Thursday, July 9, 2009

गे समाज के जय हो ..........


हमारे समाज में समलैंगिकता एक टैबू - एक वर्जना है। कोई भी व्यक्ति प्राय: खुलेआम इस बात को स्वीकार नहीं करेगा। इसकी एक वजह है भारतीय दंड संहिता की धारा 377 जिसके अंतर्गत समलैंगिक संबंध रखना जुर्म है। यह व्यवस्था अंग्रेजों की देन है जिन्होंने अपने यहां तो इससे कभी की मुक्ति पा ली है लेकिन हम इसे ढो रहे हैं। समलैंगिकता पर एक नजरिया धार्मिक है, जो ऐसे सभी अप्राकृतिक यौन संबंधों को पाप मानता है। दूसरा नजरिया वैज्ञानिक है। आज हमें मालूम है कि कुछ लोग जन्मजात समलैंगिक होते हैं या कहिए उनका विकास उस तरह हुआ होता है। हर सभ्यता में ऐसे लोग रहे हैं और अनेक जीव-जंतुओं में भी ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। मसलन पेंग्विन। इसलिए दो वयस्क लोग अगर आपसी सहमति से साथ रहना या संबंध बनाना चाहते हैं तो समाज को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? हां, इस बात की मुकम्मल व्यवस्था समाज और सरकार को करनी चाहिए

