Wednesday, January 28, 2009


दिल्ली मेरे लिए घर की तरह है। यहीं मेरा बचपन बीता और मैंने शिक्षा पाई। जब देश आज
ाद हुआ, तब मैं ग्यारह साल की थी। मुझे याद है, उसी समय से पूरे देश से लोग राजधानी आने लगे थे। यह वाकई एक अहम बदलाव था। पहले तो बाटा और डीसीएम जैसी कंपनियां ही यहां हुआ करतीं थीं, लेकिन देखते-देखते माहौल एकदम बदल गया। दिल्ली में पंजाबी, मलयाली, बंगाली और देश के दूसरे हिस्सों से आए लोगों का एक मिला-जुला समाज विकसित हुआ। दिल्ली में आ रही तब्दीलियों पर मैंने नज़र रखी। मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि जब तक लोगों की अपेक्षाओं को, उनके सामाजिक-सांस्कृतिक वैविध्य को नहीं समझा जाएगा, तब तक दिल्ली रूपी इस 'मिनी इंडिया' से जुड़ा नहीं जा सकता। आज दिल्ली की 75 फीसदी आबादी युवाओं की है। वे जाति और समुदाय को महत्व नहीं देते, उनका सरोकार बस डिवेलपमेंट से है। पहले मुझे दिल्ली की सियासत उतनी नहीं समझ में आती थी, हालांकि यूपी की राजनीति की जानकारी थी, क्योंकि मेरी ससुराल वहीं है और मेरे पति का परिवार वहां की राजनीति में सक्रिय रहा है। वहां रहते हुए मैंने महसूस किया कि उस राज्य की राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण तत्व है। लेकिन दिल्ली आने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यहां के लोग जाति, समुदाय या धर्म की बजाय सरकार के कामकाज को ज्यादा महत्व देते हैं। आखिर कोई बच्चा सरकार से क्या उम्मीद करता है? यही न कि उसे अच्छा स्कूल मिले, बेहतर सड़क मिले, उज्वल भविष्य मिले? या वह यह आशा करता है कि उसे जाति या धर्म का पाठ पढ़ाया जाए? हमारी सरकार ने इस तथ्य को बखूबी समझा है, इसीलिए हम दूसरी बार एंटी इन्कम्बैंसी को मात दे सके। हम उनके साथ मिलकर चलना चाहते हैं। हमारे 'भागीदारी' अभियान का यही मकसद है। इसके जरिए हमने जनता को अपने कामकाज के बारे में बताया। हमने दिल्लीवासियों से साफ तौर पर कहा कि हमारे पास जादू की कोई छड़ी नहीं है, फिर भी हम प्रयास कर रहे हैं। इस क्रम में हमें कई तरह की मुश्किलें भी आईं, लेकिन हम लोगों से कहते रहे कि वे अपनी बातें खुलकर सामने रखें। इसके लिए हमने एक फोरम तैयार किया। सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) को संस्थागत रूप देने वाले अग्रणी राज्यों में दिल्ली एक है। 'भागीदारी' की कार्यशालाओं में हमने लोगों को पुस्तिकाएं बांटीं जिससे वे सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी पा सकें। मुझे अपने काम और इमिज के कारण तीसरी बार जीत मिली है, जाति के कारण नहीं। क्या दूसरे राज्य हमारे अनुभव से कोई सबक लेंगे? अगर राजनीति में जाति का वर्चस्व समाप्त करना है तो राजनीतिक दलों और सरकार को जनता से संवाद करने की योग्यता विकसित करनी होगी। मैंने जनता से संवाद करते हुए अलग-अलग तबके की भाषा, उनके मिजाज, तौर-तरीके और समस्याओं का ध्यान जरूर रखा। एक बूढ़ी विधवा या बेरोजगार युवक से बातचीत उसी तरह नहीं की, जिस तरह एक लेखक या बुद्धिजीवी से की। इसी तरह जोरबाग के एक व्यक्ति या एक अनधिकृत कॉलोनी के निवासी से संवाद का तरीका अलग रहा। मैंने चीफ मिनिस्टर रिलीफ फंड का सार्थक इस्तेमाल करने की कोशिश की। मैं रोज लोगों के साथ बैठक करती हूं जिनमें मुझे कभी फूलों का गुच्छा मिलता है तो कभी जनता की फटकार भी। मैंने दिल्ली में हरियाली के प्रसार के लिए प्रयास किया और उसमें सफलता मिली। इसी तरह पावर सेक्टर की समस्याएं हमने दूर कीं। बिजली चोरी रोकने में हमें सफलता मिली। लोगों को इलेक्ट्रॉनिक मीटर से शिकायतें थीं। मैंने इस मामले में भी लोगों से संवाद करके रास्ता निकाला। मैंने चुनाव सभाओं में मुंबई की घटना का कभी जिक्र नहीं किया। किसी ने मुझसे इसके बारे में कुछ पूछा भी नहीं। मैं समझ गई कि यह मुद्दा उनकी ज़िंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं कर रहा है। उनके लिए उनके बच्चों का अच्छे स्कूलों में दाखिला ज्यादा मायने रखता है, उन्हें अच्छी सड़कें और फ्लाईओवर चाहिए, उन्हें नियमित पानी और बिजली चाहिए। विपक्ष ने आतंकवाद के अलावा महंगाई का मामला उठाया, लेकिन यह चल नहीं पाया। मैंने कहा कि यह दरअसल एक ग्लोबल मसला है, जिससे दिल्ली का बच पाना कठिन है। मतदाताओं ने मेरी यह बात समझी और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मुझे वोट दिया।

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