Wednesday, January 28, 2009

भारत संयम बरते या पाक को सिखाए सबक?


लगातार हो रहे आतंकवादी हमलों से देश में आक्रोश बहुत ज्यादा है। चुनाव भी सामने है , जिसमें राजनेताओं को अपनी-अपनी बहादुरी दिखानी है। लिहाजा गंभीर समझे जाने वाले राजनेता और जिम्मेदार अधिकारी भी आपसी बातचीत में पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर के हिस्सों और पाकिस्तानी पंजाब में ' सर्जिकल ऑपरेशन ' को जरूरी बताने लगे हैं। लेकिन इस दिशा में कुछ भी करने के पहले यह मान कर चलें कि छोटे से छोटे ऑपरेशन का भी जवाब पाकिस्तान की ओर से आएगा। और यह जवाब न्यूक्लिअर भी हो सकता है। भारत को पाकिस्तान के खिलाफ हथियार उठा कर कुछ भी करना है तो उसे अमेरिका , रूस और चीन की सहमति से ही किया जाना चाहिए। यह सोचना गलत है कि इससे हमें विदेश नीति के स्तर पर पिछलग्गू समझ लिया जाएगा। दरअसल , रणनीतिक बुद्धिमत्ता इसी में है। पाकिस्तान अभी आतंकवाद के मुद्दे पर भीतर , बाहर दोनों ओर से घिरा हुआ है। उसके पारंपरिक संरक्षक कहे जाने वाले दोनों देश अमेरिका और चीन आज पहले की तरह से उसके साथ नहीं हैं। अमेरिका के तेवर तो 9/11 के बाद से ही बदलने लगे थे और भारत के साथ परमाणु समझौते के बाद से पाकिस्तान के प्रति उसके नजरिए में बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है। उधर , चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध के भारतीय प्रस्ताव के पक्ष में अपने पूरे इतिहास में पहली बार मतदान किया। इससे उसका पाकिस्तान के प्रति सशंकित होना साफ जाहिर होता है। भीतरी मोर्चे पर बलूचिस्तान , उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत और कबायली इलाके पाकिस्तान सरकार के खिलाफ गृहयुद्ध की स्थिति में हैं। पाकिस्तान के खिलाफ भारत की कोई भी कार्रवाई इस देश को दोबारा एकजुट करने में मददगार साबित हो सकती है। ऐसे में मेरी मान्यता यही है कि पाकिस्तान के खिलाफ संघर्ष को हथियारों की हद तक न पहुंचने दिया जाए , और यह नौबत आए भी तो यह काम अंतरराष्ट्रीय सहमति के दायरे में किया जाए। इस बहस में हिस्सा लेने के लिए यहां क्लिक करें खतरा बढ़ाएगा जंग का माहौल प्रो. आशीष नंदी (चेअरमन , सीएसडीएस) हमले की बात भी दिमाग में आने से पहले हमें सोचना चाहिए कि क्या हम पाकिस्तान में सेना को दोबारा सत्ता में वापस लाना चाहते हैं ? यह सोचना जरूरी इसलिए है क्योंकि भारत की तरफ से लड़ाई या सीमित स्तर की सैनिक कार्रवाई का पहला गोला दगने के साथ ही वहां ठीक यही होना है। भारत के नीति-निर्माता तय करें कि वे ऐसा चाहते हैं या नहीं। पाकिस्तान में इस बार सेना वापस आई तो यह सरकार में उसकी पहले जैसी आवाजाही नहीं होगी। इसके साथ पाकिस्तान में बहुत बड़ी अराजकता भी जुड़ी होगी , जिसमें कोई भी दावे के साथ यह कहने की हालत में नहीं होगा कि ऐटमी हथियार वहां किसके हाथ लगेंगे। अगर ये तालिबानी ताकतों या दूर-दूर से उन्हें समर्थन दे रहे फौजी गुटों के हाथ लग गए तो भारत के खिलाफ ऐटमी हथियारों का इस्तेमाल अवश्यंभावी हो जाएगा। क्या हम भारत की आने वाली पीढ़ियों को अनगिनत मौतों , विकलांगता और रेडियोधर्मिता का उपहार देकर जाना चाहेंगे ? भारत के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हमें पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों को ही अपना समर्थन देना होगा। भले ही ऊपर से फौजी हुकूमत और पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारों में भारत के प्रति रवैये के मामले में ज्यादा फर्क न नजर आए , लेकिन गहराई में जाने पर फर्क साफ दिखाई पड़ता है। हमें अपनी अपेक्षाओं के बारे में सतर्क रहना चाहिए। सरकार बदलने से रातों रात किसी देश की नीतियां नहीं बदल जातीं। नीतियां तभी बदलती हैं जब उस देश का जनमत बदलता है। इसके लिए पाकिस्तान को भी समय मिलना चाहिए। भारत के हमलावर तेवरों का एक असर यह देखने को मिल रहा है कि वे तालिबान भी पाकिस्तानी फौज के साथ एकजुट होकर भारत के खिलाफ जंग में उतरने के बयान देने लगे हैं , जिनकी अपनी राष्ट्रीय सेना के साथ एक लंबे अर्से से भयंकर लड़ाई चल रही है। भारत ने मुंबई हमले के बाद से पाकिस्तान के बरक्स जो भी किया है , उसका अपना एक अलग औचित्य है , लेकिन इस आक्रामक तेवर को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि चीजें पॉइंट ऑफ नो रिटर्न की तरफ बढ़ती चली जाएं। अभी तो भारत के रवैये से उसके इस बिंदु तक पहुंचने जैसी कोई बात नहीं नजर आती , लेकिन अब समय आ गया है कि चीजों को संयत बनाया जाए।

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