Saturday, January 31, 2009

कांग्रेस का चुनावी दाव

कांग्रेस का चुनावी दांव केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने अगले आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठजोड़ करने के स्थान पर अकेले मैदान में उतरने का जो निर्णय लिया वह उसका एक राजनीतिक दांव हो सकता है, लेकिन यदि वह यह सोच रही है कि उसे अपने दम पर सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा तो उसे निराश होना पड़ सकता है। कांग्रेस का यह निर्णय यह भी बताता है कि अधिकांश क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस भी गठबंधन की राजनीति को अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहती है। 2004 के पिछले आम चुनाव में भी कांग्रेस छिटपुट राज्यों में गठजोड़ को छोड़कर अपने बलबूते मैदान में उतरी थी, पर तब भी उसने यह उम्मीद शायद ही की हो कि उसे सत्ता में दावेदारी करने लायक सीटें मिल सकेंगी। चुनाव परिणाम सामने आने के बाद कांग्रेस ने भाजपा से अधिक सीटें जरूर हासिल कीं, लेकिन बहुमत से वह दूर ही रही। तब उसने कथित पंथनिरपेक्ष दलों को अपने साथ लाकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का निर्माण किया और पांच साल तक सत्ता में रहे इस समूह का नेतृत्व किया। ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं को देखते हुए अपनी चुनावी रणनीति को नए सिरे से निर्धारित कर रही है। वास्तव में कांग्रेस को आम चुनाव के संदर्भ में दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। एक तो संप्रग के कुछ घटक दल आम चुनाव के बाद सरकार गठन के लिए अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं-विशेषकर प्रधानमंत्री चयन के मामले में और दूसरे, स्वयं कांग्रेस नेतृत्व के संदर्भ में यह तय करने में कठिनाई का अनुभव कर रही है कि किसे आगे कर आम चुनाव में उतरा जाए? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अस्वस्थता के कारण कांग्रेस की यह परेशानी बढ़ी ही है। यह संभव है कि स्वास्थ्य कारणों से मनमोहन सिंह अगली सरकार में अपनी दावेदारी न पेश कर सकें। संप्रग के घटक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को भले ही उनकी महत्वाकांक्षा माना जाए, लेकिन गठबंधन की राजनीति में जिस तरह सिद्धांतों और आदर्शों को कोई भी राजनीतिक दल महत्व देने के लिए तैयार नहीं उससे कांग्रेस का शरद पवार की ऐसी किसी मुहिम से असहज होना स्वाभाविक है। वैसे तो कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि वह कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी तालमेल कर सकती है, लेकिन उसने जिस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल के साथ गठबंधन न करने का फैसला किया उससे उन क्षेत्रीय दलों के मंसूबे अधूरे रह सकते हैं जो अपनी उपस्थिति दूसरे राज्यों में दर्ज कराना चाहते हैं। अनेक ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो किसी राज्य विशेष में तो अपना व्यापक जनाधार रखते हैं, लेकिन उससे बाहर उनकी कहीं कोई उपस्थिति नहीं। संप्रग में शामिल या उसके साथ नजदीकी रखने वाले ऐसे क्षेत्रीय दलों को निश्चित ही कांग्रेस की यह घोषणा रास नहीं आने वाली कि वह चुनाव के पूर्व कोई राष्ट्रीय गठजोड़ बनाने के लिए तैयार नहीं। इस संदर्भ में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का जिक्र किया जा सकता है, जो अपने जनाधार वाले राज्यों-उत्तर प्रदेश और बिहार के बाहर कोई विशेष सफलता नहीं हासिल कर पा रहे हैं। सिर्फ यही दोनों दल ही नहीं, बल्कि लगभग सभी क्षेत्रीय दल अपने को राष्ट्रीय दल के रूप में पेश करने के लिए कई राज्यों में प्रत्याशी उतारते हैं, लेकिन उन्हें मनमाफिक सफलता नहीं मिलती। अभी यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं कि क्या कांग्रेस उसी दौर में फिर से लौट रही है जब वह किसी के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार