Wednesday, January 28, 2009

भारत अब बदले अपना इतिहास

केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल के इस्तीफे लगभग निरर्थक हैं। इन इस्तीफों से सरकार या सत्तारूढ़ दलों के प्रति जनता में जरा भी सहानुभूति पैदा नहीं हुई। मुंबई में हुई आतंकवादी घटना ने सरकारों और नेताओं पर भरोसे का ग्राफ इतना नीचे गिरा दिया है कि केंद्र और महाराष्ट्र की सरकार भी इस्तीफा दे देतीं, तो लोगों का गुस्सा कम नहीं होता। यह भी सच है कि पिछले आठ-दस साल में केंद्र में जितनी भी सरकारें आईं, उन सबका रवैया आतंकवाद के प्रति एक-जैसा ही रहा है। ढुलमुल, घिसापिटा और केवल तात्कालिक! उन्होंने आतंकवाद को अलग-अलग घटनाओं की तरह देखा है। एक सिलसिले की तरह नहीं। प्राय: जैसे आकस्मिक दुर्घटनाओं का मुकाबला किया जाता है, वैसा ही हमारी सरकारें करती रही हैं। उन्होंने आज तक यह समझा ही नहीं कि आतंकवाद भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध है। युद्ध के दौरान जैसी मुस्तैदी और बहादुरी की जरूरत होती है, क्या वह हम में है? हमारी सरकार में है? हमारी फौज और पुलिस में है? गुप्तचर सेवा में है? नहीं है। इसीलिए हर आतंकवादी हादसे के दो-चार दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। लोग यह भी भूल जाते हैं कि कौन-सी घटना कहां घटी थी। आतंकवाद केवल उन्हीं के लिए भयंकर स्मृतियां छोड़ जाता है, जिनके आत्मीय लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। ऐसे समय में हम राष्ट्र की तरह नहीं, व्यक्ति और परिवार की तरह सोचते हैं। हम भारत की तरह नहीं सोचते। इसीलिए हम युद्ध को दुर्घटना की तरह देखते हैं। यह भारत-भाव का भंग होना है। मुंबई ने इस बार इस भारत-भाव को जगाया है। तीन-चार दिन और रात पूरा भारत यूं महसूस कर रहा था, जैसे उसके सीने को छलनी किया जा रहा है। ऐसा तीव्र भावावेग पिछले पांच युद्धों के दौरान भी नहीं देखा गया और संसद, अक्षरधाम और कंधार-कांड के समय भी नहीं देखा गया। भावावेग की इस तीव्र वेला में क्या भारत अपनी कमर कस सकता है और क्या वह आतंकवाद को जड़ से उखाड़ सकता है? यह कहना गलत है कि भारत वह नहीं कर सकता, जो अमेरिका और ब्रिटेन ने कर दिखाया है। बेशक, इन देशों में आतंकवाद ने दोबारा सिर नहीं उठाया, लेकिन हम यह न भूलें कि ये दोनों देश बड़े खुशकिस्मत हैं कि पाकिस्तान इनका पड़ोसी नहीं है। यदि पाकिस्तान जैसा कोई अराजक देश इनका पड़ोसी होता तो इनकी हालत शायद भारत से कहीं बदतर होती। जाहिर है, भारत अपना भूगोल नहीं बदल सकता, लेकिन अब मौका है कि वह अपना इतिहास बदले। पर क्या भारत की जनता अपना इतिहास बदलने की कीमत चुकाने को तैयार है? यदि है तो वह मांग करे कि भारत के प्रत्येक नौजवान के लिए कम से कम एक साल का विधिवत सैन्य-प्रशिक्षण अनिवार्य हो। देश के प्रत्येक नागरिक को भी अल्पकालिक प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए। यदि ताज और ओबेरॉय होटलों में घिरे लोगों में फौजी दक्षता होती तो क्या वे थोक में मारे जाते? उनमें से एक आदमी भी झपटकर आतंकवादी की बंदूक छीन लेता, तो उन सब आतंकवादियों के हौसले पस्त हो जाते। वहां मौजूद 500 लोगों में से एक भी जवान क्यों नहीं कूदा? इसलिए नहीं कि वे बहादुर नहीं थे। इसलिए कि उन्हें कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं मिला था। वे बरसती गोलियों के आगे हक्के-बक्के रह गए थे। देश की रक्षा का भार फौजियों पर छोड़कर हम निश्चिंत हो जाते हैं। राष्ट्रीय लापरवाही का यह सिलसिला भारत में लंबे समय से चला आ रहा है। अब उसे तोड़ने का वक्त आ गया है। अपने भुजदंडों को अब हमें मुक्त करना ही होगा, क्योंकि हम लोग अब एक अनवरत युद्ध के भाग बन गए हैं। लगातार चलने वाले इस युद्ध में लगातार सतर्कता परम आवश्यक है। ईरान, इस्राइल, वियतनाम, क्यूबा और अफगानिस्तान जैसे देशों में सैन्य-प्रशिक्षण इसलिए अनिवार्य रहा है कि वे किसी भी भावी आक्रमण के प्रति सदा सतर्क रहना चाहते हैं। उधर, आतंकवादी पूरी तरह एकजुट होते हैं। आतंकवादियों को विदेशी फौज, पुलिस, गुप्तचर सेवा, दलालों और विदेशी नेताओं का समर्थन एक साथ मिलता है। जबकि आतंकवादियों का मुकाबला करने वाले हमारे लोग केंद्र और राज्य, फौज और पुलिस, रॉ, आईबी और पता नहीं किन-किन खांचों में बंटे होते हैं। इन सब तत्वों को एक सूत्र में पिरोकर अब संघीय ढांचा खड़ा करने का संकल्प साफ दिखाई दे रहा है, लेकिन वह काफी नहीं है। जब तक हमलों का सुराग पहले से न मिले, ऐसा संघीय कमान क्या कर पाएगा? क्या यह संभव है कि सवा अरब लोगों पर गुप्तचर सेवा के 20-25 हजार लोग पूरी तरह नज़र रख पाएं? यह तभी संभव है कि जब प्रत्येक भारतीय को सतर्क किया जाए। प्रत्येक भारतीय पूर्व-सूचना का स्रोत बनने की कोशिश करे। यह कैसे होगा? इसके लिए जरूरी यह है कि सूचना नहीं देने वालों पर सख्ती बरती जाए।

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