और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंकि किसी भी बच्चे का कोई शोषण न कर सके। धारा 377 से संबंधित दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला सिर्फ सहमति पर आधारित वयस्क संबंधों पर ही लागू होता है। यह फैसला एक तरह से हमारे वयस्क हो रहे लोकतंत्र की सभी नागरिकों को अपने में शामिल करने, उन्हें बराबरी का दर्जा देने और गरिमा के साथ जीने की दलील देता है और अब गेंद सरकार के पाले में है कि वह क्या करती है। कई देशों में गे लोग आपस में शादी कर सकते हैं और बच्चे गोद ले सकते हैं। इस फैसले से हमारे यहां भी वयस्क समलैंगिक सिर उठाकर जी सकेंगे। उनका नया नारा है : जय हो, गे हो। लेकिन सरकार के लिए इस फैसले से पैदा हुई स्थिति से निपटना आसान नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली और स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने एक बैठक में इस प्रश्न पर विचार किया है लेकिन लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और कुछ अन्य नेताओं के तेवरों को देखते हुए लगता है कि सर्वानुमति बनाना मुश्किल साबित होगा। देश की अधिकांश जनता निरक्षर है (साक्षरता का अर्थ इतना है कि अनेक लोग अंगूठा लगाने की बजाय अब अपना नाम लिखना सीख गए हैं)। अमेरिका और यूरोप के देशों में लोग अपना सेक्सुअल रुझान बताने में नहीं झिझकते। मसलन मशहूर टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा लेस्बियन रही हैं। अनेक राजनैतिक कार्यकर्ता और जन प्रतिनिधि भी इसी जमात से आते हैं। यही कारण है कि पश्चिम में एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) के अधिकारों के प्रति समाज में सहानुभूति है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने चुनाव अभियान के दौरान एलजीबीटी के नाम एक खुला पत्र लिखकर वादा किया था कि अगर वे जीते तो समलैंगिक शादियों को मान्यता दिलाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेंगे। उन्हें इस जमात का समर्थन भी मिला। भारत में अगर मान लीजिए पांच-सात करोड़ लोग भी इस वर्ग के हों, तो आगे चलकर वे एक वोट बैंक में तब्दील हो सकते हैं। लेकिन भारत में गुजरात की एक पूर्व रियासत के युवराज को छोड़कर (मानवेंद्र सिंह गोहिल) कोई भी बड़ी पब्लिक फिगर अपने सेक्स रुझानों के बारे में बताने के लिए आगे नहीं आई। हमारे यहां अभी सिर्फ सिविल सोसायटी में ही इस वर्ग के प्रति थोड़ी-बहुत सहानुभूति बनी है। ज्यादातर लोग इस प्रश्न पर बात भी नहीं करना चाहते। पता नहीं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई है या कि डार्विन के अनुसार इवोल्यूशन के सिद्धांत पर अस्तित्व में आई है, मगर कहीं न कहीं है कुछ विचित्र गड़बड़झाला। अधिसंख्य प्राणियों में काम और सन्तानोत्पत्ति की एक-सी प्रक्रिया है। फिर एक बहुत ही छोटे से वर्ग में कोई स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति या कोई पुरुष दूसरे पुरुष के प्रति ही आकर्षित क्यों होता है। कहते हैं, सुकरात जैसा महान दार्शनिक भी समलैंगिक था जबकि बाबर ने अपने प्रसिद्ध 'बाबरनामा' में ऐसे बड़े लोगों का उल्लेख किया है जो अपने घरों में बीसियों लौंडे रखते थे। बाबर ने उन्हें फटकारा है। इसलिए कि यह अप्राकृतिक माना जाता था। आज भी माना तो इसे अपवाद ही जाएगा लेकिन अगर दो लोग आपस में खुश हैं तो समाज को कोई हक भी नहीं कि वह उनके साथ भेदभाव करे। वे अगर ऐसे हैं तो इसमें उनका कोई दोष भी तो नहीं। वे अपने हॉर्मोन के कारण, जेनेटिक कारण और माहौल के कारण ऐसे हैं और ऐसे ही रहेंगे। उनका कोई इलाज नहीं हो सकता, जैसा कि स्वामी रामदेव दावा कर रहे हैं। उन्हें ऐसे ही स्वीकार करना होगा। जहां तक प्रतिभा की बात है, वे किसी से कम नहीं होते। जैसे कि खब्बू लोग। जिस तरह समलैंगिकों का एक वर्ग है, उसी तरह पैदल चलनेवालों का भी एक वर्ग है। बहुत बड़ा वर्ग। लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। उनके अधिकारों की कोई बात नहीं करता। क्योंकि एक तो वे गरीब हैं और दूसरे असंगठित। महानगरों की फुटपाथों पर, सड़क पार करते हुए या साइकल चलाते हुए इस वर्ग के सैकड़ों लोग हर साल मारे जाते हैं लेकिन आप विडंबना देखिए कि सिविल सोसायटी उनके बारे में कतई नहीं सोचती। पिछले दिनों दिल्ली के मयूर विहार के निकट एक स्त्री को किसी वाहन ने कुचल डाला। पुलिस जब तक आई महिला का शव पहचाने जाने की स्थिति में नहीं था। क्षत-विक्षत। पुलिस का कहना है कि टक्कर लगने के बाद जब महिला सड़क पर गिरी तो उसे किसी ने नहीं उठाया और अनेक गाडि़यां उसे कुचलते हुए गुजरती रहीं। राजमार्गों पर प्राय: आपने कुत्तों की लाश के ऐसे चिथड़े उड़ते हुए देखे होंगे। तो क्या दिल्ली में एक गरीब महिला कुत्ते से भी कमतर हो गई? दिखावा करने और भागमभाग में रहनेवाले इस शहर में अगर कोई आदमी सड़क पर टक्कर खाकर गिर जाए और आप अपना स्कूटर या गाड़ी रोककर उसे उठाना चाहें तो पीछे से आ रही कारें हॉर्न बजा-बजाकर कहेंगी कि हटो बीच से। दया करनी है तो सड़क के एक किनारे होकर करो। हमें क्यों लेट कर रहे हो। वे गालियां तक दे देते हैं। ज्यादातर गरीब और निम्न मध्यवर्गीय लोग ही मदद को आगे आते हैं जैसे राजमार्ग पर कोई दुर्घटना हो या रेल दुर्घटना हो तो गांव वाले आगे आते हैं। दिल्ली के ज्यादातर लोग हृदयहीन होते जा रहे हैं। गरीबों के प्रति तिरस्कार का भाव। मानो गरीब होना कोई जुर्म हो। इसलिए उनके कुचलकर मरने की खबर भी कोई बड़ी खबर नहीं बनती। और गरीबी इतनी अधिक और इतनी तरह की है कि गरीब लोगों का कोई संगठन नहीं है। उनकी आवाज कौन उठाएगा?

No comments:

Post a Comment