नहींथी? आखिर यह एक सच्चाई है कि कांग्रेस एक लंबे अर्से तक गठबंधन की राजनीति के यथार्थ को स्वीकार नहीं कर सकी। यह राष्ट्रीय स्तर पर उसकी शक्ति सिमटते जाने का ही परिणाम है कि उसने गठबंधन की राजनीति को न केवल गले लगाया, बल्कि अनेक क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार भी गठित की। कांग्रेस भले ही यह महसूस करे कि चुनाव में अकेले उतरने का उसका निर्णय क्षेत्रीय दलों को यह नसीहत है कि वे देश पर राज करने का सपना न देखें, लेकिन उसे इस फैसले की कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। कांग्रेस ने यदि यह निर्णय अपनी मजबूती वाले राज्यों में सीटों के बंटवारे से बचने के लिए किया है तो उसे यह भी देखना होगा कि उन राज्यों में उसे अपेक्षित कामयाबी कैसे मिलेगी जहां उसकी स्थिति कमजोर है? चुनाव पूर्व गठबंधन से दूर रहने के कांग्रेस के दृष्टिकोण से संप्रग के घटक दलों का इसलिए भी बेचैन होना स्वाभाविक है, क्योंकि गठबंधन का कोई साझा घोषणा पत्र न होने के कारण कांग्रेस मौजूदा सरकार के सभी बेहतर कार्यों का श्रेय स्वयं लेने की कोशिश कर सकती है। आम जनता के लिए यह निर्णय करना कठिन होगा कि जो अच्छे कार्य हुए हैं उनके पीछे कांग्रेस का योगदान है या संप्रग का? वैसे तो राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के अपने भविष्य के लिए यह उचित हो सकता है कि वह अकेले चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन इससे गठबंधन राजनीति के मौजूदा दौर में उन दलों को बढ़ावा ही मिलेगा जो चुनाव बाद सत्ता पाने के लिए गठजोड़ करने की फिराक में रहते हैं। यदि कांग्रेस इस बार भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो वह उन्हीं दलों के साथ गठबंधन की अपेक्षा करेगी जिनके साथ वह चुनाव पूर्व गठबंधन करना उचित नहीं समझ रही है। चुनाव बाद गठबंधन की आड़ में जनादेश का जिस प्रकार निरादर किया जाता है उसमें यह संभव है कि वे क्षेत्रीय दल भी साझा सरकार गठित करने के लिए कांग्रेस को समर्थन दें जो चुनावों में उसके खिलाफ जीत हासिल कर आए हों। यह कुछ और नहीं, मतदाताओं के साथ खिलवाड़ ही है कि राजनीतिक दल उनसे जिस दल की नीतियों और कार्यों के खिलाफ समर्थन मांगते हैं, परिणाम आने के बाद उसी के साथ सरकार बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। विडंबना यह है कि गठबंधन की राजनीति में इस प्रकार की धोखाधड़ी से कोई भी राजनीतिक दल दूर नहीं। अकेले चुनाव में उतरने की कांग्रेस की घोषणा के प्रति संप्रग के घटक दलों की प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो, लेकिन इसमें अधिक संदेह नहीं कि चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। इस संदर्भ में वामपंथी दलों के रुख पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा, जिन्होंने लगभग साढ़े चार साल तक संप्रग सरकार को बाहर से समर्थन दिया। इसके अतिरिक्त अन्नाद्रमुक और तेलगुदेशम पार्टी जैसी कुछ अन्य क्षेत्रीय शक्तियां भी हैं, जिन्होंने संप्रग अथवा राजग में किसी के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित नहीं किया है। जैसी कि वर्तमान राजनीतिक स्थितियां हैं, कांग्रेस और भाजपा की बात तो दूर, उनके नेतृत्व वाले संप्रग और राजग के लिए भी यह दावा करना कठिन है कि उन्हें सरकार गठित करने लायक बहुमत मिल जाएगा। संभवत: यही कारण है कि राजग अपना आकार बढ़ाने की कोशिश में है। गठबंधन की राजनीति में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन यह जरूरी है कि राजनीतिक दलों के बीच तालमेल किन्हीं सिद्धांतों के आधार पर हो। यदि राजनीतिक दल गठबंधन के नाम पर सिद्धांतहीन तालमेल अर्थात अवसरवादिता को बढ़ावा देंगे तो इससे न केवल राजनीति के प्रति आम जनता की अरुचि बढ़ेगी, बल्कि वे आधार भी कमजोर होंगे जिन पर हमारा लोकतंत्र खड़ा है।

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