (फ्रॉम कर्जन टु नेहरू : दुर्गादास)। गांधीजी ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को भारतीय धरती पर रोपित करने के विरूद्ध थे, क्योंकि इसके तहत दो वर्ग- शासक और शासित ही पैदा होते हैं। राजकाज में जन सहभागीदारी नहीं हो सकती। गांधीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था : ‘ब्रिटिश संसद बांझ है, वारांगना है।’ बांझ इसलिए कि इसने एक भी जन कल्याणकारी कार्य नहीं किया। वेश्या इसलिए कि सांसद भिन्न किस्म के प्रभावों तथा दबावों के तहत काम करने के लिए लाचार होते हैं, मगर नेहरू ने पूरी ताकत जुटा कर यह किया। इसी परिवेश में गांधीजी और नेहरू के परिवारों की राजनीतिक क्रियाशीलता की तुलना भी हो जाए। जवाहरलाल नेहरू लाहौर में दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष उनके निवर्तमान अध्यक्ष पिता मोतीलाल नेहरू के स्थान पर बने थे। महात्मा गांधी ने पद को अस्वीकार कर दिया था। तब पिता द्वारा पुत्र हेतु आग्रह को गांधीजी ने स्वीकार किया था। महात्मा गांधी के परिवार के आज 54 लोग हैं। जो दिवंगत हो गये, वे तो सत्ता से दूर-दूर ही रहे, क्योंकि गांधीजी ने किसी को आने नहीं दिया। अलबत्ता, सत्याग्रही बनाकर उन्हें जेल भेजते रहे। केवल दो का नाम आता है, जो राजनीति की परिधि के इर्द-गिर्द रहे। जैसे उनके पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी जो विदेश सेवा की नौकरी में थे, आज पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं। उन्हीं के भाई राजमोहन गांधी लेखक हैं और बस एक बार उन्होंने अमेठी से राजीव गांधी के विरूद्ध लोकसभा का चुनाव 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर वाले जनता दल के टिकट पर लड़ा था, मगर उनके अग्रज रामचंद्र गांधी नई दिल्ली के बंगाली मार्केट के सेंट्रल लेन स्थित एक गैरेज के ऊपर निर्मित कमरे में रहे। उनके निधन के दिन वहां के चौकीदार को पता चला कि महात्मा गांधी के सत्तर वर्षीय लेखक पौत्र रामचन्द्र का जून, 2007 में निधन हो गया। तो क्या इन सब तथ्यों पर गौर करने के बाद भी कुछ सोचने हेतु शेष रह जाता है कि गांधीजी क्या थे, कैसे थे और आज उनकी याद कितनी बची है?

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