Monday, February 2, 2009

सुरक्षा को औरत का हक नहीं माना

साल के शुरू में ही दिल्ली से सटा नोएडा फिर सुर्खियों में आ गया है। पिछले साल हुए निठारी कांड और आरुषि कांड के बाद अब इस वहशी सामूहिक बलात्कार की घटना के कारण यह शहर फिर से चर्चा में है। आम नागरिक इस घटना से स्तब्ध है। ऐसे हालात में महिलाएं कैसे सुरक्षित रह पाएंगी? इस घटना की तुलना पत्रकार सौम्या विश्वनाथन के साथ हुए हादसे से करते हुए कोई यह भी नहीं कह सकता कि उस लड़की ने कोई दुस्साहस किया था। सौम्या की हत्या के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री ने कहा था कि आधी रात को अकेले घर से बाहर जाकर उसने दुस्साहस किया। पर नोएडा में यह छात्रा तो अपने एक साथी के साथ कार में शॉपिंग मॉल से वापस लौट रही थी। जब महिलाएं कार में सुरक्षित नहीं हैं, तो पैदल चलने वाली महिलाएं कितना भय अपने साथ लेकर चलती होंगी- इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आमतौर पर हमारे समाज में जब इस तरह की गंभीर घटनाएं सामने आती हैं, तब प्रशासन, मीडिया तथा आम जन भयानक उथलपुथल से घिर जाते हैं और परेशान नजर आते हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं पर उठे बवाल के शांत होने के बाद इनके स्थाई समाधान को लेकर कोई अधिक चिंता नहीं देखी जाती है। अगर ऐसा होता, तो इनसे निपटने के ठोस उपाय भी सोचे गए होते। अपने देश में बलात्कार के 49 हजार मामले अदालतों में लंबित पड़े हैं। बलात्कार के जितने केस दर्ज होते हैं, उनमें से 25 प्रतिशत अपराधियों को ही सजा मिल पाती है। पिछले साल इस संबंध में गृह मंत्रालय ने जो आंकड़े पेश किए थे, वे इसके सबूत हैं कि स्थिति कितनी शोचनीय है। मंत्रालय के अनुसार देश में हर दिन बलात्कार के 57 मामले दर्ज होते हैं, यानी यहां हर 25 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है। इसके अलावा प्रति मिनट 106 महिलाएं छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। ऐसे समय में, जबकि सरकार लगातार महिलाओं के सशक्तीकरण की बात कह रही है, यौन हिंसा के अलावा स्त्री विरोधी दूसरे तरह की हिंसाओं के ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं और स्थिति की गंभीरता को बताते हैं। बहरहाल, ये आंकड़े तो समस्या का नमूना भर हैं। सभी जानते हैं कि वास्तविक अपराधों की संख्या, दर्ज केसों के मुकाबले कई गुना अधिक हो सकती है। वजह यह है कि हमारे समाज में ऐसे मामले औरत की इज्जत के साथ जोडे़ जाते हैं और स्त्री की प्रतिष्ठा को बचाने के नाम पर ऐसा कुछ हो जाए तो उस पर पर्दा डालने की ही कोशिश की जाती है। उनके खुलासे से भरसक बचा जाता है। यौन हिंसा की ज्यादातर घटनाओं को इसीलिए दबाने की हर मुमकिन कोशिश होती है। दूसरे, हमारे देश में कानूनी प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि साधारण इंसान तो उसका सामना करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता है। इसके बावजूद यदि सिर्फ दर्ज मामलों पर ही गौर किया जाए, तो स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। यह मानना गलत होगा कि हर अपराधी दिमागी तौर पर बीमार होता है। कुछ अपराधी जरूर ऐसी प्रवृत्ति के हो सकते हैं, लेकिन ऐसे अपराधों का ज्यादा बड़ा कारण हमारे समाज में व्याप्त स्त्रीदोही मानसिकता है। समाज की हर इकाई के हर संस्थान में, चाहे वह परिवार हो, शिक्षण संस्थान हो या कोई भी कार्यस्थल, स्त्री कहीं भी भोग लिए जाने या इस्तेमाल की वस्तु समझे जाने से बच नहीं पाती है। ऐसा सिर्फ अपराधी प्रवृत्ति के लोग ही नहीं सोचते, बल्कि दूसरे सभ्य दिखने वाले अन्य तमाम लोगों की सोच में भी उस मानसिकता के दर्शन होते हैं। बलात्कार औरत को डराने का सबसे बड़ा हथियार है। जब जमीन संपत्ति का मसला हो, धर्म का या सांप्रदायिक दंगे का मसला हो या जब युद्ध की स्थिति हो, हर ऐसी स्थिति में महिला यौन हिंसा की शिकार होती है। असल में, नोएडा की घटना हमारे समाज की अंदरूनी बीमारी का ही प्रतिबिंबन है। हजारों महिलाएं हर साल ऐसिड अटैक की शिकार हो रही हैं, क्योंकि वे कुछ पुरुषों की इच्छा के सामने समर्पण करने से इनकार कर देती हैं। उड़ीसा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ, तो उड़ीसा के कुछ अखबारों ने इस घटना पर ही संदेह जताया। उसी तरह विदेशी टूरिस्ट स्कारलेट के बलात्कार तथा उसकी हत्या के बाद उसके चरित्र को ही लांछित करने का प्रयास किया गया। गोवा के 385 व्यक्तियों ने अपने नाम-पते के साथ अखबार में विज्ञापन दिया कि वह तो असल में एक चरित्रहीन लड़की थी। यह उन सभी 385 पुरुषों की मानसिकता का प्रतिबिंब था, जो यह मान कर चलता है कि उसे किसी भी स्त्री को चरित्र का सर्टिफिकट देने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। और यदि कोई चरित्रहीन है तो उसके साथ बलात्कार किया जा सकता है, हत्या की जा सकती है - वह कोई बड़ी बात नहीं है। कानून में संशोधन के बावजूद भारतीय जनमानस यह बात स्वीकार नहीं कर पाया है कि बलात्कार के अपराध का पीडि़ता के चरित्र से कोई लेनादेना नहीं होता। यदि महिला के साथ किसी ने यौनाचार किया है, तो इससे अपराधी का दोष कम नहीं हो जाता कि महिला के चरित्र पर कोई दाग था। जाहिर है कि ये बातें अपराध को छिपाने या अपराधी को बचाने के लिए उठाई जाती हैं। दरअसल, हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा का मामला अभी तक उनके अधिकार के तौर पर स्थापित नहीं हो पाया है। उनके साथ होने वाले अपराधों को नैतिक बुराई के रूप में लिया जाता है। मसलन, समाज का बड़ा तबका एक बलात्कारी के बारे में इस तरह सोचता है कि कुछ लोग कितने बुरे और अनैतिक हैं कि एक बेचारी स्त्री की आबरू से खेलते हैं या उसका शीलभंग कर डालते हैं। इसी तरह यौन हिंसा या बलात्कार की जगह 'दुष्कर्म' शब्द का प्रयोग अपराध की तीव्रता को कम कर देता है। महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ को तो गंभीर अपराध की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता। यदि सुरक्षित होना महिलाओं का हक माना जाता, तो प्रशासन और पूरे समाज को यह जिम्मेदारी उठानी पड़ती और उनकी सुरक्षा के उपाय करने पड़ते।

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