Wednesday, January 28, 2009

वर्तमान विश्व और गांधी मार्ग की संगति


देश के दो टूक टूटने और इस रूप में आजादी पाने के साथ क्या महात्मा गांधी राजनीतिक विचार धारा से बाहर नहीं हो गए?
हमारी स्वतंत्रता के अब तक के इतिहास से लगता यही है कि न केवल गांधी जी भारत के भाग्य के लिए असंगत पड़ गए हैं , बल्कि आगे मानवता के इतिहास में भी उनके मार्ग के अपनाए जाने की संभावना नहीं दीखती है। निश्चय ही उनका व्यक्तित्व अपूर्व था और उनका भाग इतिहास में विशेष उल्लेखनीय होगा , पर वह इतिहास विगत होगा। आगामी इतिहास उन्हें भुलाए ही रहेगा। किंतु शायद जीवन का तर्क सतह पर नहीं रहता है। राजनीति वर्तमान को लेती है और वर्तमान के साथ बीत भी जाती है। गांधी को महात्मा कहना पड़ा- इसी से सिद्ध है कि वह राजनीतिक से कुछ अतिरिक्त थे। राजनेता सत्ता के द्वारा काम करता है। गांधी सत्ता से बचते रहे। भारत राष्ट्र की चौथाई सदी तक उन्होंने अखंड नेतृत्व किया , पर नेतृत्व में उनका मन था नहीं। कांग्रेस संगठन की सामान्य सदस्यता से भी आग्रहपूर्वक उन्होंने उससे छुट्टी पा ली , जब वह उसके सर्वेसर्वा थे। स्पष्ट है कि जिस ध्येय के लिए गांधी काम कर रहे थे , वह राजनीतिक नहीं था , बल्कि उससे कहीं बुनियादी था। वह इतना गहरा रहा होगा कि सत्ता का पद उसके अनुकूल न ठहरे। वर्तमान का क्षेत्र राजनीति का है और राजनीतिक सत्ता कहीं चुक रहने को बाध्य है। गांधी का स्वप्न और उनका जीवनार्पण यदि उस सतह की परिभाषा में नहीं देखा जा सकता है , तो इतने से ही सिद्ध है कि वह सहज समाप्त नहीं है। वह तत्व ज्ञानी तो थे नहीं कि मरने के बाद जीएं , तो तत्वशास्त्र में जाएं। बस किताबों में उनका उल्लेख हो और मत प्रवर्तक के रूप में उनकी गणना रह जाए। अकूत साहित्य उनका है , पर लिखने के लिए उन्होंने वह नहीं लिखा था। वह अनवरत कर्म के पुरुष थे और जो उन्होंने लिखा और सोचा , वह उस कर्म के अंग के रूप में ही। सत्तापति देश में रहता और काल में खो जाता है। मनीषी ऋषि काल में जीता है और देश में शून्य बनकर रहता है। गांधी न सत्ताधीश थे , न उस अर्थ में मात्र ऋषि या संत ही थे। इसलिए कारण नहीं बचता कि देश या काल किसी आयाम में वह खो जाएं और निरर्थक बन जाएं। अहिंसक युद्ध के योद्धा होते भी वह इतने अधिक प्रेम और अध्यात्म के पुरुष थे कि बरबस उन्हें ' महात्मा ' कहना पड़ा। उनमें अंतिम विरोध मिल जाते हैं और छोर एक व अखंड बन जाते हैं। ऐसे संयुक्त पुरुष का प्रकाश कैसे मुक्त हो सकता है। पर हां समय वह जरूर ले सकता है। कारण वह प्रकाश स्थूल तो है नहीं। कर्म में से उसको नापा-परखा नहीं जा सकता। कर्मनिष्ठ गांधी अपने समय के साथ बीत गया। वही गांधी है जो असंगत बन गया है। उसकी याद के मिटने में जो देर लग रही है , सो इस कारण कि भारत ने कृतज्ञतावश उसे अपना राष्ट्रपिता माना है। इस राजनीतिक कृतज्ञता के पाश से उस नाम को छुट्टी मिलेगी , तब से मानो गांधी के आत्मबीज को सिंचन मिलना आरंभ होगा। प्रभु ईसा की स्वीकृति में से ईसाईयत के अंकुर फूटे , तो अनुमान है कि इसमें सौ बरस लगे। अब न केवल उनका धर्म व्याप्त है , वरन् अपने आरंभ काल में ही ईसाईयत ने रोम साम्राज्य को जड़ से उखाड़ डाला। यह राजनीतिक महाक्रांति उस ईसा में से फलित हुई , जिनको सूली लगते वक्त एक भी रोने वाला न मिल सका था। आज की घनघोर तनावों वाली स्थिति से कोई आश्वस्त नहीं है , किंतु प्रवाह का वेग ऐसा है कि सब उसी में बह कर अपने को शेष के खिलाफ जबर्दस्त बना ले जाना चाहते हैं। सभी राष्ट्रों की राजनीतियां और वित्त-व्यवसाय नीतियां उसी ढर्रे पर चल रही हैं। उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा है और परिणाम में हर राष्ट्रवाद उदीप्त और उत्तप्त बन रहता है। इस दुष्चक्र से निजात तो तभी है , जब हिंसा से डरने वाला और डराने वाला दोनों छूटें। अगर प्रगति और उन्नति की दिशा वही रहती है , जो अब तक चली आई है तो डर से छूटना संभव नहीं है। डर का उपयोग तब रहेगा और लगातार आतंक को गठित किया जाता रहेगा। आवश्यक है कि हमारी रहन-सहन की , उद्योग व्यवसाय की , शासन-प्रशासन की , उत्पादन विभाजन की रीति-नीतियों में परिवर्तन आए और आधार उनका प्रतिस्पर्धा की जगह पारस्परिकता का बने। वेलफेयर या सोशलिस्ट स्टेट के नाम पर नियंत्रित और संचालित राज्य का नमूना बदले और उत्तरोत्तर सामाजिक संस्थाओं को स्वायत्तता प्राप्त हो। व्यक्तियों का , समूहों का , राष्ट्रों का , परस्पर व्यवहार इस ढंग पर ढले कि उसमें से अहिंसा की सुगंधि मिले। परस्पर सहायता में संकीर्ण स्वार्थ न रह जाए , पारमाथिर्क स्वार्थ बन जाए। प्राथमिक आवश्यकताओं का उत्पादन और वितरण इतना सहज हो जाए कि बड़े संगठन को उसके बीच में न पड़ना पड़े। आर्थिक और आंकिक हिसाब मानव नीति से निरपेक्ष न हो। शासक सेवक बनने में अपनी सार्थकता देखें और प्रशासक से सेवक की अधिक प्रतिष्ठा हो। देखा जा सकता है कि इसमें पूरी वर्तमान सभ्यता का एक प्रकार अस्वीकार आ जाता है। निश्चय ही आज जिस राजनीतिक मानस के द्वारा जीवन का संचालन हो रहा है , वह एकांगी और अपर्याप्त सिद्ध हुआ है। पूंजीवाद के उत्तर में सृजित हुआ समाजवाद उतना ही अधूरा दिख रहा है। साम्यवाद का लक्ष्य साम्यवादियों की संघटना ने ही मानो असंभव बना दिया है। जिस साम्यवादी राजसत्ता को व्यापक लोक जीवन में समाए रहना था , वह दलों पर ऐसा निर्भर हो आई है कि लोक विश्वास को खो बैठी है। इन सब कारणों से परिस्थिति संकटमय अनुभव होती है। यदि संकट को कटना और अभीष्ट दिशा में उसे मोड़ लेना है , तो मार्गदर्शन के लिए गांधी के प्रकाश को पाना और जगाना होगा। राज्य की प्रस्तुत धारणाएं मानव को एक नहीं बना रही हैं न दुनिया को निकट लाने में मदद कर पा रही हैं। चुनाव में से ऊपर आया तत्व सर्वश्रेष्ठ सिद्ध नहीं होता। दलीय आधार दिक्कतें पैदा करता है। राज्य के तंत्र पर ध्यान इतना हो आता है कि लोक जीवन के प्रति उसका दायित्व दोयम पड़ जाता है। इन सभी दिशाओं में गांधी से उपयुक्त निर्देश प्राप्त हो सकते हैं।

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