Monday, February 2, 2009

किस मुद्दे पर लड़े जाएंगे आम चुनाव


आम चुनावों में अब कुछ ही महीने शेष रह गए हैं। इसे देखते हुए देश में यह बहस जोरों पर है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में मतदाताओं को रिक्षाने के लिए पार्टियां किन मुद्दों की मदद लेंगी।


क्या इस बार के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के लिए आतंकवाद का मुद्दा महत्वपूर्ण होगा या बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी या फिर आर्थिक सुधार और उदारीकरण की बात? पिछले दो दशकों में, भारतीय राजनीति में कई परिर्वतन हुए हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव बढ़ा है और राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार घटा है। आज किसी भी एक पार्टी के लिए राष्ट्रीय चुनावों में बहुमत हासिल करना मुश्किल हो गया है। वर्ष 1991 में हुए आम चुनावों में जहां क्षेत्रीय पार्टियों ने कुल मिलाकर लोकसभा की 55 सीटें जीती थीं और लगभग 24 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे, वहीं 2004 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों ने कुल 174 सीटों पर विजय हासिल की और लगभग एक तिहाई प्रतिशत मत प्राप्त किए। इन चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों का वोट प्रतिशत 80 से घटकर 63 ही रह गया। इस तरह देश में मिलीजुली सरकारों का दौर शुरू हुआ।पार्टियों और सरकारों के बदलते स्वरूप के साथ-साथ चुनावी राजनीति और चुनावी रणनीति के स्वरूप में भी काफी परिवर्तन आया। सत्तर और अस्सी के दशक में होनेवाले लोकसभा चुनावों में अक्सर राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी होते थे और राज्यों के या स्थानीय मुद्दे बहुत कम उठाए जाते थे। मिसाल के तौर पर 1971 के लोकसभा चुनाव में 'गरीबी हटाओ', 1977 के चुनाव में इंदिरा हटाओ, 1980 के चुनाव में सरकार की स्थिरता, 1984 के चुनाव में राष्ट्र स्तर पर चली सहानुभूति लहर और 1989 के आम चुनावों में 'बोफोर्स और भ्रष्टाचार' राष्ट्रव्यापी मुद्दे बने थे। पर अब ऐसे राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो गए हैं। पार्टियां अपने घोषणापत्र में भले ही बड़ी-बड़ी बातों का जिक्र करें, परंतु मतदाताओं पर जिसका सबसे ज्यादा असर होता है, वह है उनकी रोजमर्रा की जिंदगी की समस्याएं; जैसे बिजली, सड़क, पानी और रोजगार। उल्लेखनीय यह है कि अब मुद्दों को लेकर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय चुनावों के बीच का अंतर लगभग खत्म हो गया है। किसी भी चुनाव में मतदाताओं के वोट देने के निर्णय पर सबसे ज्यादा असर उन समस्याओं का पड़ता है, जिनका उन्हें रोजाना सामना करना पड़ता है। अगर एक चुनावी क्षेत्र में बिगड़ती कानून व्यवस्था मतदाताओं के बीच अहम मुद्दा है, तो यह संभव है कि उसके बगल के चुनावी क्षेत्र में सड़क या बिजली की समस्या मतदाताओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो। जो उम्मीदवार इन समस्याओं को सुलझाने का ज्यादा आश्वासन देता है या जिस उम्मीदवार ने इन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास दूसरों की तुलना में ज्यादा किया हो, मतदाताओं का रुझान पार्टी के बजाय ऐसे उम्मीदवार की तरफ ज्यादा होता है। सर्वेक्षणों से भी यह बात साफ सामने आई है कि मतदाताओं के वोट देने का निर्णय उम्मीदवार की जात-बिरादरी, धर्म या 'उसकी पार्टी की बजाय' उसकी छवि पर ज्यादा निर्भर करता है। स्पष्ट है कि स्थानीय मुद्दों को अहमियत देने वाले उम्मीदवार मतदाताओं के बीच ज्यादा लोकप्रिय होते हैं। ऐसे बदलते माहौल में राष्ट्रीय मुद्दों का महत्व घट गया है, चाहे वह धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा हो, आतंकवाद का मुद्दा हो या फिर आर्थिक उदारीकरण की नीति का मुद्दा ही क्यों न हो? करीब दो महीने पहले 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों और फिर लोगों के आक्रोश को देखकर ऐसा लगा था कि आतंकवाद चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनकर छाएगा। परंतु मुंबई की घटना के बाद पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से प्रतीत होता है कि आतंकी हमले से आम लोगों में भले ही सरकार के प्रति नाराजगी थी, पर आतंकवाद के मुद्दे ने मतदाताओं के वोट देने के निर्णय पर शायद ही कोई असर डाला हो। सेंटर फॉर द स्टडीज़ डिवेलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा विधानसभा चुनावों में किए गए सर्वेक्षणों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि आतंकवाद विधानसभा चुनावों में चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। इसी तरह सवाल पैदा होता है कि क्या महंगाई और आर्थिक उदारीकरण आने वाले लोकसभा चुनावों में अहम मुद्दे बनकर उभर सकते हैं? बढ़ती महंगाई असल में कई चीजों का मिला-जुला प्रभाव है, जिसमें आर्थिक उदारीकरण की नीति एक कारक है। शहरों में रहने वाले, पढ़ेलिखे नौकरीपेशा लोगों को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चूंकि आर्थिक उदारीकरण की नीति से उन लोगों की माली हालत में सुधार आया है, इसलिए ये मध्यम वर्गीय मतदाता उदारीकरण की नीति के पक्षधर होंगे और चुनावों में उदारीकरण का समर्थन करने वाली पार्टी का पक्ष लेंगे। परंतु इन लोगों की बात करते वक्त गांवों में रहने वाले और पिछड़े व कम पढ़ेलिखे उन 70 फीसदी मतदाताओं को कैसे भूल सकते हैं, जिन्हें आर्थिक नीतियों में होनेवाले फेरबदलों की कम समझ है। इसलिए इसकी गुंजाइश कम ही लगती है कि आर्थिक उदारीकरण की नीति आम चुनाव में एक राष्ट्रीय मुद्दा बन कर उभरेगी। सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट है कि आज भी आम मतदाताओं को आर्थिक उदारीकरण की नीति और उसके असर की जानकारी बहुत कम है। 1996 में जब उदारीकरण नीति को देश में अपनाए हुए पांच साल पूरे हुए थे, तब सिर्फ 19 प्रतिशत मतदाताओं को ही इसकी जानकारी थी। बाद में उम्मीद थी कि इस नीति के बारे में जागरूकता बढ़ेगी, परंतु वैसा कुछ नहीं हुआ। 2007 में किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक आज भी सिर्फ 28 प्रतिशत मतदाताओं को ही आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के बारे में कुछ पता है। देश के दो-तिहाई से भी ज्यादा मतदाताओं ने इसके बारे में कुछ भी नहीं सुना था। सर्वेक्षणों के आंकड़ों और मतदाताओं के अब तक के रुझानों से स्पष्ट होता है कि फिलहाल ऐसा कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, जिसे पार्टियां आम चुनावों में भुना सकें और जिसके आधार पर अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर सकें। ज्यादातर दल स्थानीय मुद्दों के सहारे ही अपनी चुनावी वैतरणी पार लगाने की कोशिश कर सकते हैं।

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